संदर्भ-अमेरिकी व्यापारी पीटर नवारो बेहूदा बयान –
प्रमोद भार्गव
धर्म और जाति भारत की कमजोर कड़ियां रही हैं। इसकी षुरूआत फिरंगी हुकूमत ने भारत में धर्म के आधार पर बंगाल के विभाजन के साथ की थी, जो कालांतर में अंग्रेजों की कुटिल चाल के परिणाम में भारत विभाजन का मुख्य आधार बनी। अब अमेरिका के भारत विरोधी वाचाल व्यापारी पीटर नवारो एक बार इसी नुस्खे को तूल देकर जातीय वैमन्स्य को चिंगारी भड़काने की कोशिश में हैं। भारत पर लगाए 50 प्रतिशत टैरिफ को लेकर अमेरिका से असंतुश्ट देशों में खासतौर से रूस, भारत, चीन अर्थात आरआईसी ट्राइका षंघाई सहयोग संगठन के सम्मेलन में मजबूती से खड़ा होता दिखा। इससे अमेरिकी राश्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की नींद हराम हो गई। नतीजतन इसी परिप्रेक्ष्य में ट्रंप के आधिकारिक व्यापारिक सलाहकार पीटर नवारो ने रूस से तेल आयात पर निशाना साधते हुए कहा कि ‘ब्राह्मण भारतीय जनता की कीमत पर मुनाफाखोरी कमा रहे हैं।‘ दरअसल एससीओ का तियानजिन में एकत्रीकरण ट्रंप के टैरिफ के विरुद्ध अंतरराश्ट्रीय दबाव का ऐसा प्रभावी संकेत है, जो न केवल अमेरिका, बल्कि जी-7 और यूरोप की आर्थिक षक्ति को भी संतुलित करने की दिशा में आगे बढ़ने का संकेत दे रहा है।
नवारो ने ‘फॉक्स न्यूज संडे‘ को दिए साक्षत्कार में कहा कि ‘देखिए, नरेंद्र मोदी दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के महान नेता हैं, लेकिन वे रूस के राश्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और चीन के राश्ट्रपति षी जिनपिंग के साथ खड़े हैं। मैं कहना चाहूंगा कि भारतीय जनता समझे कि यह क्या हो रहा है। आपके पास जो ब्राह्मण हैं, वे भारतीय लोगों की कीमत पर मुनाफाखोरी कर रहे हैं। हमें इसे रोकने की जरूरत है। यानी पूंजीपति देश का एक उद्योगपति भारत की जनता को बताएगा कि वह क्या करे ? मसलन दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की जनता नसमझ है। देश की वह जनता नादान है, जिसने आपातकाल में तानाशाह के रूप में पेश इंदिरा गांधी की सरकार को बदल दिया था ? इंदिरा गांधी की हत्या के बाद भारी बहुमत से जीते राजीव गांधी की सत्ता को इसलिए बेदखल कर दिया था, क्योंकि साहबानो प्रकरण को लेकर राजीव गांधी इस्लामी कट्टरवादियों के दबाव में आ गए थे। इसी जनता ने उन मनमोहन सिंह को सत्ताच्युत कर दिया था, जिन्होंने देश के संसाधनों पर पहला अधिकार अल्पसंख्यकों को सौंप देने की वकालत षुरू की थी और फिर इसी जनता ने देश की कमान उन नरेंद्र मोदी को सौंप दी थी, जो अपने बाल्यकाल में पिता की मदद के लिए रेल के डिब्बों में चाय बेचा करते थे।
इन्हीं मोदी को जागरूक मतदाताओं ने फिर से 2019 में जिताया, क्योंकि सुरक्षा सैनिकों को ले जाने वाले एक वाहन को पुलवामा में आत्मघाती आतंकी हमलावर, सीआरपीएफ के 46 जवानों की शहादत का कारण बना था। इस जघन्य घटना का बदला लेने के लिए मोदी ने बालाकोट में वायुसेना से सीमा पार सर्जिकल स्ट्राइक को अंजाम देकर आतंकी समूह जैश-ए-मोहम्मद के प्रशिक्षण शिविरों को जमींदोज कर दिया। 2024 के आम चुनाव में इन्हीं मोदी पर देश देश की जनता ने फिर विश्वास किया और तीसरी बार सत्ता की कुंजी मोदी को सौंप दी। साफ है, जनता उन विदेशी उपदेशकों के बहकावे में आने वाली नहीं है, जो मोदी पर नाजायज दबाव बनाकर अपने अनैतिक हित साधने के फेर में हैं। दोहरे मापदंड वाले ट्रंप भारत को रूस से तेल खरीदने पर अतिरिक्त शुल्क के रूप में जुर्माना लगा रहे हैं, जबकि भारत, चीन और यूरोपीय देशों की तुलना में कम ईंधन खरीदता है। पीटर नवारो इन देशों के ब्राह्मणों, अर्थात कुलीन वर्ग या कारपोरेट घरानों के लिए क्या कहेंगे ?
