जनगणना : हिन्दू हम सब एक

6
162

-विजय कुमार

अब तो फिल्म देखे बरसों हो गये; पर छात्र जीवन में ऐसा नहीं था। उस समय फिल्मों में नायक-नायिका के साथ एक खलनायक भी होता था। प्राय: प्राण, प्रेम चोपड़ा, अजीत, शत्रुघ्न सिन्हा, डैनी आदि कलाकार यह भूमिका करते थे।

कुछ फिल्मों में खलनायक भिखारियों के गिरोह का मुखिया होता था। वह छोटे बच्चों को पकड़कर अपंग बना देता था। उनके शरीर पर जबरन घाव कर देता था। उन्हें ठीक होने से पहले फिर कुरेद देता था, जिससे वे सड़ जाएं। उनसे दुर्गन्ध आने लगे और उनमें कीड़े पड़ जाएं। यह देखकर लोग करुणा से भर कर उन्हें भिक्षा के रूप में रोटी और कुछ पैसे दे देते थे; लेकिन यह राशि उन्हें अपने मुखिया के पास जमा करानी होती थी। मुखिया इससे ऐश करता था, जबकि वे भिखारी उसी दशा में रहते थे।

जाति आधारित जनगणना के समर्थकों का व्यवहार उन्हीं क्रूर खलनायकों जैसा है। वे हिन्दू समाज के उन्हीं घावों को फिर से कुरेद रहे हैं, जिन पर पपड़ी जमने लगी है। यदि उन्हें धूल-मिट्टी और चोट से बचाकर रखा गया, तो अगले कुछ साल में वे भर भी जाएंगे; पर बार-बार कुरेदने पर वे फिर हरे हो जाएंगे।

भारत में जनगणना का इतिहास बहुत पुराना है। चंद्रगुप्त के काल में भी जनगणना होती थी, इसकी जानकारी कौटिल्य का ‘अर्थशास्त्र’ देता है; पर वर्तमान शैली की जनगणना 1872 से प्रारम्भ हुई। इस प्रकार यह प्रक्रिया 15 वीं बार हो रही है। देश की भावी नीतियों के सुचारू संचालन के लिए हर दस वर्ष बाद होने वाली जनगणना अति आवश्यक है। इस बार जनगणना में 25 से 30 लाख कर्मचारियों की सेवाएं ली जा रही हैं। लगभग 2,200 से 2,500 करोड़ रु0 इस पर खर्च होगा। 64 करोड़ प्रपत्र भरने के लिए लगभग 1.20 लाख टन कागज प्रयोग होगा। अनेक प्रश्न पूछे जाएंगे। अधिकांश आंकड़े 2011 के मध्य तक मिल जाएंगे। उनका विस्तृत विश्लेषण करने में दो-तीन वर्ष और लगेंगे। तब जाकर जनगणना का यह अध्याय पूरा होगा।

जनगणना की प्रक्रिया प्रारम्भ होने के बाद संसद में कुछ नेताओं ने यह प्रश्न उठाया है कि इसमें जाति की गणना भी होनी चाहिए। उनके अनुसार अंग्रेज शासक 1931 तक इसकी जानकारी लेते रहे; पर उसके बाद से इसकी ठीक गणना नहीं हो सकी। इसीलिए मंडल आयोग की सिफारिशें 1931 की जनगणना पर ही आधारित थीं, जिनके कारण देश में भारी आंदोलन और उथल-पुथल हुई। राजीव गांधी द्वारा खायी गयी बोफोर्स दलाली के विरुद्ध आंदोलन कर सत्ता में आये विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल की सिफारिशों को लागू कर दिया। इससे वे रातोंरात एक वर्ग के नायक, जबकि बाकी के लिए खलनायक बन गये। उनकी सरकार भी इस विवाद में धराशायी हो गयी।

