हिन्दू धर्म की चुनौतियां

अशोक शास्त्री

कुछ ऐसी तस्वीर साफ दिखाई देती है कि बादरायण (वेद व्यास) से शंकर तक, जो हिन्दुत्व की इबारत लिखी गई है, वो मोजूदा दौर में धर्म का प्रमुख ताना बाना है। पर वो कुलीन व्यवस्था की हवा में ही जीवित रह सकती है

1906 में आल इण्डिया मुस्लिम लीग की स्थापना के लिए, आगा खां ने लार्ड मिन्टो को तर्क दिया था कि मुसलमानों को अल्पसंख्यक के नाते भारत के प्रस्तावित जन प्रतिनिधि व्यवस्था में अलग से आरक्षण (प्रतिनिधित्व) दिया जाए क्योंकि बहुसंख्यक हिन्दू अपने संख्याबल के आधार पर भारत की लोकतान्त्रिक सरकार पर काबिज हो जायेंगे। उनका कहना था कि इसलिए लीग का गठन किया जा रहा है।

आज हम कह सकते हैं कि आग खां की आशंका सही नहीं थी। सिर्फ हिन्दुत्व के नाते, न आजादी से पहले और न आजादी के बाद में, कभी भी हिन्दू सरकार बनाई जा सकी है। 1909 में मार्ले-मिन्टो एक्ट से आज तक भारत में हिन्दुत्व के नाते कभी भी 34-35 प्रतिशत भारतीय एक मत नही हो पाए। ऐसा क्यों? इसकी मामूली सी मीमांसा यह स्पष्ट कर देती है कि धर्म रूप में हिन्दुत्व सिर्फ राजतन्त्र और कुलीन व्यवस्था के लिये बना था। उसका सारा अस्तित्व सिर्फ उसी ताने बाने को सुरक्षित और संरक्षित रखने पर आधारित था, जो स्वयं धर्म को बनाने और उसे चलाये रखने के लिये उत्तरदायी थे।

भारतीय (वैदिक) संस्कृति के प्रारम्भिक दौर में ज्ञान सिर्फ ईश्वरीय रहस्यों और जीवात्म का परमात्मा के बीच रिश्तों को समझने का प्रयास भर था। उत्तर वैदिक दौर में राज्य का स्वरूप बनना शुरू हुआ। गणपति यानि कबीले के अध्यक्ष (संचालक) की जरूरत महसूस हुई। इस श्रृंखला में वाल्मीकि ने रामायण की संरचना कर, राज्य और समाज के सम्बन्ध और व्यवस्था को धर्म के रूप में स्थापित करने का प्रयास किया। हालांकि रामायण की प्रारम्भिक प्रस्तावना में वाल्मीकि ने एक आदर्श चरित्र चित्रण का विवरण दर्ज कराने की बात कही है, जो समाज को सकरात्मक और आदर्श दिशा दे।

कालान्तर में बादरायण ने भागवत की रचना कर, व्यावहारिक रूप से हिन्दुत्व को धर्म का रूप देने का सफल कार्य किया। बादरायण ने ‘आस्था’ की एक नई अवधारणा को धर्म में डाल दिया, जो वस्तुतः वेदों के तर्क और वैज्ञानिकता से बिलकुल अलग थी। उन्होंने विष्णु फराण, शिव फराण, गरुण फराण आदि अनेक फराणो के माध्यम से ऐसे अनेक व्यक्तित्वों को पूजनीय बना दिया जिन्होंने मानव शरीर में जन्म लिया। सब इतनी सूझबूझ से किया गया कि श्री राम और श्री कृष्ण हिन्दू धर्म से जुडे़ लोगों के लिए ओंकार यानि ईश्वर के पर्याय बन गए।

इतिहास की विवेचना वैदिक परम्परा में कोई प्रचलित विधा नहीं थी। इसीलिए अंसा जैसे गणितज्ञ, चरक और सुश्रत जैसे चिकित्सकों और पाराशर-वृहतजात जैसे ज्योतिषविदों के विज्ञान विषयक शोध और प्रयोगों तथा मीमांसा और वैशेषिक दर्शन के साथ-साथ योग की सूक्ष्म ज्ञानमयी जानकारी के बावजूद, इतिहास का क्रम और विकास अविकसित रहा। इसी से अनेक भ्रांतियां पनपती और प्रचलित होती रहीं।

उधर धर्म का विकास कुलीनतन्त्र में चलता रहा। आदि शंकाराचार्य ने चार धाम स्थापित कर के, बादरायण के काम को न सिर्फ पूरा कर दिया, अपितु देव प्रवृत्ति को जटिल और सबसे सशक्त हिन्दू पहचान बना दिया।

