रामस्वरूप रावतसरे
उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में जारी महाकुंभ में बॉलीवुड अभिनेत्री ममता कुलकर्णी ने 24 जनवरी 2025 को गृहस्थ जीवन का त्याग करते हुए संन्यास ले लिया था। इसके बाद किन्नर अखाड़े में उन्हें महामंडलेश्वर बनाया गया है। संन्यास के बाद ममता कुलकर्णी ने अपना नया नाम श्री यमाई ममतानंद गिरि रखा लिया है। वहीं ममता कुलकर्णी के महामंडलेश्वर बनाने पर विवाद खड़ा हो गया है। इससे कई संत नाराज बताए जा रहे हैं। वहीं कई संत इससे कोई इत्तेफाक नहीं रखते।
ममता कुलकर्णी के अनुसार यह कदम उन्होंने दो साल की तपस्या के बाद और महादेव एवं महाकाली के आदेश पर उठाया है। साल 2013 में स्थापित किन्नर अखाड़े से जुड़ीं महामंडलेश्वर कौशल्या नंद गिरि ने कहा था कि ममता कुलकर्णी ने आध्यात्मिक मार्ग अपनाया है और अब अपना जीवन धार्मिक एवं आध्यात्मिक कार्यों में समर्पित करेंगी।
जानकारी के अनुसार नाराज संतों में से एक शांभवी पीठ के पीठाधीश्वर स्वामी आनंद स्वरूप का कहना है कि ममता कुलकर्णी का बहुत बड़ा नाम है और किन्नर अखाड़े के लोग उनके नाम पर व्यापार करेंगे। उन्होंने कहा कि ममता का विषय बहुत घातक और धर्म के खिलाफ है। किन्नर अखाड़े को मान्यता देकर पिछले कुंभ में महापाप हुआ था। अब कुंभ का मजाक बनाने का प्रयास किया जा रहा है। स्वामी आनंद स्वरूप के अनुसार जिस प्रकार की अनुशासनहीनता हो रही है, वो बहुत घातक है। उन्होंने इसे सनातन धर्म के साथ छल बताया। उन्होंने कहा, “मैंने ममता से कहा कि इन लोगों (किन्नर अखाड़ा) के जाल में मत पड़ो। स्त्री के लिए संन्यास नहीं है। ऐसी तमाम परंपरा है जिसमें तुम विरक्त होकर रह सकती हो। ऐसी जगह (किन्नर अखाड़ा में) ना गिरो कि लोग तुम्हारे ऊपर थूकें।‘ स्वामी आनंद स्वरूप ने आगे कहा, ‘इस अखाड़े को लोग मजाक में ले रहे हैं। वहाँ ज्ञान-भक्ति की बात नहीं हो रही।‘
हालाँकि, कुछ संत ममता कुलकर्णी और किन्नर अखाड़े के पक्ष में खड़े हो गए हैं। इनमें अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष रविंद्र पुरी और भैरव अखाड़ा कहलाने वाला श्री पंचदशनाम जूना अखाड़ा के आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरि भी शामिल हैं। अखाड़ा परिषद के रवींद्र पुरी के अनुसार ‘वैराग्य कभी भी आ सकता है। मैं चाहूँगा कि सही मायने में महामंडलेश्वर का जो अर्थ है, अगर ममता जी उसके अनुसार चलेंगी तो पूरे देश में हमारी अध्यात्म परंपरा उच्च शिखर पर पहुँचेगी। वैराग्य किस पर आए, यह कोई नहीं कह सकता। हमारी परंपरा में कई बड़े-बड़े ऋषि रहे, जो डाकू थे, वो बहुत बड़े संत हो गए। ममता जी को आध्यात्मिक जगत में प्रवेश बहुत अच्छी बात है।‘ उन्होंने कहा कि महामंडलेश्वर का अर्थ है ‘मंडल का ईश्वर’… एक मंडल लेकर उनको चलना है। उनके साथ सैकड़ों संत होने चाहिए। वो धर्म का प्रचार-प्रसार करें। ममता पर ड्रग्स के आरोपों को लेकर रवींद्र पुरी ने कहा, “इससे पूर्व में वो क्या थीं, वो जानने की आवश्यकता नहीं है। उन पर पूर्व में जो भी आरोप लगे, वो सिद्ध नहीं हो पाए। देश में जितनी बड़ी हस्तियां हैं, उन पर आरोप लगते रहते हैं।’ वहीं, जूना अखाड़े के आचार्य महामंडलेश्वर अवधेशानंद गिरि के अनुसार ’’संन्यास लेने का अधिकार सबको है। अपनी मोह-माया और हर प्रकार की सांसारिकता त्याग कर कोई व्यक्ति श्रेष्ठ कार्यों के लिए, लोक कल्याण के लिए, परमार्थ के कार्य करने के लिए आना चाहता है तो उसका स्वागत है।’
