अब खत्म होना चाहिए कावेरी जल विवाद

प्रमोद भार्गव

कावेरी जल बंटवारे को लेकर दशकों से चला आ रहा विवाद अब थम जाना चाहिए। दरअसल शीर्ष न्यायालय ने कावेरी जल प्रबंधन प्राधिकरण और कावेरी जल नियमन समिति के उस आदेश में हस्तक्षेप करने से मना कर दिया है, जिसमें कर्नाटक सरकार को तमिलनाडु के लिए प्रतिदिन पांच हजार घन मीटर पानी देने की बात कही गई है। तमिलनाडु ने राज्य में सूखे के कारण 7200 घन मीटर पानी मांगा था। समिति ने उसकी मांग को उचित तो माना लेकिन दूसरे राज्यों में जल समस्या का ध्यान रखते हुए पानी की मात्रा घटाकर पांच हजार घन मीटर कर दी है। यही फैसला कावेरी जल प्रबंधन प्राधिकरण ने भी दिया था। तमिलनाडु ने इस निर्णय पर सहमति जता दी है, लेकिन कर्नाटक में इस निर्णय के विरुद्ध असंतोष पनपने के साथ विरोध प्रदर्शन भी शुरू हो गए हैं। कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से हस्तक्षेप की मांग की है। दरअसल कर्नाटक सरकार ने जिस असंतोष और विरोध प्रदर्शन के बीच केंद्र के समक्ष मामला दखिल किया है, उससे लगता है कि विवाद तत्काल खत्म होने वाला नहीं है। कर्नाटक और तमिलनाडू के बीच कावेरी नदी जीवनरेखा मानी जाती है। कावेरी दोनों राज्यों के करोड़ों लोगों के लिए वरदान है, लेकिन निहित राजनैतिक स्वार्थों के चलते कर्नाटक और तमिलनाड़ु की जनता के बीच केवल अगजनी और हिंसा के ही नहीं, सांस्कृतिक टकराव के हालात भी उत्पन्न होने के आसार नजर आने लगे हैं। सनातन भारतीय संस्कृति में पानी पिलाना पुण्य का श्रेष्ठ काम माना जाता है। दरअसल तमिलनाड़ु में इस साल कम बारिश होने के कारण पानी की जबरदस्त किल्लत है। कम बारिश के कारण राज्य में चालीस हजार एकड़ में खड़ी फसल बर्बाद हो रही है, इसलिए उसे कृषि और किसानों की आजीविका के लिए तुरंत पानी की जरूरत है। इसी जरूरत के मद्देनजर पांच हजार घन मीटर पानी देने का फैसला दिया गया है, लेकिन कर्नाटक इतना पानी देने को भी तैयार नहीं है। भारत में नदियों के जल का बंटवारा बाँधों का निर्माण और राज्यों के बीच उसकी हिस्सेदारी एक गंभीर और अनसुलझी समस्या बनी हुई है। इसका मुख्य कारण है, नदी जैसे प्राकृतिक संसाधन के समुचित और तर्कसंगत उपयोग की जगह राजनीतिक सोच से प्रेरित होकर नदियों के जल का दोहन करना है। कर्नाटक में जल विवाद के सामने आते ही इस मुद्दे पर लड़ाई जीतने के लिए राजनीतिक दल और किसान संगठन एक राय हो जाते हैं। दावा किया जा रहा है कि तमिलनाड़ु के किसान एक साल में तीन फसल उगा रहे हैं, जबकि कर्नाटक के पास एक फसल के लिए भी पानी कम पड़ता है। ऐसे में तमिलनाड़ु को पानी देना कैसे संभव है, इसी ही एकपक्षीय धारणाओं की वजह से कर्नाटक-तमिलनाड़ु के बीच कावेरी जल विवाद 124 साल से स्थाई समस्या बना हुआ है।

