तीसरे मोर्चे के चाणक्य : करात

3rd_frontपरमाणु करार पर मनमोहन सरकार को जिस समय प्रकाश करात आर-पार की चुनौती दे रहे थे ठीक उसी समय हमारे बड़े पत्रकार और राजनीतिक समीक्षक प्रकाश करात को इतिहास के कूड़ेदान में फेंक रहे थे। लेकिन यह करात का ही करिश्मा है कि वाम दल फिर से देश में एक बड़ी ताकत बनकर उभरे हैं और देश की राजनीति फिर से वाम दलों के इर्द गिर्द घूम रही है।

कर्नाटक के तुमकुर में जेडी (एस) नेता एचडी देवेगौड़ा और वाम दलों की पहल पर जिस तरह से तीसरे मोर्चे के लोग जुटे, उससे क्षेत्रीय दलों की नई ताकत का एहसास यूपीए और एनडीए दोनों को बखूबी हो गया है।

अभी तक का इतिहास तीसरे मोर्चे के लिए अच्छा नहीं रहा है। जो हालात देश में रहे हैं उसमें बिना कांग्रेस या भाजपा की मदद के तीसरे मोर्चे की कल्पना बेमानी रही है। लेकिन इस बार हालात दूसरे बन रहे हैं। अगर आज की तारीख में कोई भविष्यवाणी की जा सकती है तो सिर्फ यह कि पन्द्रहवीं लोकसभा का ताना बाना तीसरे मोर्चे के इर्द-गिर्द ही बुना जाएगा और जिन प्रकाश करात और ए.बी. बर्धन को लोग इतिहास के कूड़े के ढेर पर फेंक रहे थे, पन्द्रहवीं लोकसभा की उम्र वही करात और बर्धन ही तय करेंगे।

ऐसा सोचना कोई गलतफहमी या खुशफहमी नहीं है। यूपीए गठबंधन की हालत पतली है। मध्य प्रदेश में उसके पास कोई फेस नहीं है, राजस्थान में भी उसके घर में आग लगी हुई है, महाराष्ट्र में राकांपा से उसकी लगी हुई है, आंध्र में वाई एस राजशेखर रेड्डी की हालत पतली है। उ0प्र0 में उसके पास पूरे 80 प्रत्याषी नही है! उसके उ0 प्र0 के दूसरे मजबूत साथी मुलायम सिंह की हालत उनके कमांडर अमर सिंह के कारण खराब है, सपा को अगर वहां दस सीटें भी मिल जाएं तो यह उसकी बड़ी उपलब्धि होगी। बिहार में कांग्रेस को सिर्फ 3 सीटें मिली हैं, फिर कांग्रेस की बढ़त कहां होगी?

ठीक इसी तरह एनडीए का घर भी बिखरा-बिखरा है। अडवाणी की छवि उसकी राह में सबसे बड़ा रोड़ा बन रही है। उसके घटक रोज छिटक रहे हैं। भाजपा में स्वयं जबर्दस्त जूतमपैजार है, जो सड़को पर भी दिखाई दे रही है। बीजद एनडीए को छोड़ ही गया, अगप शामिल हुआ भी लेकिन उसने कह दिया कि सीटों का तालमेल है, गठबंधन नहीं । अगर बिहार की बात छोड़ दी जाए तो एनडीए को भी सभी जगह नुकसान ही होना है। सबसे बड़े राज्य उ0 प्र0 में उसकी कमर टूटी हुई है। स्वयं राजनाथ सिंह गाजियाबाद में कड़े मुकाबले में फंसे हुए हैं, राष्ट्रिय लोकदल से उसे पश्चिम उ0 प्र0 में कुछ फायदा हो सकता है लेकिन वह उ0प्र0 में कुछ करिश्मा कर पाएगी ऐसा नही है, कर्नाटक में भी देवेगौड़ा के दांव से भाजपा की हालत पतली है। फिर एनडीए कहां बढ़त लेगा?

रही बात प्रधानमंत्री तय करने की तो इस मसले को वाम दलों ने खूबसूरती के साथ हल कर लिया है। जिन दो बददिमाग देवियों पर संशय किया जा रहा था उन दोनों ने कह दिया कि चुनाव बाद यह फैसला होगा। यानी जिसकी जितनी ज्यादा संख्या बल वह प्रधानमंत्री! तो अब संदेह की क्या गुंजाइश रही?

वामपंथी दलों की कोशिश भाजपा और कांग्रेस को चुनाव में ज्यादा से ज्यादा नुकसान पहुंचाने की है जिसमें वे सफल भी हो रहे हैं। अगर कांग्रेस को बीस-तीस सीटों का और भाजपा को भी बीस-तीस सीटों का नुकसान होता है तो फिर तीसरे मोर्चे की सरकार बनने के अलावा क्या विकल्प होगा? क्या भाजपा और कांग्रेस तीसरे मोर्चे को रोकने के लिए गठबंधन कर लेंगे? अगर भाजपा और कांग्रेस को बीस बीस सीटों का भी नुकसान हुआ तो जो शरद यादव आज तीसरे मोर्चे को मेढकों को तौलना बता रहे हैं, वे ही सबसे पहले तीसरे मोर्चे के तराजू में बैठे मिलेंगे।

जयललिता और मायावती भी अपने स्वभाव के मुताबिक जो गड़बड़ी कर सकती हैं, नहीं करेंगी क्योंकि ऐसी स्थिति में भाजपा और कांग्रेस उन्हे प्रधानमंत्री बनाने से रही! फिर जयललिता और मायावती क्यों तीसरे मोर्चे से बाहर जाएंगी? और अगर जाएंगी भी तो दोनों के अपने अपने दुश्मन न0 एक मुलायम सिंह और करूणानिधि सत्ता का स्वाद चखने के लिए करात के दरबार में अर्जी लगाए खड़े होंगे। ऐसे में न मायावती चाहेंगी और न जयललिता कि वे दौड़ से बाहर हो जाएं।

इन सारी बातों को किनारे कर भी दिया जाए, तो भाजपा और कांग्रेस ने जिस प्रकार से तीसरे मोर्चे पर प्रतिक्रिया दी, क्या वह दोनों राष्ट्रिय दलों की घबराहट को साबित करने के लिए काफी नहीं है? अगर वाम दलों द्वारा प्रायोजित यह मोर्चा गंभीर नहीं है तो अडवाणी जी और सोनिया जी के माथे पर पसीना क्यों है? आने वाला कल निष्चित रूप से प्रकाश करात और बर्धन का ही है।

(लेखक राजनीतिक समीक्षक हैं और पाक्षिक पत्रिका ‘प्रथम प्रवक्ता’ के संपादकीय विभाग में हैं।)

अमलेन्दु उपाध्याय
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2 COMMENTS

  1. अभी तक का इतिहास तीसरे मोर्चे के लिए अच्छा नहीं रहा है।
    जयललिता और मायावती भी अपने स्वभाव के मुताबिक जो गड़बड़ी कर सकती हैं, नहीं करेंगी क्योंकि —–

    आपका लेख ज्‍योतिषी की भविष्‍यवाणी अधिक, राजनीतिक समीक्षा कम लगती है। आपही की शैली में कहें तो चुनाव के बाद का परिदृश्‍य तीसरे मोर्च की अवसरवादिता का पर्दाफाश कर देगा। बुरा लगे तो क्षमा।

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