शास्त्रार्थ में मण्डन मिश्र की शंकर के हाथ तकनीकी पराजय ने जैन और बौद्ध मतों को धराशाई कर दिया। उन्हें अनीश्वरवादी कहा गया और अगली कुछ शताब्दियों में बड़ी संख्या में बौद्ध मठ और जैन मन्दिर तोड़े गए। अयोध्या की कथित बाबरी मस्जिद की नींव में नक्काशीदार पत्थरों से भी इस संभावना का बल मिलता है कि वहां जैन मन्दिरों के अवशेष रहे होंगे।

कुछ ऐसी तस्वीर साफ दिखाई देती है कि बादरायण (वेद व्यास) से शंकर तक, जो हिन्दुत्व की इबारत लिखी गई है, वो मोजूदा दौर में धर्म का प्रमुख ताना बाना है। पर वो कुलीन व्यवस्था की हवा में ही जीवित रह सकती है। उस कालखण्ड में उसने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई होगी। पर आज के ‘सूचना विस्फोट युग’ और ‘लोकशाही’ के इस दौर में, वह व्यवस्था कैसे अधिसंख्य हिन्दुओं को बांधे रख सकती है, यह प्रश्न विचारणीय है।

पौराणिक हिन्दुत्व ‘जाति’ के सम्बल पर ही जीवित रह सकता है। इसलिए कुछ लोगांे का मानना है कि धर्म के इस रूप को कुछ लोग व्यक्तिगत और सामूहिक जीवन में चलाए रख सकते हैं, पर संसद में बहुमत अथवा चुनाव जीतने के लिये उसका प्रयोग निरर्थक है।

सैकड़ों छोटे-छोटे राज्यों में बंटा भारत, शंकर फार्मूले के लिये उपयुक्त था। पर सवा सौ करोड़ देशवासियों का भारत उस व्यवस्था (पौराणिक) को चला सकता है, यह विश्वसनीय नहीं दिखता। अम्बेडकर वादियों की बौद्ध अवधारणा और अगणित देवी-देवताओं वाला हिन्दुत्व एक राजनीतिक मंच पर नहीं आ सकते। आज दलित सिर्फ यह नहीं चाहता कि उच्च वर्णीय हिन्दू उनके साथ सहभोज करें, अपितु वह सत्ता में हिस्सेदारी चाहता है। जहां-जहां संभव हो, अपना नेतृत्व भी देखना चाहता है।

पौराणिक व्यवस्था में जिन, किसान कामगार वर्गों को सत्ता और शिक्षा के गलियारों से बाहर रखा गया था, वर्तमान युग में अब वैसा नहीं हो सकता। पर इसका यह भी अर्थ नहीं है कि अधिसंख्य हिन्दू ‘जन्म-जन्मान्तर’ की अवधारणा को छोड़ देंगे। विभिन्न संस्कारों में संस्कृत के श्लोक उन्हें आज भी प्रिय दिखते हैं। अस्तु वेद और उपनिषदों के कार्यक्रम और नीतियां ही हिन्दू एकता का एक मात्र विकल्प बन सकते हैं। यदि अधिसंख्य हिन्दुओं को एक मंच पर लाना है तो ‘ईशावास्यमिदम् सर्व’ ही एक मात्र मूलमंत्र हो सकता है। यदि हम अधिसंख्य बल पर एक मंच पर नहीं आए, तो ‘इस्लामी जेहाद’ और उनकी जबरदस्त एका शक्ति से लोकशाही में, हिन्दू वैसे ही बिखर जायेंगे, जैसे आज कश्मीर घाटी की स्थिति है। इसके अतिरिक्त उन्मुक्त ‘उपभोक्तावाद’, हमारी वजर्नाहीन युवा पीढ़ी को ज्वार की लहरों की तरह निगल जाने वाला है।

भारत की लोकशाही भी, संयोग से वैश्विक बाजार व्यवस्था का ही एक हिस्सा बन कर रह गई है। जनप्रतिनिधित्व अब लोक सेवकों से निकल कर धनपतियों की पकड़ में आ गया है। संवैधानिक ढांचों को ठंडे बस्ते में डाल कर कुछ चुनिंदा लोगों ने अपने-अपने सम्बद्ध दलों को, अपने मजबूत पंजों में ले लिया है।