जातीय गणना के पक्षधर कहते हैं कि जाति व्यवस्था भारत का एक सच है। इसके बिना व्यक्तिगत, सामाजिक और राजनीतिक जीवन में कोई काम नहीं होता। इसलिए इसे छोड़ने की बजाय ठीक से गिन लेना ही ठीक है। वस्तुत: जातीय गणना के समर्थक प्राय: राजनेता हैं। भारतीय राजनीति और लोकतंत्र अंग्रेजों द्वारा पोषित ‘बांटो और राज करो’ की नीति पर चल रहा है। ये राजनेता हर चुनाव में जनता को जाति, उपजाति, पंथ, मजहब, भाषा, क्षेत्र आदि में बांट कर, उनके भेदों को उजागर कर, उन्हें आपस में लड़ाकर अपना उल्लू सीधा करते हैं। चुनाव के बाद वे तो गायब हो जाते हैं; पर उनके द्वारा फैलाया जहर लगातार बढ़ता जाता है। क्या यह प्रश्न विचारणीय नहीं है कि जाति व्यवस्था और भेद होने के बाद भी जो गांव सदा शांत रहे, वहां स्वाधीनता के बाद हिंसक टकराव क्यों होने लगे हैं? कारण बिल्कुल स्पष्ट है कि वर्तमान चुनाव प्रणाली इन भेदों को बढ़ा रही है।

1857 में हुए स्वाधीनता संग्राम में भारत की संपूर्ण जनता ने अंग्रेजों का मिलजुल कर प्रतिकार किया था। यद्यपि उस संग्राम से भारत को सफलता नहीं मिली; पर उसने अंग्रेजों को बहुत कुछ सिखा दिया। उन्होंने समझ लिया कि यदि उन्हें लम्बे समय तक राज करना है, तो यहां की जनता को आपस में बांटना होगा। उन्होंने अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली लागू कर प्रबुद्ध समाज को मानसिक रूप से गुलाम बना लिया। कांग्रेस की स्थापना कर सम्पन्न और राजनीति में आगे बढ़ने के इच्छुक लोगों को खरीद लिया। संवैधानिक सुधार के नाम पर पृथक निर्वाचन का अधिकार देकर मुसलमानों को हिन्दुओं से अलग कर विभाजन के बीज बोए और जातीय जनगणना के माध्यम से हिन्दुओं के बीच ऊंच-नीच के भेद पैदा कर दिये। 1901 की जनगणना में तो जाति के साथ यह प्रश्न भी पूछा गया था कि आपकी जाति अन्य कुछ जातियों से ऊंची है या नीची?

इस प्रकार जनगणना के माध्यम से जातीय भेद के जहरीले बीज बोने में अंग्रेज सफल हुए; लेकिन स्वाधीन भारत में प्रथम गृहमंत्री सरदार पटेल ने अंग्रेजों के इस जातीय षडयन्त्र को आगे नहीं बढ़ने दिया। यद्यपि 1951 की जनगणना पूरी होने से पहले उनका देहांत हो गया; पर उन्होंने जातीय गणना के अध्याय को फिर नहीं खुलने दिया। इस कारण स्वाधीन भारत में अब तक जातीय गणना नहीं हुई।

जातीय गणना के अनेक पेंच भी हैं। पहले लोग स्वयं को उच्च जाति का कहलाना पसंद करते थे। 1947 से पहले के आंकड़े इसके गवाह हैं। हमें अपने आसपास कई लोग ऐसे मिलेंगे, जो किसी अन्य वर्ग के होने पर भी शर्मा, वर्मा, गुप्ता, सिंह, श्रीवास्तव आदि उपनाम जोड़ते हैं। यद्यपि गांव में सब उन्हें जानते हैं; पर बाहर जाने पर उन्हें इससे शायद कुछ सम्मान मिल जाता होगा, इसलिए वे ऐसा करते हैं। लेकिन आरक्षण की सुविधा मिलने के बाद यह धारा पलट गयी है। अब लोग स्वयं को तथाकथित निचली जाति या वर्ग में शामिल कराना चाहते हैं।

राजस्थान का गूर्जर आंदोलन इसका ताजा उदाहरण है। वहां गूर्जर और मीणा नामक वीर क्षत्रिय जातियों ने मुगलों के विरुद्ध महाराणा प्रताप का साथ दिया था; पर स्वाधीन भारत में सरकारी अधिकारियों की किसी भूल या षडयन्त्रवश मीणाओं को जनजाति की मान्यता मिल गयी। इससे उन्हें नौकरियों में भरपूर आरक्षण उपलब्ध हो गया। सरकारी नौकरी पाकर वे सम्पन्न होने लगे। उनके मकान ऊंचे और बड़े हो गये। घर में कार और खेत में ट्रैक्टर आ गया। इससे गूर्जरों के कान खड़े हुए और अब वे भी स्वयं को जनजाति में शामिल कराना चाहते हैं।

