राजनीति

संसद के नियमों में हो परिवर्तन

देश के चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा देश के सर्वोच्च लोकतांत्रिक प्रतिष्ठान अर्थात देश की संसद की अवमानना करना अब एक प्रचलन बन चुका है। संसद के मानसून सत्र को लेकर सरकार का इरादा था कि इसमें 120 घंटे की चर्चा की जाएगी। जिससे देश का विधायी कार्य निपटाने में सहायता मिलेगी। परंतु विपक्ष के अड़ियल दृष्टिकोण के चलते 120 घंटे के स्थान पर मात्र 37 घंटे ही चर्चा हो पाई। जिसका परिणाम यह हुआ कि देश की जनता की गाढ़ी कमाई का पैसा संसद की कार्यवाही पर व्यर्थ ही खर्च हो गया । मानसून सत्र में लोकसभा में 12 और राज्यसभा में 14 विधेयक पास हुए।
जिस बात को देश का आम आदमी भी जानता है कि संसद की कार्यवाही पर प्रति मिनट ढाई लाख रुपए खर्च होते हैं। हमारे देश की जनसंख्या का अधिकांश भाग ऐसा है, जिसके पास वर्ष भर में अपने ऊपर खर्च करने के लिए ढाई लाख रुपए नहीं होते । 2012 के आंकड़े के अनुसार 1 घंटे में डेढ़ करोड़ से अधिक रुपया संसद की कार्यवाही पर खर्च हो जाता है। इसके अतिरिक्त हमारे जनप्रतिनिधियों के वेतन, भत्ते और उनकी दूसरी सुविधाएं उनके आवासों का खर्च, उनके लिए मिले कर्मचारियों के खर्च अलग हैं।
इसके उपरांत भी संसद के सदस्य जब अपने वेतन भत्ते बढ़ाते हैं तो उस पर सभी की सहमति बड़े आराम से बन जाती है और तत्संबंधी विधेयक को यथाशीघ्र पारित करा लेते हैं। देश के शिक्षित वर्ग में इन प्रतिनिधियों के इस प्रकार के आचरण को लेकर अब चर्चा होने लगी है। लोग अपने अनेक जनप्रतिनिधियों की भूमिका को राष्ट्रहित में उचित नहीं मान रहे हैं। विपक्ष की भूमिका निश्चित रूप से विशेष पक्ष की होती है, उसे सरकार पर अंकुश लगाना चाहिए- यह भी उसका वैधानिक अधिकार है, परंतु वह देश की संसद को ही नहीं चलने देगा और लोकतंत्र की मर्यादाओं का हनन करेगा, इसे किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं कहा जा सकता। सत्तापक्ष के लिए भी यह बात उतनी ही लागू होती है जितनी विपक्ष के लिए।
समय आ गया है जब देश की संसद को चलाने के नियमों में व्यापक परिवर्तन होने चाहिए। यह बात तब और भी अधिक आवश्यक हो जाती है जब देश के सरकारी कर्मचारियों की कार्य के प्रति थोड़ी सी लापरवाही भी अक्षम्य मानी जाती है तो देश को चलाने वाले लोगों का यह आचरण भी अक्षम्य ही माना जाना चाहिए कि वह देश की संसद को ही चलने नहीं देंगे। इन्हें देश के लिए काम करने के लिए जनता चुनकर भेजती है, देश को रोकने के लिए नहीं भेजा जाता।
अब समय आ गया है जब काम के बदले ही दाम मिलने की नीति देश के सांसदों, विधायकों अथवा जनप्रतिनिधियों के प्रति भी अपनाई जानी चाहिए। काम नहीं तो वेतन नहीं, काम नहीं तो सुविधा भी नहीं – ऐसा नियम बनाकर अब कड़ाई से लागू करना चाहिए। जो भी सांसद अमर्यादित और असंसदीय भाषा का प्रयोग करता हुआ पाया जाए, उसके विरुद्ध भी कठोर कानूनी कार्यवाही अमल में लाई जानी चाहिए। जो कोई सांसद, विधायक या जनप्रतिनिधि विधानमंडलों में बैठकर किसी आतंकवादी संगठन की वकालत करेगा या कोई भी ऐसा आचरण करेगा जिससे देशद्रोही और समाजद्रोही लोगों को प्रोत्साहन मिलता हो या देश के शत्रु देश की भारत के प्रति शत्रुता पूर्ण नीतियों या सोच को बल मिलता हो, ऐसे सांसद / विधायक/ जनप्रतिनिधि या राजनीतिक दल के विरुद्ध भी कठोर कानून बनाए जाने अपेक्षित हैं। भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को असीमित स्थिति तक प्रयोग में लाने की स्वतंत्रता दिया जाना देश के लिए अच्छा नहीं है।