नवारो भारत के विरुद्ध अनर्गल प्रलापों के लिए जाने जाते हैं। नवारो ने इसके पहले, यूक्रेन संघर्श को ‘मोदी का युद्ध आंशिक रूप से नई दिल्ली होकर गुजरता है‘ का लांछन लगाया था। इसका सटीक उत्तर पेट्रोलियम मंत्री हरदीप सिंह पुरी ने यह कहते हुए दिया है कि ‘नवारो ने भारत पर रूसी राश्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की युद्ध-मशीन को वित्तपोशित करने का आरोप लगाया है, जबकि फरवरी 2022 में रूस के यूक्रेन पर किए हमले के बहुत पहले से पेट्रोलियम उत्पादों का चौथा सबसे बड़ा निर्यातक देश रहा है। उसी मात्रा में आज भी रूस तेल निर्यात कर रहा है। अर्थात निवारों का बयान भारत, रूस और चीन की एससीओ की बैठक में देखने में आई जुगलबंदी का नतीजा है। चूंकि अब ट्रंप अपने ही देश में बेतुके अड़ियल रुख के कारण घिरते जा रहे हैं। अवाम में नाराजी बढ़ रही है। अमेरिका के अरबपति रे डेलियो ने तो यहां तक कह दिया कि ‘ट्रंप के नेतृत्व में अमेरिका 1930 के दशक जैसी तानाशाही की ओर बढ़ रहा है। निवेशक ट्रंप के डर से चुप हैं। धन एवं मूल्यों की खाई और टूटता भरोसा अमेरिका को चरमपंथी नीतियों की ओर धकेल रहा है।‘
निवारो का जातिसूचक बयान एक ऐसी साजिश का सूचक है, जो भारत में शहरी नक्सली और वर्णभेदी वामपंथी बीजरूप में आजादी के बाद से ही बोते रहे हैं। जिससे भारत जातीय कुचक्र की आग में जलने लग जाए। इसमें कोई दो राय नहीं कि भारत में जाति की जड़ें आज भी गहरी हैं। लेकिन बीते 75-80 सालों में जनता बौद्धिक-विवेक के रूप में इतनी परिपक्व हो गई है कि वह अब किसी बाहरी व्यक्ति के बहकावे में आने वाली नहीं है। वह जानती है कि भारत में तेल का व्यापार करने वाले जो भी चंद उद्योगपति हैं, उनमें ब्राह्मण कोई नहीं है। यह बयान केवल भारतीय समाज की सामाजिक संरचना में व्यर्थ हस्तक्षेप और जातिगत विद्वेश भड़काने की निर्लज्ज कोशिश है। हालांकि यह संभवतः अपवाद है कि किसी परदेशी उद्योगपति के मुख से जातिगत व्यवस्था को भारत सरकार की विदेश नीति से जोड़कर प्रस्तुत किया गया है। नवारो ने जातिसूचक शब्द ब्राह्मण का जो प्रयोग किया है, उसे अभिजात्य या कुलीन वर्ग को लांछित करने के रूप में भी देखा जा रहा है। तृणमूल कांग्रेस से राज्यसभा सदस्य सागरिका घोष का कहना है कि बोस्टन ब्रह्माण शब्द अमेरिका में न्यू इंग्लैंड से जाकर बसे धनी वर्ग के लिए प्रयोग में लाया जाता था। भाजपा सांसद निशिकांत दुबे ने भी इस शब्द को एलीट क्लास से जोड़ा है। दरअसल एक समय अमेरिका के बोस्टन में धनी सुशिक्षित प्रोटेस्टेंटों का एक समुदाय था। ये लोग 18वीं और 19वीं सदी में ताकतवर समुदाय थे। ये अमेरिका के उपनिवेशवादियों के वंशज थे। इन लोगों ने व्यापार में अपने को खफा दिया और सफलता के शिखर छू लिए। इन्हें बोस्टन ब्राह्मण या कुलीन कहा गया। ये बोस्टन के आम लोगों से अलग रहते थे और अभिजात्य जीवन-शैली जीते थे।
वैदिक युग में भारत में कोई जाति या वर्ण नहीं थे। कालांतर में जाति का उदय हुआ। जिनकी ज्ञानार्जन और अनुसंधान में रुचि थी, वे ब्राह्मण कहलाए। जिनमें बल था, वे क्षत्रिय और जो व्यापार करने लग गए, वे वैश्य कहलाए।जो मूलतःश्रम और कृषि कार्य से जुड़े रहे, वे षूद्र कहलाए। यही बड़ा उत्पादक समूह रहा है और वर्तमान में भी है।ब्राह्मण परशुराम ने क्षत्रिय सहस्त्रबाहु अर्जुन को पराजित कर सत्ता हस्तगत कर ली थी, परंतु उन्हीं के शेष रहे वंशजों को सत्ता सौंप कर ज्ञान की सर्वोच्चता स्थापित कर दी थी। वे परशुराम ही थे,जिन्होंने गोवा के कोंकण क्षेत्र में समुद्र से भूमि खाली करके हजारों वनवासियों को खेती शुरू कराई। इनका यज्ञोपवीत संस्कार कर इन्हें ब्राह्मण बनाया और अक्षय तृतीया के दिन सामूहिक विवाह कराए। युद्ध में विधवा हुई महिलाओं के भी विवाह कराये। अब भारत में शैक्षिक उन्नति, सह-शिक्षा और बहुराष्ट्रीय कंपनियों में पेशेवर युवक-युवतियों की बड़ी संख्या में भागीदारी के चलते अन्तर्जातीय व अन्तर्धार्मिक विवाह आम बात हो गई है। बहुत कुछ जातीय कुचक्र टूट गया है। अलबत्ता यह भी देखने में आ रहा है कि जिस किसी भी वर्ग या जाति के लोग राजनीति, नौकरी या व्यापार में सशक्त होते जा रहे हैं, वे उसी बा्रह्मणवादी व्यवस्था के अनुगामी बनते जा रहे हैं, जिसे एक एमय वे कोसते रहे हैं। भारत में निरंतर जातीय समन्वय बढ़ रहा है। अतएव अब वे किसी परदेसी के बचकाने बयान के बहकावे में आने वाले नहीं हैं।
प्रमोद भार्गव