दक्षिण भारत की गंगा मानी जाने वाली कावेरी नदी कर्नाटक और उत्तरी तमिलनाडु में बहने वाली जीवनदायी सदानीरा नदी है। यह पश्चिमी घाट के ब्रह्मगिरी पर्वत से निकली है। यह 800 किलोमीटर लंबी है। इसके आसपास के दोनों राज्यों के हिस्सों में खेती होती है। तमिल भाषा में कावेरी को ‘காவேரி’ कहते हैं। पोन्नी का अर्थ सोना उगाना है। दोनों राज्यों की स्थानीय आबादी में ऐसी लोकमान्यता है कि कावेरी के जल में धूल के कण मिले हुए हैं। इस लोकमान्यता को हम इस अर्थ में ले सकते हैं कि कावेरी के पानी से जिन खेतों में सिंचाई होती है, वहां की फसल के रूप में सोना पैदा होता है। इसीलिए यह नदी कर्नाटक और तमिलनाड़ु की कृषि आधारित ग्रामीण अर्थव्यवस्था का मूलाधार है। ब्रह्मगिरी पर्वत कर्नाटक के कुर्ग क्षेत्र में आता है, जो कर्नाटक के अस्तित्व में आने से पहले मैसूर राज्य में था। यहीं से यह नदी मैसूर राज्य को सिंचित करती हुई दक्षिण पूर्व की ओर बहती हुई तमिलनाडू में प्रवेष करती है और फिर इस राज्य के बड़े भू-भाग को जल से अभिसिंचित करती हुई बंगाल की खाड़ी में गिरती है। 1892 और 1924 में मैसूर राज्य और मद्रास प्रेसीडेंसी यानी वर्तमान तमिलनाड़ु के बीच जल बंटवारे के मामले में समझौता हुआ था। आजादी के बाद मैसूर कर्नाटक में विलय हो गया, लेकिन तर्क यह है कि अंग्रेजों के शासनकाल में कुर्ग मैसूर रियासत का हिस्सा था और तमिलनाड़ु मद्रास प्रेसीडेंसी के रूप में फिरंगी हुकूमत का अधीन था। गोयाए 1924 के निर्णय को सही नहीं ठहराया जा सकता है। हालांकि अभी भी ट्रिब्यूनल के इस निर्णय और न्यायालय के दबाव में कर्नाटक मजबूरी में तमिलनाड़ु को पानी दे रहा है, लेकिन उसकी पानी देने की इच्छा नहीं है। यह पानी कर्नाटक में कावेरी नदी पर बने कृष्णराजा सागर बांध से आता है। जबकि तमिलनाड़ु कावेरी के पानी पर ज्यादा हक का दावा करता है, क्योंकि कावेरी का 54 प्रतिशत बेसिन उसके क्षेत्र में है। कर्नाटक में बेसिन क्षेत्र 42 प्रतिशत है। इसी आधार पर प्राधिकरण ने तमिलनाड़ु को कावेरी के 58 प्रतिशत पानी का हकदार बताया था, लेकिन कर्नाटक केवल एक हजार टीएमसी पानी देने के लिए तैयार है। दरअसल, भारत में नदियों के जल बंटवारे और बांधों की ऊंचाई से जुड़े अंतरराष्ट्रीय जल विवाद अब राज्यों की वास्तविक जरूरतों को पूरा करने की बजाय सस्ती लोकप्रियता कमाने के साथ वोट बैंक की राजनीति का शिकार हो रहे हैं। इसीलिए जल विवाद केवल कावेरी नदी से जुड़ा एक विवाद नहीं है, बल्कि कई और भी विवाद इसी तरह दशकों से उत्पन्न हो रहे हैं। तमिलनाड़ु और केरल के बीच मुल्ला पेरियार बांध की ऊंचाई को लेकर भी विवाद गहरा है। तमिलनाड़ु इस बांध की ऊंचाई को 132 फीट से बढ़ाकर 142 फीट करना चाहता है, वहीं केरल इसकी ऊंचाई को कम रखना चाहता है। इस परिप्रेक्ष्य में केरल का दावा है कि यह बांध खतरनाक है, इसलिए नया बांध बनाने की जरूरत है। जबकि तमिलनाड़ु ऐसे किसी खतरे की आशंका को सिरे से खारिज करता है। गौरतलब है कि पेरियार नदी पर बंधे इस बांध को 1895 में अंग्रेजों ने प्रेसिडेंसी को 999 साल के पट्टे पर दिया था। जाहिर है कि अंग्रेजों ने अपने शासन काल में अपनी सुविधा और जरूरत के मुताबिक बांधों का निर्माण और अन्य विकास कार्य किए। लेकिन स्वतंत्र भारत में उन कार्यों को पुनः विचार करने और राज्यों की नई भौगोलिक सीमा के हिसाब से पुनः जाँचने की आवश्यकता है, क्योंकि अब राज्यों के तर्क वर्तमान आवश्यकताओं के हिसाब से सामने आ रहे हैं। इसलिए केरल का तर्क है कि इस पुराने बांध की उम्र पूरी हो चुकी है, इसलिए यह कभी भी टूटकर धराशायी हो सकता है। अब इस आशंका की तकनीकी समीक्षा की जाए और अगर शंका निर्मूल है तो जनता को जागरूक करने की जरूरत है। इस परिप्रेक्ष्य में तमिलनाड़ु की चिंता है कि केरल जिस नए बांध के निर्माण का प्रस्ताव रख रहा है, तो यह जरूरी नहीं है कि वह तमिलनाड़ु को पूर्व की तरह पानी देता रहेगा। इसलिए प्रस्ताव में दोनों राज्यों के हितों से जुड़ी शर्तों का पहले अनुबंध हो, फिर बांध को तोड़ा जाए। केरल के सांसदों ने राष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन से इस मुद्दे में हस्तक्षेप की अपील की है। इन विवादों के चलते इस मसले का भी निवारण नहीं हो पा रहा है। इसी तरह पंजाब में पंजाब और हरियाणा के बीच रावी और ब्यास नदी के जल बंटवारे पर पंजाब और हरियाणा पिछले कई दशकों से अदालती लड़ाई लड़ रहे हैं। इनके बीच दूसरा जल विवाद सतलुज और यमुना लिंक का भी है। प्रस्तावित योजना के तहत सतलुज और यमुना नदियों को जोड़कर नहर बनाने से पूर्वी और पश्चिमी भारत के बीच अस्तित्व में आने वाले जलमार्ग से परिवहन की उम्मीद बढ़ जाएगी। इस मार्ग से जहाजों के द्वारा सामान का आवागमन शुरू हो जाएगा। जैसे कि इसमें सड़क के समानांतर जलमार्ग का विकल्प हो जाएगा। हरियाणा ने तो अपने हिस्से का निर्माण कार्य पूरा कर लिया है, लेकिन पंजाब को इसमें कुछ नुकसान दिखाया गया है, तो उसने विधानसभा में प्रस्ताव लाकर इस समझौते को ही रद्द कर दिया। लिहाजा अब यह मामला भी अदालत में है। इसी तरह कर्नाटक और तेलंगाना के बीच गोदावरी नदी के जल विवाद का भी समाधान नहीं हो पा रहा है। इसके बाद भी कई और जल विवाद इसके साथ ही देखने को मिलते हैं।

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