देश के जनप्रतिनिधियों की गिरफ्तारी की मर्यादा पर भी विचार करने की आवश्यकता है। यदि देश के सम्मान को अथवा देश की सेना के सम्मान को कोई भी सांसद या चुना हुआ जनप्रतिनिधि अपने शब्दों से या अपने आचरण से चोट पहुंचाता है तो उसे विशेष शर्तों के अंतर्गत संसद के चलते हुए सत्र से भी गिरफ्तार किया जा सकता है।
हमारा चुना हुआ कोई भी जनप्रतिनिधि जब देश की संसद की मर्यादाओं को तार-तार करे अथवा संसद की गरिमा का उल्लंघन करता हो अथवा किसी भी प्रकार के अलोकतांत्रिक आचरण को एक से अधिक बार आचरण में लाने का दोषी पाया जाता रहा हो तो उसे मतदाताओं को वापस बुलाने का अधिकार दिया जाना चाहिए। ऐसे किसी भी संसद को संसद में जनप्रतिनिधि के रूप में बैठने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। ऐसी स्थिति में या तो उसे संसद की सदस्यता से स्वयं ही त्यागपत्र दे देना चाहिए या फिर उसके विरुद्ध लोकसभा अध्यक्ष को कार्यवाही करने के अधिकार दिए जाने चाहिए। जिसमें उसे संसद के वर्तमान सत्र की अवधि से लेकर लोकसभा के पूरे कार्यकाल तक के लिए निलंबित करने का अधिकार लोकसभा अध्यक्ष के पास होना चाहिए। उसके स्थान पर कोई नया चुनाव न करवाकर चुनाव के समय दूसरे स्थान पर रहे, व्यक्ति को उसके स्थान पर बैठने की अनुमति दी जानी चाहिए।
हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि देश पर कोई व्यक्ति विशेष शासन नहीं करता है, बल्कि दंड शासन करता है। दंड का भय शासन करता है। यदि दंड का भय संसद के सदस्यों के भीतर से निकल गया तो वह भयमुक्त समाज नहीं बना पाएंगे। भयमुक्त समाज तभी बनता है जब दंड का शासन होता है। जब संसद सदस्य ही स्वेच्छाचारी और उच्छृंखल व्यवहार संसद में करेंगे तो वैसा ही व्यवहार करने वाले लोग सड़कों पर उत्पात मचाएंगे। जैसी अराजकता संसद के भीतर होगी, वैसी ही अराजकता समाज में भी फैल जाएगी। क्योंकि जनसाधारण अपने राजा का या कानून बनाने वालों का अनुकरण करता है। इलाज किसी व्यक्ति का नहीं किया जाता है, इलाज होता है – अराजक मानसिकता का, उन्मादी सोच का, व्यवस्था विरोधी आचरण का। सोच को ठीक करने के लिए ही नियमों में कठोरता आवश्यक होती है। यदि यह कठोरता जनसाधारण के लिए आवश्यक है तो इस कठोरता को जनप्रतिनिधियों के विरुद्ध भी लागू किया जाना समय की आवश्यकता है। मनु महाराज के चिंतन को लेकर जो लोग चिंता व्यक्त करते रहते हैं, उन्हें नहीं पता कि मनु महाराज अराजक राजनीतिक लोगों के प्रति कितने कठोर थे ? अमर्यादित , अनीतिपरक और देशद्रोही सोच के कीटाणुओं से युक्त लोगों के राजनीति में प्रवेश करने के विरोधी थे – मनु महाराज । अब यदि भारत की राजनीति में इस प्रकार के लोग प्रवेश करने में सफल हो ही गए हैं तो उनका इलाज मनुवादी व्यवस्था के अंतर्गत ही खोजा जा सकता है।

डॉ राकेश कुमार आर्य