जूना अखाड़े के प्रवक्ता नारायण गिरी ने कहा, “फिल्म अभिनेत्री बनना कोई दोष नहीं है। हमारे यहाँ एक वेश्या को भी गुरु बनाया गया था। योग्यता से किसी को भी महामंडलेश्वर बनाया जा सकता है। इसमें कोई भी पुरुष, महिला या किन्नर कोई भी पदवी प्राप्त कर सकते हैं।’ उन्होंने कहा कि देश के विद्वान, राष्ट्रहित में कार्य करने वाले, आध्यात्मिक या सामाजिक कार्यकर्ता को महामंडलेश्वर की उपाधि देते हैं। किन्नर अखाड़ा 2019 में रजिस्टर्ड हुआ था। वो जूना अखाड़े की एक शाखा है। किन्नरों को हिंदू परंपरा से जोड़ने के लिए श्री महंत जी महाराज ने अखाड़े में शामिल किया था। जब कोई अखाड़ा पूर्ण रूप से बन जाता है तो उसे अधिकार है कि वो किसी को महंत, साध्वी या महामंडलेश्वर बनाएँ। हर अखाड़े के अपने मापदंड होते हैं और वे फैसले लेने के लिए स्वतंत्र होते हैं।’
जानकारी के अनुसार अखाड़ों में महामंडलेश्वर का पद प्रभावशाली माना जाता है। हर अखाड़े में महामंडलेश्वर बनाने की प्रक्रिया अलग-अलग है। महामंडलेश्वर छत्र-चंवर लगाने और चाँदी के सिंहासन पर बैठने का अधिकारी होता है। महामंडलेश्वर की इस सिंहासन पर बैठाकर छत्र-चंवर के साथ सवारी निकाली जाती है। यह पदवी पाने के लिए पाँच स्तर पर जाँच होती है। इसके साथ ही ज्ञान-वैराग्य की परीक्षा में खरा उतरना पड़ता है। अगर कोई व्यक्ति संन्यास या महामंडलेश्वर पद के लिए किसी अखाड़े के लिए संपर्क करता है तो उसे अपना नाम, पता, शैक्षिक योग्यता, सगे-संबंधियों का ब्योरा और नौकरी-व्यवसाय की जानकारी देनी होती है। इसके बाद अखाड़े से जुड़े थानापति के जरिए उस व्यक्ति की पृष्ठभूमि और जानकारी की पड़ताल कराई जाती है। थानापति की रिपोर्ट पर अखाड़े के सचिव और पंच अलग-अलग जाँच करते हैं।
अखाड़े से जुड़े व्यक्ति के स्थान पर जाकर परिजनों एवं रिश्तेदारों से संपर्क कर जानकारी को सत्यापित करते हैं। उस व्यक्ति की शिक्षा को सत्यापित करने के लिए स्कूल-कॉलेज में जाकर पड़ताल भी की जाती है। इसके स्थानीय थाने में जाकर उस व्यक्ति की जाँच की जाती है कि उसके खिलाफ कोई आपराधिक मामला तो नहीं दर्ज है। जाँच के बाद अखाड़े के सभापति को रिपोर्ट दी जाती है। इसके बाद सभापति अपने स्तर से जाँच करवाते हैं। इसके बाद अखाड़े के पंच उनके ज्ञान की परीक्षा लेते हैं। इसमें सफल होने पर महामंडलेश्वर की पदवी दी जाती है। हालाँकि डॉक्टर, पुलिस-प्रशासन के अधिकारी, इंजीनियर, वैज्ञानिक, अधिवक्ता और नेता को महामंडलेश्वर बनाने में संन्यास की उम्र की छूट दी जाती है। दो-तीन साल के संन्यास में भी उन्हें महामंडलेश्वर बना दिया जाता है। महामंडलेश्वर पद के लिए सामान्य तौर पर शास्त्री, आचार्य होना जरूरी है, जिसने वेदांग की शिक्षा हासिल कर रखी हो। ऐसी डिग्री ना हो तो व्यक्ति को कथावाचक या स्थानीय मठ से जुड़ा होना जरूरी है। यह भी देखा जाता है कि मठ द्वारा सनातन धर्मावलंबियों के लिए विद्यालय, मंदिर, गोशाला आदि का संचालन होना चाहिए।
इसी प्रकार नागा परंपरा में थानापति, कोतवाल, कोठारी, भंडारी, कारोबारी सहित कई पद होते हैं। नागा संन्यासियों की योग्यता और उनके स्तर को देखते हुए उन्हें पद सौंपे जाते हैं। साधारण संत को महामंडलेश्वर जैसे पद पर पहुँचने के लिए योग्य होना जरूरी है। उनकी योग्यता को देखते हुए उन्हें पदवी दी जाती है। यह पद सर्वाच्च आचार्य महामंडलेश्वर से नीचे होता है। ये साधुओं के एक मंडल के अधिपति होते हैं।
