चैत्र नवरात्र : देवी कहती हैंं…अपनी शक्ति को पहचानो

सूर्यकांत द्विवेदी

देवी का अर्थ प्रकाश है। वह शक्तिस्वरूपा हैं। दुर्गा सप्तशती को ध्यान से पढ़ें तो उसमें तीन अवस्थाओं, तीन प्रकृति, तीन प्रवृत्ति की व्याख्या है। हमारा धर्म, कर्म और राजतंत्र तीन चरणीय व्यवस्था का स्वरूप है। धर्मशास्त्रों में भी तीन ही देवी हैं। तीन ही देव हैं। तीन ही सृष्टि हैं-जल, थल और नभ। हमारा शरीर भी तीन हिस्सों में विभक्त है। हमारा राजतंत्र भी तीन हिस्सों में ही कार्य करता है- कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका। इसमें ही समस्त शक्तियां निहित हैं। क्यों? उत्तर है-यही शक्ति हैं।
चैत्र और शारदीय नवरात्र ऋतु परिवर्तन के पर्व हैं। चैत्र सृष्टि का उत्सव है। इसी से सृष्टि, गर्भधारण, जन्म-मृत्यु, काल गणना, परिवार, नर-नारी, प्रकृति, प्रवृत्ति आदि की नींव पड़ी। यूं नवरात्र चार होते हैं। चैत्र, आषाढ़, आश्विन और माघ। दो नवरात्र गुप्त होते हैं। चैत्र नवरात्र से नव वर्ष और काल गणना का यह उत्सव है। कलियुग का एक साल पूरा होता है। दूसरे में प्रवेश करता है। इस तरह नवरात्र शक्ति पर्व को परिभाषित करता है। नवरात्र का संबंध हमारी शारीरिक और मानसिक ऊर्जा से है। देवी के जितने भी पाठ, मंत्र और पूजा विधान हैं, वे सभी ऋतुओं के साथ समष्टि और व्यक्ति को संतुलन की ओर ले जाते हैं।
शक्ति है क्या
शक्ति को हम भले ही देवी के रूप में लें। लेकिन शक्ति को पररिभाषित करना कठिन है। श्री दुर्गा सप्तशती में देवी कहती हैं..शक्ति सभी में होती है। हर जीव और जंतु में ताकत होती है। मनुष्य इसलिए श्रेष्ठ है क्यों कि उसमें अपनी शक्ति को परिभाषित करने और उसका विवेक के साथ इस्तेमाल करने का गुण होता है। हर प्राणी में बुद्धि और शक्ति है, लेकिन उसके पास विवेक नहीं है। विवेक केवल मनुष्य के पास है। संभवतया इसी की अभिव्यक्ति और अनुगूंज सब जगह दिखाई देती है। अर्थात, देवी कहती हैं कि अपने अंदर की शक्ति को पहचानो और उसके बाद अपनी दिशा तय करो। निस्तेज मत बनो। शक्तिमान बनो। शक्ति महामाया सृष्टि की तीन अवस्थाओं का तीन रूपों में संचालन करती हैं। पहला है प्रकृति( पार्वती) संरक्षण। दूसरा है स्वास्थ्य ( महाकाली) औऱ परिवार। तीसरा है विकास(महालक्ष्मी और सरस्वती)। प्रकृति, परिवर्तन और विकास यही तीन शक्तियां मुख्यतया महागौरी, महालक्ष्मी और महाकाली हैं।
देवी का अर्थ
देवी का भाव भी यही है। देवी का अर्थ प्रकाश है। जो त्रितापों को हर ले, वह देवी है। देवी का आद्य नाम आल्ह: है। इसका अर्थ प्रकाश ही है। प्रकाश क्यों? सभी धर्मों में सृष्टि की उत्पत्ति ज्योतिपुंज से मानी गई है। इसी प्रकाश को एकाकार ब्रह्म माना गया है। देवी के सभी नौ स्वरूप ( मूलत: तीन) और दश महाविद्या, प्रकाश को अभिव्यक्त करती हैं। प्रकाश का अर्थ केवल विद्युतीय प्रकाश नहीं है। यह आत्मिक, आध्यात्मिक,शारीरिक, मानसिक और प्रगति का प्रकाश है। इसी में शक्ति निहित है।
श्री दुर्गा सप्तशती
श्री दुर्गा सप्तशती भगवती का अतुल्य ग्रंथ है। इसका प्रारम्भ देवी कवच से होता है। चारों ओर का प्राकृतिक और सासांरिक आवरण हमको कहीं न कहीं से रुग्ण कर देता है। कवच न हो तो कोई भी चीज सुरक्षित नहीं रहती। रोग है तो निदान आवश्यक है। वस्तु है तो उसकी देखभाल आवश्यक है। ह्रास होना प्राकृतिक गुण है। शरीर भी यही है। इसलिए, हम देवी से प्रार्थना करते हैं कि वह तीनों मंडलों में हमारी रक्षा करें। देवी नाना रूपों में रक्षा करती हैं। देवी कवच स्वास्थ्य का अमोघ कवच है। इसमें, देवी के समस्त रूप शरीर के अवयवों के संरक्षण के ही संदेशवाहक हैं
अर्गलास्तोत्र
कवच से आगे अर्गलास्तोत्र है। देवी चंडिका को समर्पित। इसमें तो समस्त सांसारिक प्रार्थनाएं हैं। घर, परिवार, सुख, शांति,आरोग्य, शत्रु और समस्त भय-तापों को हरने की प्रार्थनाएं।
