भाजपा का जेडीयू द्वारा भय दोहन

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nitish-kumar-विनायक शर्मा  

 

बिहार में एनडीए की बहुमत की सरकार चला रहे जेडीयू के नितीशकुमार को कुछ अधिक ही छटपटाहट सी लगी हुई जान पड़ती है. वैसे यह कोई नई बात नहीं है. समाजवादियों के लिए किसी भी दल या गठबंधन में अधिक दिन तक बने रहना बहुत ही कठिन है. इनका पूर्व का इतिहास इस बात का गवाह है कि यह अपनी छटपटाहट के कारण ठीक-ठाक चल रही सरकार की बलि देने से भी गुरेज नहीं करते. दोहरी सदस्यता के नाम पर जयप्रकाश के सपनों को साकार करने के लिए चार मुख्य दलों को मिला कर बनाई गई जनतापार्टी का विघटन और मोरारजी भाई देसाई के नेतृत्व में जनतापार्टी की सरकार को गिराने का कारण प्रमुख रूप से यही पूर्व के समाजवादी ही थे. जनता पार्टी के विघटन के पश्चात इनका इतना बिखराव हुआ कि जनतापार्टी या जनतादल के नाम से तमाम नए दल बने और लुप्त होते गए. बिहार में जेडीयू और आरजेडी, कर्नाटक में देवगौड़ा का जनता दल या सुब्रामनियम की जनता पार्टी पारे के समान बिखरे या शेष रहे जनतापार्टी के ही अंश हैं.

बिखराव की इसी राजनीति के नए अवतार बन कर उभर रहे हैं बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार. सेकुलरिजम के नाम पर नरेन्द्रमोदी के विरोद्द के पीछे असल वजह क्या है यह राजनीतिक विश्लेषकों से यह छुपा नहीं है. इस विरोद्द के पीछे असल वजह है अपनी राजनीति और वोट बैंक को बचाने के साथ-साथ भाजपा का भय दोहन करना. समय-समय पर अलग-अलग कारणों से जेडीयू पूर्व में भी कुछ ऐसा ही कर चुकी है जिसका लाभ भी उसे मिला है. वर्ष २०००, २००५ और २०१० के बिहार विधानसभा के चुनावों में जेडीयू व भाजपा द्वारा लड़ी गई सीटों पर यदि एक नजर दौडाई जाये तो स्थिति स्वतः ही स्पष्ट हो जाती है. स्वयं की गलतियों और कमजोरियों के कारण निरंतर कमजोर हो रही भाजपा पर प्रधानमंत्री पद के अघोषित दावेदार नरेन्द्रमोदी और सेकुलरिज्म के नाम पर नित नए हमले करने वाली जेडीयू के लिए बिहार में भाजपा के बगैर और कांग्रेस की मदद से सरकार चलाने की सोचना कितना आत्मघाती है यह जेडीयू के नेता भी जानते हैं. इसलिए राजनीति के मंजे हुये खिलाड़ी नीतीश या शरदयादव कोई बड़ा ख़तरा नहीं उठाना चाहते हैं.

वैसे यह सभी जानते हैं कि २०१४ के लोकसभा के चुनावों में एक ओर जहाँ कांग्रेस की सीटें कम होने का अंदेशा और भाजपा की सीटें बढने की आशा है, परन्तु इतनी नहीं कि भाजपा अपने बूते या एनडीए के सहारे केंद्र में सरकार बना सके. ऐसे में एनडीए को नए मित्रों के रूप में कुछ बड़े दलों के समर्थन की आवश्यकता पड़ेगी. कमोबेश कुछ ऐसी ही परिस्थिति से निपटने के मार्ग कांग्रेस भी तलाश रही है. जेडीयू भी उत्तरप्रदेश, जहाँ माया और मुलायम प्रदेश में विरोद्द के बावजूद केंद्र में कांग्रेस को समर्थन दे रही हैं, बिहार में लालू और पासवान के विरोद्द के बावजूद कांग्रेस से सहयोग करने का प्रयोग करना चाह रही है. ऐसा लगता नहीं कि जेडीयू के अतिउत्साही नेता बिहार और देश की वास्तविक परिस्थिति से अनभिज्ञ हों. साम्प्रदायिकता के नाम पर राजनीतिक विरोद्द या सहयोग आज एक ठुस्स-पटाखे की मानिंद नाकारा साबित हो चुका है. तुष्टिकरण की राजनीति करनेवाले यह भली-भांति समझ चुके हैं कि एक जाति या संप्रदाय को लाभान्वित करने के चक्कर में दूसरों का स्वतः ही ध्रुवीकरण हो जाता है. २०१२ के चुनावों में उत्तरप्रदेश में माया की सरकार का जाना और समाजवादी पार्टी का पुनः सत्ता में लौटने के पीछे इसी प्रकार का ध्रुवीकरण मुख्य कारण रहा था. एनडीए का मुख्य घटक होने के नाते जहाँ एक ओर भाजपा के लिए भी यह एक बड़ी चिंता का विषय है कि २४ दलों से घटकर शेष बचे ४ दलों को किस प्रकार गठबंधन में बनाये रखा जाये वहीँ उसे बिहार की सरकार के जाने की चिंता नहीं है. २४३ सदस्यों वाली बिहार विधानसभा में जेडीयू के ११५ और भाजपा के ९१ विधायकों को मिलाकर ही नीतीश के नेतृत्व में एनडीए की सरकार चल रही है. मोदी के नाम पर यदि जेडीयू ने गैरवाजिब विरोद्द और भयदोहन जारी रखा तो संभव है कि बिहार में एनडीए गठबंधन टूट जाये. ऐसे में जादूई आंकड़े को पार करने के लिए जेडीयू को मात्र ७ सदस्यों के समर्थन की आवश्यकता पड़ेगी जो उसे काँग्रेस के ४ व अन्य ३ सरलता से मिल जायेंगे. परन्तु वोह सरकार कितनी टिकाऊ होगी इस पर संशय रहेगा. दूसरी ओर २०१४ के लोकसभा व २०१५ के बिहार विधानसभा के होनेवाले चुनावों में भाजपा के बिना जेडीयू का प्रदर्शन कैसा रहेगा यह भी जेडीयू के नेताओं से छुपा नहीं है. निसंदेह जेडीयू अर्श से फर्श पर आ जायेगी और भाजपा उस दशा में भी अपने शहरी और केडर वोट के सहारे सम्मानजनक प्रदर्शन करने में सफल रहेगी. हाँ, बड़ी बात यह रहेगी कि नीतिश से छत्तीस का आंकड़ा रखनेवाले लालूयादव की आरजेडी को आशातीत लाभ मिलेगी और संभव है कि वह कांग्रेस व पासवान के सहारे बिहार की सत्ता पर काबिज भी हो जाये.