राष्ट्रीय-नेतृत्व की, राजनीतिक समझदारी भी लोगों को हैरान कर रही है। पांच लोक सभा सदस्यों वाले ‘उत्तराखण्ड राज्य’ को बनाकर, स्वयं भाजपा ने 80 लोकसभा सीटों वाले उत्तर प्रदेश में शक्ति संतुलन गड़बड़ा कर, अपने को हाशिए पर लाकर खड़ा कर दिया है। हां यह अवश्य है कि महाराणा प्रताप के मेवाड़ की तरह एक पहाड़ी मात्र पर सत्ता, उन शक्तियों को सुख दे रही होगी, जो बाकी का सारा उत्तर प्रदेश मानो अकबर के हवाले छोड़कर आराम से हैं।

मूल भारतीय धर्म की अवधारणा अपने ही बनाए, जाल में जकड़ी दिखाई दे रही है। इसीलिए तो ‘मुस्लिम होम लैंड’ (पाकिस्तान) के गठन, कश्मीर घाटी सें ‘पंडितों’ को भगाकर वहां स्वतंत्रता के लिए कार्रवाई और श्रृंखलाबद्ध जिहादी हमले भी हिन्दू युवक और युवतियों के हृदय से शाहरूख, सलमान, आमिर सरीखे सिने कलाकारों की श्रेष्ठता को हटा पाने में सर्वथा असमर्थ हैं। हर कस्बे और नगर में इसके परिणाम देखे जा सकते हैं।

1 COMMENT

  1. ॥सत्ता विभाजन भारतीय दर्शन॥
    => ” शास्त्री जी से अनुरोध: दीनदयाल जी का एकात्म मानव दर्शन पढें, और दत्तोपंत जी का Third Way “जैसे श्री कृष्ण(सम्यक् दॄष्टा) परामर्श दाता और अर्जुन(सत्ता) योद्धा, जैसे चाणक्य (सम्यक्‌..) प्रशिक्षक और चंद्रगुप्त (सत्ता) राज्यकर्ता, जैसे रामदास(सम्यक्‌..) संगठक,दिग्दर्शक और शिवाजी(सत्ता)राजा,बस उसी प्रकार संघ(सम्यक्‌ दृष्टा) और भा. ज. पा.(सत्ता) के संबंध को मैने पढा है, अनुभव किया है। और मानता हूं,कि भारत के और सारे भारतीयों के(संदर्भ:मोहनजी के भाषण) अन्ततोगत्वा कल्याणके लिए यही एक सही रास्ता है। अन्य शॉर्ट कट सत्ता दिला सकते हैं, पर दीर्घ कालीन कल्याण करने में अक्षम सिद्ध होने की अधिक संभावना है। यह सत्ताके विभाजन की आदर्श प्रणाली है।
    जिसके पास ऋषि (धर्म अर्थात न्याय) सत्ता है, वह कुटुंबके मोह माया और प्रलोभनों से अलिप्त (भागवतजी आजीवन प्रचारक)है। साथ में सर्व समन्वयी है। इस लिए भागवतजी के निर्णय स्वार्थसे प्रेरित नहीं हो सकते। न उन्हे कोई सिंहासन या कुरसी पानी है। मानता हूं, निश्चित ही संघके स्वयंसेवकभी जो भा.ज. पा. मे लगे हुए हैं, वे भी मानवीय दुर्बलताओं से अछूते नहीं है, न यह अपेक्षित है। राज सत्ता(मदभरी, आसनाकांक्षी,और उद्दंड) सभीको भ्रष्ट करनेकी क्षमता रखती है। इसी लिए संघको परामर्शदाता का दायित्व राष्ट्र हितमे, एक पारिवारिक दृष्टिसे निर्वाह करना ही चाहिए। और एक बात, पारिवारिक परामर्श निजी हुआ करता है। उसे प्रकाशित करने पर परामर्श देनेवाला वरिष्ठ और लेनेवाला कनिष्ठ समझा जाएगा; शायद इस प्रकारके अर्थ घटनसे से बचनेके लिए उसे ऐसे निजी स्तरपे करना होता है। आप अपनी गृहिणीको भी सभीके सामने, उनकी गलतीयां नहीं बताते।मै तो मानता हूं, ऐसी गतिविधि से, भा ज पा और संघ दोनो भारतके हितमे अधिक सक्षम होंगे। ऐसा मुझे लगता है। इस इह लोक में Perfection पूर्णता कभी न थी, न हो सकती है। आदर्श रखकर उसकी प्राप्ति के लिए किए गए प्रयास यही हमारी परीक्षा है।
    सविनय।

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