कीलक मंत्र इसको मन ही मन करने का विधान है। मौन भी आवश्यक है। कुछ चीजें शांति, धैर्य और मूक निर्णय से तय होती हैं। रणनीति हो या प्रबंधन सबको बताकर नहीं होते। किसी भी रण में जाएं तो उसका खुलासा नहीं किया जाता। रण के साथ नीति बनाई जाती है और उसका पालन किया जाता है। देवी को साथ लेकर देवता भी असुरों के साथ रण में जा रहे हैं, इसलिए, शांति, धैर्य और मूक निर्णय अपेक्षित थे। देवी का यही संदेश सभी को है।
कथा का संदेश
इसलिए श्री दुर्गा सप्तशती में दो चरित्र हैं। एक हैं राजा सुरथ। उसका राज्य छिन जाता है। प्राण बचाने के लिए वह जंगल चला जाता है। मन में महाभारत है। राजपाट मिलेगा या नहीं। उसका राजपाट, सैन्य शक्ति, संपत्ति मिलेगी या नहीं। वह कहीं पर है लेकिन उसका मन वहीं लगा है जो उसका कभी था। व्यवहार में भी तो यही है। हम उस ओर आसक्त होते हैं जो हमारा कभी था। अतीत और वर्तमान की जंग हमेशा चलती है। कई बार अतीत वर्तमान पर हावी हो जाता है और भविष्य का मार्ग रोक देता है। यही महामाया है और देवी इसी से मुक्ति का संदेश देती हैं। श्री दुर्गा सप्तशती में दूसरा चरित्र. समाधि नामक वैश्य का है जिसे उसके परिवार के ही लोग घर से निकाल देते हैं।
श्री दुर्गा सप्तशती में असुरों के कई रूप हैं जैसे मधु और कैटभ ( अतिवादी शक्तियां), महिषासुर ( भैंसा..अर्थात प्रगति अवरोधक) और शुंभ-निशुम्भ ( प्रतिक्रियावादी और स्त्री को भोग्या मानने की प्रवृत्ति)। श्री दुर्गा सप्तशती इन सभी आसुरी प्रवृत्तियों का नाश करती हैं। लेकिन देवताओं के समस्त कार्य सिद्ध करने के बाद देवी यह कहकर प्रस्थान करती हैं कि काल और शक्ति को समझो। यही संदेश देवताओं को है, यही संदेश प्राणियों को है। इसलिए, काल परिवर्तन ( नवसंवत्सर) से देवी की आराधना जुड़ी है।
श्री दुर्गा सप्तशती
1. धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का प्रतीक
2. वेदों की तरह इसको भी अनादि कहा गया है
3. इसमें 700 श्लोक हैं और तेरह अध्याय
4. पहला चरित्र महाकाली, मध्यम चरित्र महालक्ष्मी और उत्तम चरित्र महासरस्वती का है
5. महाकाली की स्तुति एक अध्याय में, महालक्ष्मी की तीन अध्याय में और नौ अध्यायों में महासरस्वती की स्तुति है।
अध्याय और निदान
पहला अध्याय- चिंता मुक्ति, मानसिक शांति
दूसरा अध्याय- विवादों से मुक्ति
तीसरा अध्याय- युद्ध में विजय, शत्रु दमन, भय मुक्ति
चौथा अध्याय- धन संपदा की प्राप्ति, विवाह के अवसर
पांचवा अध्याय- मनोवांछित फलों की प्राप्ति
छठा अध्याय- बाधाओं से मुक्ति, मुकदमों से मुक्ति
सातवां अध्याय- आरोग्य, कार्य सिद्धि, गुप्त कामना की पूर्ति
आठवां अध्याय- धन लाभ
नौवां अध्याय- लापता का पता मिले, संपत्ति के विवाद निबटें
दसवां अध्याय- भय मुक्ति, प्रगति
ग्यारहवां अध्याय- सकल कार्य सिद्धि
बारहवां अध्याय- रोगों से मुक्ति, मान सम्मान में वृद्धि
तेरहवां अध्याय- भक्ति और शक्ति की प्राप्ति
चैत्र मास का महत्व
1. नव पंचांग का प्रारम्भ। प्रतिपदा से सूर्य की काल गति परिवर्तित होती है और इसी से काल गणना होती है
2. चैत्र नवसंवत्सर से ही सृष्टि का प्रारम्भ माना गया है। अर्थात जन्म और मृत्यु इसी से अस्तित्व में आए
3. आद्य शक्ति मां भवानी का प्राकट्य उत्सव। नारी, शक्ति और स्त्री के रूप में परिभाषित। ( कहते हैं कि कार्तिकेय के रूप में भगवती ने प्रसूत-पुत्र उत्पन्न किया था। इससे पहले गर्भ धारण नहीं था। सृष्टि की उत्पत्ति यहीं से हुई नर और नारी के रूप में।
4. नवरात्र के तीसरे दिन भगवान विष्णु ता मत्स्य अवतार
5. नवरात्र की नवमी को भगवान विष्णु के सातवें अवतार के रूप में मर्यादा पुरुषोत्तम राम का जन्म।

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