उत्तर प्रदेश में जो लोग अन्य पिछड़ा वर्ग (ओ.बी.सी) में गिने जाते हैं, वे सब मूलत: क्षत्रिय हैं। गांवों में अधिकांश खेती की जमीनें उनके ही पास हैं। पैसे के साथ ही लाठी से भी वे मजबूत हैं। शिक्षा का भी उन वर्गों में खूब प्रसार हुआ है। ऐसे लोगों के घर गांवों में तो हैं ही; पर निकटवर्ती नगर में भी उनके आलीशान मकान हैं, जहां रहकर उनके बच्चे अच्छे और महंगे अंग्रेजी विद्यालयों में पढ़ रहे हैं। सच तो यह है कि वे कहीं से भी पिछड़े नहीं हैं; पर आरक्षण की रेवड़ी बटोरने के लिए वे पिछड़ेपन का तमगा बड़े गर्व से सीने पर लगाये घूमते हैं।

आश्चर्य की बात तो यह है कि जाति गणना की सबसे अधिक वकालत वे लोग कर रहे हैं, जो स्वयं को डा. राममनोहर लोहिया के चेले और समाजवादी कहते हैं। लालू यादव, मुलायम सिंह यादव, शरद यादव, रामविलास पासवान आदि इस प्रजाति के लोग हैं। लोहिया ने ‘जाति तोड़ो’ का नारा दिया था; पर उनके चेले ‘जाति गिनो’ का अभियान चला रहे हैं। भाजपा वाले असमंजस में हैं। एक ओर संघ के संस्कार उन्हें जातिभेदों से ऊपर उठने को कहते हैं, तो दूसरी ओर राजनीतिक मजबूरियां उन्हें जातिवादी नेताओं की कतार में खड़ा कर रही है। इस असमंजस में से उन्हें शीघ्र निकलना होगा।

वास्तव में जातीय जनगणना की बात वहीं राजनेता कर रहे हैं, जो जातिभेद बढ़ाकर इसकी आंच पर अपनी रोटी सेकना चाहते हैं। उन्हें देश और धर्म की बजाय केवल अपना घर भरने से मतलब है। उन्हें लगता है कि इससे उन्हें अपने राजनीतिक समीकरण बैठाने में सुविधा होगी। हिन्दू समाज वैसे ही अनेक भेदों से ग्रस्त है, ये नेता इसे और बढ़ाना चाहते हैं। विदेशी और विधर्मी शक्तियां भी यही चाहती हैं। इसलिए कोई आश्चर्य नहीं होगा यदि केन्द्र शासन इसे स्वीकृति प्रदान कर दे।

हिन्दुओं को इस जनगणना के समय अत्यधिक जागरूक होना होगा। सब हिन्दू अपना धर्म हिन्दू ही लिखाएं, भले ही उनका पंथ, मत या सम्प्रदाय सिख, बौद्ध, जैन, खालसा, शैव, शाक्त, कबीरपंथी, रविदासीय आदि हो। जातीय गणना होने पर हिन्दू चर्मकार, हिन्दू तेली, हिन्दू वैश्य, हिन्दू क्षत्रिय या हिन्दू ब्राह्मण लिखाने से हिन्दू शक्तिशाली होगा। सबको डंके की चोट पर कहना होगा कि हमारी जाति, उपजाति, वंश, वर्ग, गोत्र, पंथ, सम्प्रदाय, मत आदि कुछ भी हो; पर सबसे पहले हम हिन्दू हैं।

