विजय कुमार
यों तो भारत की राजधानी दिल्ली में नार्थ और साउथ ब्लाक मानी जाती हैं; पर अन्ना हजारे के आंदोलन के कारण पिछले कुछ दिनों से वह रामलीला मैदान में पहुंच गयी है। नार्थ और साउथ ब्लाक में बड़े अधिकारी और मंत्री बैठते हैं। आम आदमी का प्रवेश वहां वर्जित है; पर रामलीला मैदान में सब ओर आम आदमी ही दिखाई देते हैं। अधिकारी और मंत्रियों में वहां आने की हिम्मत ही नहीं है।
अखबार और दूरदर्शन में रामलीला मैदान छाया देख शर्मा जी की भी वहां जाने की इच्छा हुई। तीन दिन लगातार छुट्टी थी। सोचा थोड़ा मन-मूड हल्का हो जाएगा। मैं ठहरा उनका पुराना मित्र, सो मुझे भी उन्होंने साथ ले लिया।
रामलीला मैदान का दृश्य सचमुच अनुपम था। चारों ओर अन्ना के समर्थन में नारे लग रहे थे। जैसे लोग, वैसे नारे। कहीं कोई पोस्टर बना रहा था, तो कहीं चेहरा रंगने वाले रंग और कूची लिये बैठे थे। गांधी और शिवाजी का वेश धरे कुछ लोग भी वहां घूम रहे थे। जिधर टी.वी का कैमरा घूमता, उधर लोगों की सक्रियता देखते ही बनती थी। कुछ देर हमने भी गला साफ किया, फिर थोड़ा सुस्ताने के लिए पीछे की ओर जा बैठे।
पीछे की ओर कई लोग अलग-अलग समूह बनाकर बैठे थे। उनके पास से निकलने पर पता लगा कि वहां दिन भर के काम की समीक्षा हो रही थी। एक सम्मानजनक दूरी रखकर हम भी वहां बैठ गये; पर हमारे कान उधर ही लगे थे।
पहले समूह में झंडे, बिल्ले, अन्ना टोपी, माथे और कलाई की तिरंगी पट्टियों आदि की बात हो रही थी।
– आज तो दादा, बहुत अच्छी बिक्री हुई।
– हां, आज इतवार की छुट्टी जो थी। मैंने तुमसे बड़ा झंडा सौ रु0 में बेचने को कहा था; पर मुन्ना बता रहा था कि तुमने 120 रु0 तक में बेचा है ?
– और मुन्ना खुद उसे 125 में बेच रहा था। उसने तो अन्ना टोपी भी पांच की बजाय दस में बेची हैं।
– चलो बहस छोड़ो। सौ रु0 अपनी मेहनत के रखकर बाकी पैसे मुझे दो। और कल जरा जल्दी आना। कल भी छुट्टी है, इसलिए और अधिक ग्राहक आएंगे।
दूसरे समूह में कुछ समाजसेवी लोग चर्चारत थे।
– भाई जी, आज तो कोई 5,000 लोगों ने लंगर में खाना खाया।
– हां बेटा, ऐसे सेवा के मौके भाग्य से ही आते हैं।
– पर भाई जी, कल पूड़ी-सब्जी की बजाय कुछ और बनाओ।
– ठीक है, कल कढ़ी-चावल बनवा देते हैं। इसके लिए पत्तलों की भी जरूरत होगी। हलवाई को अभी फोन से बता दो।
तीसरा समूह युवाओं का था।
– आज तो बहुत मजा आया यार। बहुत दिनों बाद हैलमेट के बिना कई तरह से बाइक चलाई। अन्ना टोपी देखकर पुलिस वाले चुप हो जाते थे। वैशाली और मीनाक्षी भी होती, तो मजा दुगना हो जाता।
– हां, मैंने कहा ही था कि यहां पिकनिक और अन्ना का समर्थन एक साथ हो जाएगा।
– तुमने तो बहुत नारे लगाये ?
– हां यार, मेरा तो गला ही बैठ गया। कुछ गला तर करने को है क्या ?
– नहीं, वो तो अब नहीं बची। अच्छा कल का क्या प्रोग्राम है ?
– कल आएंगे तो; पर शाम की फिल्म नहीं छूटनी चाहिए। वरना फिर एक हफ्ते तक मौका नहीं मिलेगा।
चौथे समूह में अधिकांश महिलाएं थीं।
– कहो बहन जी, कैसी रही ?
– बहुत अच्छा लगा। टी.वी पर इतने दिन से अनशन का प्रोग्राम आ रहा था। मन तो मेरा बहुत था कि अन्ना जी को देखें। अच्छा हुआ, जो आपने बता दिया कि कालोनी से कई औरतें चल रही हैं। फिर बच्चों की छुट्टी भी थी। इसलिए और अच्छा हो गया।
– मैंने तो सुबह ही परांठे बनाकर रख दिये थे। जिसका जब मन हो, तब गरम करके खा लेगा। यहां के लंगर की पूड़ी-सब्जी कितनी अच्छी थी ?
– अच्छा अब वापसी की सोचो। घर जाकर खाना भी बनाना है।
पांचवा समूह भी किसी हिसाब-किताब में व्यस्त था; पर उनके स्वर अपेक्षाकृत धीमे थे।
– क्यों छुट्टन, आज कितनी कमाई हुई ?
– आज तो उस्ताद बड़ी मौज रही। तीन मोबाइल और चार पर्स हाथ लगे हैं। अगर गुड्डू साथ रहता, तो एक ब्लैकबेरी भी मिल जाता। – क्यों बे गुड्डू, तू इसके साथ क्यों नहीं रहा ?
– मेरे साथ तो बहुत बुरी बीती उस्ताद। एक की जेब काटते हुए पकड़ा गया। लोगों ने बहुत मारा। ये तो गनीमत हुई कि आपके जान-पहचान वाले दरोगा जी आ गये। उन्होंने छुड़वा दिया, वरना न जाने क्या हो जाता ?
– चलो कोई बात नहीं। अपने धन्धे में ऐसा होता ही है। अच्छा जाओ, अन्ना टोपी लगाकर लंगर में खाना खा लो और कल जल्दी आना।
वापसी पर हम जिस रिक्शा पर बैठे, वह बहुत प्रसन्न था। पूछने पर बोला – जितनी कमाई इन दिनों हो रही है, उतनी कभी नहीं हुई। भगवान करे अन्ना का अनशन दो-चार महीने ऐसे ही चलता रहे। सुबह से 40 चक्कर लगा चुका हूं। एक मिनट की फुर्सत नहीं है। मैंने तो अपने भाई को भी बुलाकर एक रिक्शा दिलवा दी है।
मैंने सोचा, सचमुच मेरा भारत देश महान है। इतने लोग, इतने विचार। सबके अलग-अलग लक्ष्य, फिर भी सब अन्ना के साथ।
मंच से नारे लग रहे थे –
अन्ना हजारे जिन्दाबाद – आवाज दो, हम एक हैं।
इस तरह के बड़े काम में ये छोटी मोटी बातें होती ही हैं इसे व्यंग के रूप में लिखना ठीक नहीं है |