विजय कुमार
परिवर्तन की बात करना राजनेताओं और समाजसेवियों में प्रचलित एक फैशन है; पर यह परिवर्तन लोकतन्त्र की मर्यादा में होना चाहिए। यद्यपि वर्तमान चुनाव प्रणाली भी पूर्णतया लोकतान्त्रिक ही है; पर भ्रष्टाचार, जातिवाद, मजहबवाद, क्षेत्रीयता, महंगाई, अनैतिकता और कामचोरी लगातार बढ़ रही है। इसका कारण यह दूषित चुनाव प्रणाली ही है।
दुनिया में कई प्रकार की चुनाव प्रणालियां प्रचलित हैं। हमने उन पर विचार किये बिना ब्रिटिश प्रणाली को अपना लिया। इसका भविष्य तो गांधी जी ने ही इसे ‘बांझ’ कहकर बता दिया था। अब तो इंग्लैंड में भी इसे बदलने की मांग हो रही है।
यदि आप किसी सांसद या विधायक से मिलें, तो वह अपने क्षेत्र की बिजली-पानी, सड़क और नाली की व्यवस्था में उलझा मिलेगा। यदि वह ऐसा न करे, तो अगली बार लोग उसे वोट नहीं देंगे। इन दिनों एक विधानसभा क्षेत्र में प्रत्याशी एक करोड़ रु0 तक खर्च कर देता है। पार्टी तो उसे इतना देती नहीं। ऐसे में वह भ्रष्टाचार से पैसा जुटाता है, जिससे अगला चुनाव जीत सके। भारत में लगातार बढ़ रहे भ्रष्टाचार का मुख्य कारण यही है।
लोकसभा और विधानसभा का काम देश और प्रदेश के लिए नियम बनाना है; पर सांसद और विधायक यह नहीं करते। यह उनकी मजबूरी भी है। अतः इस चुनाव प्रणाली के बदले हमें भारत में ‘सूची प्रणाली’ का प्रयोग करना चाहिए।
इसमें प्रत्येक राजनीतिक दल को सदन की संख्या के अनुसार चुनाव से पहले अपने प्रत्याशियों की सूची चुनाव आयोग को देनी होगी। जैसे लोकसभा में 525 स्थान हैं, तो प्रत्येक दल 525 लोगों की सूची देगा। इसके बाद वह दल चुनाव लड़ेगा, व्यक्ति नहीं। चुनाव में व्यक्ति का कम, दल का अधिक प्रचार होगा। चुनाव रैली और अन्य माध्यमों से हर दल अपने विचार और कार्यक्रम जनता को बताएगा। इसके आधार पर जनता उस दल को वोट देगी। चुनाव सम्पन्न होने के बाद जिस दल को जितने प्रतिशत वोट मिलेंगे, उसके उतने प्रतिशत लोग सूची में से क्रमवार सांसद घोषित कर दिये जाएंगे। यदि किसी एक दल को बहुमत न मिले, तो वह मित्र दलों के साथ सरकार बना सकता है।
इस प्रणाली से चुनाव का खर्च बहुत कम हो जाएगा। इसमें उपचुनाव का झंझट भी नहीं है। किसी सांसद की मृत्यु या त्यागपत्र देने पर सूची का अगला व्यक्ति शेष समय के लिए स्वयमेव सांसद बन जाएगा।
इस व्यवस्था से अच्छे, शिक्षित तथा अनुभवी लोगों को राजनीति में आने का अवसर मिलेगा। इससे जातीय समीकरण टूटेंगे। आज तो दलों को प्रायः जातीय या क्षेत्रीय समीकरण के कारण दलबदलू या अपराधी को टिकट देना पड़ता है। उपचुनाव में सहानुभूति के वोट पाने के लिए मृतक के परिजन को इसीलिए टिकट दिया जाता है। सूची प्रणाली में ऐसा कोई झंझट नहीं है।
अभी तो प्रायः दूसरा ही दृश्य देखने में आता है। गांधी जी के नाम पर वोट लेने वाली कांग्रेस ने गांधी जी के सब सिद्धान्तों को ठुकरा दिया। 1977 में जयप्रकाश नारायण को आगे कर जनता पार्टी ने चुनाव जीता; पर वह उनके विचार लागू नहीं कर सकी। हिन्दुत्व की विचारधारा पर आधारित भाजपा भी जीतने के बाद अपने विचारों को भूल जाती है। इसका कारण गठबंधन के दबाव की राजनीति है।