भाषा के लिए भी यही नीति अपनाते हुए प्राथमिकता के आधार पर अपनी मातृभाषा और फिर हिन्दी तथा संस्कृत का उल्लेख करें। विभिन्न क्षेत्रों में प्रचलित भोजपुरी, मैथिली, मगही, अवधी, पहाड़ी, ब्रज, खड़ी, छत्तीसगढ़ी, बुंदेलखंडी, मारवाड़ी आदि बोलियां भी हिन्दी ही हैं। वस्तुत: ये सब मिलकर ही हिन्दी हैं। इनके बिना हिन्दी अधूरी है। हाथ, पैर, नाक, कान के बिना शरीर लूला है और शरीर के बिना ये सब निर्जीव। केवल एक पुरुष या महिला से घर नहीं बनता। इसके लिए तो दादा-दादी, चाचा-चाची, नौकर-चाकर और गाय-बैल से लेकर बच्चों का शोर-शराबा तक सब जरूरी हैं। इस नीति से अंग्रेजी का वर्चस्व टूटेगा, भारतीय भाषाओं की जय होगी और ‘हिन्दू हम सब एक’ का संकल्प पूरा होगा।

फिल्मों में प्रारम्भ या मध्य में भले ही खलनायक जीतता दिखाई दे; पर अंत में वह पराजित ही होता है। भारतीय मनीषा सदा ‘सत्यमेव जयते’ की पक्षधर है। जनगणना के इस महासमर में किसकी जय होती है, यह देखना शेष है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

6 COMMENTS

  1. भाषा के लिए भी यही नीति अपनाते हुए प्राथमिकता के आधार पर अपनी मातृभाषा और फिर हिन्दी तथा संस्कृत का उल्लेख करें। विभिन्न क्षेत्रों में प्रचलित भोजपुरी, मैथिली, मगही, अवधी, पहाड़ी, ब्रज, खड़ी, छत्तीसगढ़ी, बुंदेलखंडी, मारवाड़ी आदि बोलियां भी हिन्दी ही हैं। वस्तुत: ये सब मिलकर ही हिन्दी हैं। इनके बिना हिन्दी अधूरी है। हाथ, पैर, नाक, कान के बिना शरीर लूला है और शरीर के बिना ये सब निर्जीव। केवल एक पुरुष या महिला से घर नहीं बनता। इसके लिए तो दादा-दादी, चाचा-चाची, नौकर-चाकर और गाय-बैल से लेकर बच्चों का शोर-शराबा तक सब जरूरी हैं। इस नीति से अंग्रेजी का वर्चस्व टूटेगा, भारतीय भाषाओं की जय होगी और ‘हिन्दू हम सब एक’ का संकल्प पूरा होगा।

  2. हिन्दुओं को इस जनगणना के समय अत्यधिक जागरूक होना होगा। सब हिन्दू अपना धर्म हिन्दू ही लिखाएं, भले ही उनका पंथ, मत या सम्प्रदाय सिख, बौद्ध, जैन, खालसा, शैव, शाक्त, कबीरपंथी, रविदासीय आदि हो। जातीय गणना होने पर हिन्दू चर्मकार, हिन्दू तेली, हिन्दू वैश्य, हिन्दू क्षत्रिय या हिन्दू ब्राह्मण लिखाने से हिन्दू शक्तिशाली होगा। सबको डंके की चोट पर कहना होगा कि हमारी जाति, उपजाति, वंश, वर्ग, गोत्र, पंथ, सम्प्रदाय, मत आदि कुछ भी हो; पर सबसे पहले हम हिन्दू हैं।विजय कुमार जी बिलकुल ठीक कह रहे है. पूरी तरह सहमत.

  3. apane meri dil ki bat kah di………………………..or bahut sach kahi………………………………or puri bebaki se kahi…………………….bahut bahut danyvad…………………………………….

  4. जातीय सरोकारों के मद्देनज़र जनगणना के निहितार्थ मात्र जातीय उपजातीय या साम्प्रदायिकता का उल्लेख किये जाने से वांछित लक्ष हासिल नहीं हो सकता .तमाम विसंगतियों असमानताओं का मूल कारन आर्थिक असमानता है? अतः यह सबसे अधिक देशभक्तिपूर्ण होगा की सामाजिकएवं जातीय विषमता से लोहा लेने के लिए आर्थिक विषमताकी खाई को पाटने के जन संघर्षों का समर्थन कियाजाय .

  5. “जाति आधारित जनगणना के समर्थकों का व्यवहार उन्हीं क्रूर खलनायकों जैसा है…..” विजय कुमार जी बिलकुल ठीक कह रहे है. पूरी तरह सहमत.

Leave a Reply to sunil patel Cancel reply

Please enter your comment!
Please enter your name here