जेडीयू बिहार में भाजपा के सहारे ही दूसरी पारी के सत्ता का सुख भोग रहा है. कुछेक को छोड़ अधिकतर जेडीयू नेता इस गठबंधन को चलाये रखने के पक्षधर हैं व इसे तोडना तो कतई नहीं चाहते हैं. ऐसा भी संभव है कि मोदी के नाम का विरोद्द और भाजपा से नाता तोड़ने के चक्कर में कहीं जेडीयू का ही विघटन ना हो जाये. राजनीति में ना कोई दुश्मन होता है और ना ही कोई दोस्त. भविष्य की रणनीति तय करते समय निज या दलहित में लाभ-हानि की गणना करने का सभी को बराबर का अधिकार है. ऐसे में किसी को भी इतना भी ऐंठना नहीं चाहिए कि वह टूटने के कगार पर पहुँच जाए. और राजनीति भी इस मूल मंत्र से अछूती नहीं कही जा सकती, यह जेडीयू के नेताओं को समझना होगा.

-विनायक शर्मा

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विनायक शर्मा
संपादक, साप्ताहिक " अमर ज्वाला " परिचय : लेखन का शौक बचपन से ही था. बचपन से ही बहुत से समाचार पत्रों और पाक्षिक और मासिक पत्रिकाओं में लेख व कवितायेँ आदि प्रकाशित होते रहते थे. दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षा के दौरान युववाणी और दूरदर्शन आदि के विभिन्न कार्यक्रमों और परिचर्चाओं में भाग लेने व बहुत कुछ सीखने का सुअवसर प्राप्त हुआ. विगत पांच वर्षों से पत्रकारिता और लेखन कार्यों के अतिरिक्त राष्ट्रीय स्तर के अनेक सामाजिक संगठनों में पदभार संभाल रहे हैं. वर्तमान में मंडी, हिमाचल प्रदेश से प्रकाशित होने वाले एक साप्ताहिक समाचार पत्र में संपादक का कार्यभार. ३० नवम्बर २०११ को हुए हिमाचल में रेणुका और नालागढ़ के उपचुनाव के नतीजों का स्पष्ट पूर्वानुमान १ दिसंबर को अपने सम्पादकीय में करने वाले हिमाचल के अकेले पत्रकार.

4 COMMENTS

  1. अप्रैल १४ का लिखा आलेख सही भविष्यवाणी है। आपकी टिप्पणी भी सही है। भाजपा के लिए एक सुभाषित।

    यत्र सर्वे विनेताराः सर्वे पण्डितमानिनः।
    सर्वे महत्वं इच्छन्ति, स पक्षं ह्याशु नश्यति॥

    जहाँ सारे नेता होते है, (होना चाहते है), सारे अपने आपको पण्डित मानते हैं।
    सभी को बडप्पन चाहिए, ऐसा पक्ष संसार में नष्ट हुआ करता है।

    आपका विश्लेषण भविष्य वाणी भी है।

  2. जनता दल अब तक इतनी बार टूट चूका है कि अब आगे कि किसी भी ऐसी घटना को टूटना नहीं बल्कि पिसना कहना चाहिए. जनता दल (यूजलेस) अभी तक इस बात को नहीं समझ सका, इस बात पर हमें आश्चर्य है. इतिहास हमें सिर्फ यह सिखाता है कि इतिहास से आजतक किसी ने कुछ नहीं सीखा.

