उधार के सपने

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emiमनोज कुमार

बैंक के भीतर जाना मेरे लिए आसान नहीं होता है। एक साहस का काम है और साहस जुटाकर जैसे ही मैंने बैेंक के दरवाजे पर पैर रखा, वहां कागज पर छपी इबारत सहसा मेरा ध्यान खींचकर ले गई। ‘सपने पूरे करें, किश्तों में मोबाइल लें।’ यानि दूसरे के महंगे मोबाइल की ओर ताकने की जरूरत नहीं। कर्ज देेने वाली इस इबारत में लिखा था कि आप किश्तों में पचास हजार रुपये कीमत की मोबाइल की खरीददारी कर सकते हैं। दीवार पर लगी इबारत ने मुझे भीतर तक हिला दिया था। बेटी के ब्याह के लिए पिता को कर्जदार होते देखा है, खेतों में फसलों के खराब हो जाने से किसानों को कर्जदार होते देखा है, कारोबार बढ़ाने के लिए कर्जदार होते देखा है और यह भी देखा है कि इसमें सबने अपनी सांसों की कीमत पर कर्ज लिया था। कुछ की सांसें टूट गई कर्ज चुकाते चुकाते तो कुछ कर्ज चुकाने के फेर में बिस्तर पकड़ लिया। शायद कर्ज का फर्ज है कि वह आपकी जिंदगी में जोंक की चिपक जाए और खून की आखिरी बूंद भी निचोड़ ले। कर्जदार होना कितना भयावह है और इसी अनुभव के साथ पुराने लोग कहते थे कि एक रोटी कम खा लो लेकिन कर्ज मत लो। ये वही लोग हैं कर्ज लेने वालों के लिए फब्तियां कसते हुए कहते थे कंबल ओढक़र घी पीना।

उस दौर में कर्ज लेने वालों के आंखों में पानी होता था। अब न वो लोग रहे और ना वो बात। बाजार की इस दुनिया में सबकुछ उधार का है। सपने आप पालिये और आपको पालने के लिए उधार एक पांव पर खड़ा है।  सपनों को पूरा करने के लिए ख्रीसे में दाम हो या ना हो, सपने आपके बड़े होने चाहिए, यह बाजार की शर्त है। सवाल यह नहीं है कि बाजार क्या कर रहा है, मेरे मन को तो यह सवाल मथ रहा है कि आखिर हम जा कहां रहे हैं? शादी-ब्याह के लिए कर्ज तो एक मजबूरी है और खेत में अच्छी फसल की आस में किसान कर्जदार बन जाए तो भी मन को मना लिया जाए लेकिन बड़े आलीशान मकान, बड़ी कार और अब मोबाइल जैसे फालूत यंत्र के लिए भी कर्ज? शिक्षा समाज और देश का निर्माण करती है लेकिन उधार की शिक्षा किस तरह देश और समाज का निर्माण करेगी, यह बात मेरी समझ से परे है। रोज-ब-रोज घपले घोटाले की खबरों में इस उधार की शिक्षा की छांह से आप इंकार नहीं कर सकते हैं। कलाम साहब हमारे लिए उदाहरण हैं कि वे अखबार बेचकर संसार के लिए ‘आइकॉन’ बने तो उसी भारत में उधार की शिक्षा कौन सा पाठ पढ़ाती है? क्या जरूरत है कि हमारे बच्चे विदेशों में पढऩे जाएं या फिर अपने ही देश के महंगे कॉलेजों में पढ़ें और क्यों हम अपने बच्चे को उधार की शिक्षा दें? एक ऑटो चालक पिता ने अपनी बेटी को उधार की शिक्षा नहीं दी लेकिन वह अपनी प्रतिभा से आज देश की अफसर बन चुकी है।

बाजार से लेकर सरकार तक, सभी आमादा हैं कि आप की एक-एक सांस उनकी कर्जदार हो जाए और हम भी इसके लिए तैयार हैं। हम अपने सपनों को छोटा नहीं करते हैं, खर्चो मेें कटौती नहीं करते हैं, अपनी काबिलियत पर हमारा भरोसा ही नहीं रहा। उधार की गाड़ी में बैठकर मन और तन को खराब करना मंजूर है किन्तु सायकल पर चलना हमारी इज्जत को खाक कर देता है। बच्चे महंगी शिक्षा न लें तो उनका भविष्य चौपट है, भले ही सारी जिंदगी उधार की शिक्षा के नीचे दबे रहें। पैर में भले ही टूटी चप्पल हो लेकिन हाथ में महंगा एनराइड मोबाइल का होना जरूरी है। रातों की नींद इस बात को लेकर उड़ी रहे कि इस माह किश्त की अदायगी कैसे होगी लेकिन आलीशान मकान और गाड़ी को छोड़ देने का मतलब सभ्य समाज से बाहर हो जाना हमने मान लिया है। शर्मनाक तो यह है कि नौकरीपेशा से लेकर खेत मजदूर तक के लिए बाजार उधार का जाल बिछाये बैठा है। हर कोई कह रहा है कि उधार के सपने खरीदो। सपने नहीं  देखोगे तो जियोगे कैसे? जीने के लिए जरूरी है आपकी हर सांस पर उधारी चढ़ा हो।

 

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मनोज कुमार
सन् उन्नीस सौ पैंसठ के अक्टूबर माह की सात तारीख को छत्तीसगढ़ के रायपुर में जन्म। शिक्षा रायपुर में। वर्ष 1981 में पत्रकारिता का आरंभ देशबन्धु से जहां वर्ष 1994 तक बने रहे। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से प्रकाशित हिन्दी दैनिक समवेत शिखर मंे सहायक संपादक 1996 तक। इसके बाद स्वतंत्र पत्रकार के रूप में कार्य। वर्ष 2005-06 में मध्यप्रदेश शासन के वन्या प्रकाशन में बच्चों की मासिक पत्रिका समझ झरोखा में मानसेवी संपादक, यहीं देश के पहले जनजातीय समुदाय पर एकाग्र पाक्षिक आलेख सेवा वन्या संदर्भ का संयोजन। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी पत्रकारिता विवि वर्धा के साथ ही अनेक स्थानों पर लगातार अतिथि व्याख्यान। पत्रकारिता में साक्षात्कार विधा पर साक्षात्कार शीर्षक से पहली किताब मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी द्वारा वर्ष 1995 में पहला संस्करण एवं 2006 में द्वितीय संस्करण। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय से हिन्दी पत्रकारिता शोध परियोजना के अन्तर्गत फेलोशिप और बाद मे पुस्तकाकार में प्रकाशन। हॉल ही में मध्यप्रदेश सरकार द्वारा संचालित आठ सामुदायिक रेडियो के राज्य समन्यक पद से मुक्त.

1 COMMENT

  1. चिंता क्यों करते हो भाई – चचा ग़ालिब लिख गए थे – क़र्ज़ की पीते थे मय. अब मोबाइल कम से कम मय से तो अच्छा है . हाथ में शोभा भी देता है और दूसरों पर रौब भी ग़ालिब होता है .
    एक और लाभ है इस का – जब कुछ काम न हो -खाली बैठने की अपेक्षा इस पर अपनी उँगलियाँ घुमाते रहो. व्यस्त रहोगे या दिखोगे .

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