महामंडलेश्वर पद बनाने को लेकर जूना अखाड़े के प्रवक्ता नारायण के अनुसार सबसे पहले अखाड़े में महापुरुष, अवधूत, महंत, श्री महंत बनता है। फिर उस व्यक्ति का राष्ट्र एवं धर्म में योगदान देखा जाता है। उस आधार पर आगे फैसला लिया जाता है। कोई व्यक्ति आए, संन्यासी बनने की घोषणा करे और अखाड़ा उसे महामंडलेश्वर बना दे, ऐसी परंपरा जूना अखाड़े की नहीं है। जिस व्यक्ति को महामंडलेश्वर का पद दिया जाता है, उसे दीक्षा दी जाती है। वह अपना वस्त्र त्यागकर अखाड़े से मिले पीले या भगवा वस्त्र को धारण करता है। इसके बाद वह अपना पिंडदान करता है। पिंडदान के बाद उस व्यक्ति का पट्टाभिषेक किया जाता है। इस दौरान वह व्यक्ति अपना बाल काटता, विधि-विधान से पूजा-पाठ करता है। इसके बाद उसे दूध से स्नान कराया जाता है और पट्टा पहनाया जाता है। इस दौरान उसे दंड-कमंडल दिया जाता है। इसे पंचकर्म कहा जाता है। महामंडलेश्वर की पदवी मिलने के बाद कुछ प्रतिबंधों के साथ जीना पड़ता है। इनमें घर-परिवार से दूरी, चारित्रिक दोष नहीं लगना चाहिए, आपराधिक छवि के लोगों से दूरी, भोग-विलासिता के जीवन दूरी, दूसरों की जमीन-संपत्ति पर कब्जा की नीयत से दूरी, मांस-मदिरा से दूरी शामिल है। इन सब प्रतिबंधों की अनदेखी करने पर किसी भी व्यक्ति को अखाड़े से निष्कासित कर दिया जाता है।
बताया जाता है कि किसी भी अखाड़े में महामंडलेश्वर दूसरा सर्वाच्च पद होता है। इसलिए उनकी जिम्मेदारियाँ भी बड़ी होती हैं। अखाड़े के धार्मिक और आध्यात्मिक नेता होने के नाते महामंडलेश्वर साधुओं और अनुयायियों को धर्म का पालन और समाज कल्याण के लिए प्रेरित करते हैं। इसके साथ महामंडलेश्वर समाज में धर्म और संस्कृति का प्रचार करते हैं। वे प्रवचन, भजन-कीर्तन और धार्मिक अनुष्ठानों का नेतृत्व करते हैं। महामंडलेश्वर अखाड़े के संगठन का काम, संपत्तियों का प्रबंधन और प्रशासन का काम भी देखते हैं। इसके साथ ही वे अखाड़े के विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन, अखाड़े से संबंधित धर्मशाला और आश्रमों का संचालन करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वे कुंभ, अर्ध कुंभ और महाकुंभ मेले और अन्य धार्मिक आयोजनों में अखाड़े का नेतृत्व करते हैं।
अखाड़ा साधु-संतों का एक समूह होता है। वे शास्त्र एवं शस्त्र में निपुण होता है। कहा जाता है कि अलख शब्द से ही अखाड़ा शब्द निकला है। पहले अखाड़ा को साधुओं का बेड़ा कहा जाता था। यह भी कहा जाता है कि मुगल काल में अखाड़ा शब्द का इस्तेमाल किया जाने लगा। अखाड़ा शब्द कुश्ती के लिए इस्तेमाल होने वाले मैदान के लिए भी किया जाता है। यह भी संन्यासियों के लिए मोह-माया त्याग के लिए संघर्ष का स्थान है। देश में अभी कुल 13 अखाड़े हैं। ये सभी अलग-अलग परंपरा से जुड़े हैं। इनमें 7 अखाड़े शैव संन्यासी संप्रदाय के हैं, जबकि 3-3 अखाड़े वैरागी और उदासीन परंपरा के साधुओं के हैं। हर अखाड़े में अलग-अलग तरह से दीक्षा दी जाती है। जैसे कुछ अखाड़ों में महिला साध्वियों को भी दीक्षा दी जाती है और कुछ अखाड़े में केवल ब्रह्मचारी ब्राह्मण ही दीक्षा ले सकते है। कुछ अखाड़े 8 से 12 साल तक के बच्चों को दीक्षा दी देते हैं। हर अखाड़े का अपना ईष्टदेव और ईष्टदेवी होती हैं। वे अपना ध्वज भी रखते हैं। इसके अलावा, उनमें सर्वाच्च पद में भी अंतर होता है। जैसे शैव अखाड़े में आचार्य महामंडलेश्वर का पद सर्वाच्च होता है। वहीं, वैष्णव अखाड़े में श्रीमहंत का पद सर्वाच्च होता है।
रामस्वरूप रावतसरे