  3. अनिल जी आपका कथन अक्षरशः सत्यता को ही दर्शाता है. जेडीयू बिहार में मुस्लिम मतों पर अपना एकाधिकार ज़माने के चक्कर में ही मोदी पर साम्प्रदायिकता का आरोप जड़ कर रहा है. दुसरे वह २०१४ के लोकसभा के चुनावों और २०१५ के बिहार विधानसभा के चुनावों में अधिक सीटों के लिए दबाव भी बना रही है. इस प्रकार वह भय दोहन का शातिराना खेल खेलने में लगी हुई है. इन सब से यदि उसे कुछ हासिल नहीं हुआ तो उसने कांग्रेस से भी समझौता करने का विकल्प खुला रखा है. ऐसे में भाजपा को ही सावधान रहने की आवश्यकता है. आरजेडी के लालू प्रसाद यादव और लोजपा के पासवान की रोज-रोज की चख-चख से परेशान होकर जिस प्रकार कांग्रेस ने इन दोनों को धरती सुंघा दी थी….और अलग अलग चुनाव लड़ा था ठीक उसी प्रकार भाजपा को भी जेडीयू को वास्विकता के दर्शन करवाने की आवश्यकता है. भाजपा की कमजोरी के कारन ही वर्ष २००० के चुनावों में मात्र ८७ सीटों पर चुनाव लड़नेवाली जेडीयू ने २००५ के चुनावों में १३९ और २०१० में १४१ सीटों पर चुनाव लड़ा था. वहीँ भाजपा को जेडीयू के भय दोहन के सामने नत मस्तक होते हुए जहाँ २००० के चुनावों में १६८ और २००५ व २०१० के चुनावों में क्रमशः १०३ व १०२ सीटों पर चुनाव लड़ना पड़ा था. एक बड़े जनाधार वाले राष्ट्रीय दल की यह कमजोरी नहीं तो और क्या है ? इसके ठीक विपरीत कांग्रेस में ऐसा नहीं है. कांग्रेस नामक विशाल वृक्ष किसी भी लता को अमरबेल बन पनपने की अनुमति कदाचित नहीं देता है, यह भाजपा को सीखना होगा.

  4. सही कहा है की समाजवादियों को थोड़े-२ दिन में पेट दर्द होने लगता है और कहीं और नहीं तो अपनों पर ही वार प्रारंभ कर देते हैं. आज़ादी के पूर्व से ही इनका ये हाल रहा है. आज़ादी के बाद ‘प्रजा समाजवादी पार्टी’ और ‘संयुक्त समाजवादी पार्टी’ के नाम से दो दल बन गए थे वो बाद में चोधरी चरण सिंह की ‘भारतीय क्रांति दल’ में विलीन हो कर लोक दल बन गए. बाद में इमरजेंसी में जनसंघ, लोकदल, स्वतंत्र पार्टी और संगठन कांग्रेस मिलकर जनता पार्टी बने. लेकिन १९७७ की एतिहासिक लोकतान्त्रिक क्रांति के बाद उनके पेट में दर्द चालू हो गया और जनता पार्टी के सबसे बड़े घटक दल जनसंघ के सांसदों के आर एस एस से संबंधों का हल्ला मचाते हुए दोहरी सदयता का भूत खड़ा कर दिया और मोरारजी देसाई की अपनी ही पार्टी की सर्कार को गिर दिया. जिससे जनता इतना नाराज़ हुई की उसने पुनः इंदिरा गाँधी वापस सत्ता सौंप दी.
    अब भी ऐसा ही आचरण कर रहे हैं. पिछले सत्रह वर्षों से जनता दल भाजपा के कंधे पर स्वर होकर सत्ता का सुख भोग रही है. लेकिन अब इन्हें भाजपा में साम्प्रदायिकता दिखाई देने लगी है.२०१० के बिहार विधान सभा के चुनावों में जनता दल ने मनमानी करते हुए भाजपा को केवल १०१ सीटों पर लड़ने दिया था और स्वयं 142 सीटों पर लड़े थे. भाजपा के ९१ सदस्य चुन कर आये जो लड़ी गयी सीटों का ९०.०१% था.जबकि जनता दल को केवल ११५ सीट मिली थीं जो लड़ी गयी सीटों का केवल ८०.९% था. यदि भाजपा ने अधिक सीटें लड़ी होती तो भाजपा ज्यादा सीटें लाती.
    अगर नितीश बाबु को सत्ता की चर्बी कुछ ज्यादा ही चढ़ गयी हो तो अकेले लड़ कर देख लें अपनी औकात पता चल जाएगी. भाजपा को भी दोहरी सदस्यता का भूत मोदी जी की आड़ में दोहराए जाने का मौका जनता दल को लम्बे समय तक नहीं देना चाहिए.नितीश बाबु के इस धोखे का सबक जनता उन्हें समय आने पर सिख देगी. और जिस प्रकार कर्णाटक में जे डी (एस) के धोखे का खामियाजा जनता दल(एस) को मिला ऐसा ही बिहार में भी होगा. बस सुशिल मोदी और यशवंत सिन्हा जैसे नेता अपनी वाणी पर संयम रखें.

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