इस प्रणाली में हर सांसद या विधायक किसी क्षेत्र विशेष का न होकर पूरे देश या प्रदेश का होगा। अतः उस पर किसी जातीय या मजहबी समीकरण के कारण सदन में किसी बात को स्वीकार करने या न करने की मजबूरी नहीं होगी। किसी भी प्रश्न पर विचार करते सबके सामने पूरे देश या प्रदेश का हित होगा, केवल एक जाति, क्षेत्र या मजहब का नहीं।
इससे राजनीति में उन्हीं दलों का अस्तित्व रहेगा, जो पूरे देश या प्रदेश के बारे में सोचते हैं। एक जाति, क्षेत्र या मजहब की राजनीति करने वाले दलों तथा अपराधी, भ्रष्ट और खानदानी नेताओं का वर्चस्व समाप्त हो जाएगा। उन्हें एक-दो सांसदों या विधायकों के कारण सरकार को बंधक बनाने का अवसर ही नहीं मिलेगा। यह प्रणाली राजनीति के शुद्धिकरण की दिशा में मील का पत्थर सिद्ध होगी।
पर ऐसे में प्रश्न है जनता का प्रतिनिधि कौन होगा ? इसके लिए हमें जिला, नगर, ग्राम पंचायतों के चुनाव निर्दलीय आधार पर वर्तमान व्यवस्था की तरह ही कराने होंगे। इन लोगों का अपने क्षेत्र की नाली, पानी, बिजली और थाने से काम पड़ता है। इस प्रकार चुने गये जनप्रतिनिधि प्रदेश और देश के सदनों द्वारा बनाये गये कानूनों के प्रकाश में अपने क्षेत्र के विकास का काम करेंगे। ऊपर भ्रष्टाचार न होने पर नीचे की संभावनाएं भी कम हो जाएंगी।
यहां एक बात और ध्यान देने योग्य है कि लोकसभा, विधानसभा आदि में बहुत अधिक सदस्यों की आवश्यकता नहीं है। संसद में 200 सांसद; बड़े राज्यों में 50 और छोटे राज्यों में 10 विधायक पर्याप्त हैं। यद्यपि सूची प्रणाली से कुछ समय के लिए दल में सूची को अंतिम रूप देने वाले बड़े नेताओं का प्रभाव बढ़ जाएगा; पर यदि वे जमीनी, अनुभवी और काम करने वालों को सूची में नहीं रखेंगे, तो जनता उन्हें ठुकरा देगी। अतः एक-दो चुनाव में व्यवस्था स्वयं ठीक हो जाएगी।
इस प्रणाली में नये दल का निर्माण, राष्ट्रीय या राज्य स्तर के दल की अर्हता आदि पर संविधान के विशेषज्ञ तथा विद्वान लोगों में बहस होने से ठीक निष्कर्ष निकलेंगे। उन्हीं दलों को मान्यता मिले, जिनमें आंतरिक चुनाव ठीक से हों। आज तो अधिकांश दल एक परिवार के बंधक जैसे बन गये हैं। इसके लिए भी कुछ नियम बनाने होंगे।
‘एके साधे सब सधे’ की तर्ज पर कहें, तो चुनाव प्रणाली बदलकर, चुनाव को सस्ता और जाति, क्षेत्र, मजहब आदि के चंगुल से मुक्त करने से देश की अनेक समस्याएं हल हो जाएंगी।
लेखक जी की बात अव्यवहारिक है भारत की एक अरब जनता सिर्फ दो सौ लोगों का मुहताज रहेगी फिर ये दो सौ लोगों का गुट तानाशाही का कहर नहीं ढाएगा वैसे चुनाव की जिस पदवती को हमने अपनाया है वह खोखली है हमें या तो नागनाथ को चुनना होता है या फिर सांप नाथ को तीसरा विकल्प है ही नहीं वह यह हो सकता की इन दोनों में से कोई नहीं हालाँकि इसके खतरे भी है पर इससे पार्टियों को अपने व्यक्तियों को चुनने में विचार करना ही होगा
बिपिन कुमार सिन्हा
जब व्यक्ति का स्तर इतना नीचा हो की उसे किसी भी पद पर बैठाओ वह भ्रष्ट्र ही होगा तो कोइ भी तंत्र हो क्या फर्क पड़ता है |सभी नहीं लेकिन बहुत सारे नेता पैसा कमाने और एसो आराम के लिए नेता बनते है और वह वही कर रहे है | देश और समाज के प्रति उनकी क्या जिम्मेदारी है , इससे उनका बहुत दूर का रिश्ता नहीं है |