बदलते शहर में बस, नाम रह जाएगा

कुदसिया बाग qudsiya bagh 3 today

नलिन चौहान

दिल्ली की ऐतिहासिक विरासतों को सहेजने की ज़िम्मेदारी भले ही उत्तरी दिल्ली के हिस्से ज्यादा नहीं आती हो, लेकिन बहुत कम लोगों को ये पता है कि, यह शहर का सबसे अधिक दिलचस्प इलाका है जो पग-पग पर स्वप्नदर्शी पुरातन स्थलों से भरा हुआ है। इस शहर में पुरानी दिल्ली के मध्ययुगीन मुगलकालीन भग्नावेशों से लेकर औपनिवेशिक बस्तियाँ व परवर्ती नई बस्तियाँ बड़ी ख़ामोशी से साथ-साथ रह रही हैं। आज यह मेट्रो रेल के नए प्रस्तावित मार्ग के रूप में आधुनिक अन्तर्राष्ट्रीय शहर के नागरिकों के स्वागत को तत्पर हैं। वह बात अलग है कि जिस तरह मेट्रो रेल ने दिल्ली के दूसरे मेट्रो स्टेशनों पर उस स्थान के आस-पास के प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थलों के बारे में सूचना प्रदर्शित की है, उसी तरह मेट्रो के कश्मीरी गेट और सिविल लाइन्स मेट्रो स्टेशनों पर कुदसिया बाग के विषय में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है।

यहां मौजूद कई ऐतिहासिक स्थलों के भग्नावेशों में महत्वपूर्ण हैं दिल्ली के सदियों पुराने बाग़ों के अवशेष, जिनमें रोशनारा बाग (1650), शालीमार बाग (1653), महलदार खां का बाग (1728-29) और कुदसिया बाग (1748) प्रमुख है। कश्मीरी गेट के पास बने राणा प्रताप अंतरराज्जीय बस अड्डे के उत्तरी छोर पर ‘नवाब बेगम कुदसिया का बाग’ मौजूद तो है लेकिन बदतर हालत की वजह से अक्सर नज़रों से चूक जाता है।

ऐतिहासिक कुदसिया बाग को वर्ष 1748 में बादशाह मुहम्मदशाह की बेगम और अहमद शाह की मां कुदसिया बेगम ने बनवाया था। कुदसिया एक दासी थी, जो बादशाह की बेगम बनने का गौरव प्रप्त कर सकी थी। हालांकि कुदसिया बेग़म के बारे में कई दूसरी कहानियां भी प्रचलित हैं। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की पत्रिका के अनुसार, नवाब बेगम कुदसिया एक मशहूर नाचने वाली और मुहम्मद शाह (1719-48) की चहेती बेगम थी। इसके उलट प्रसिद्ध इतिहासकार कासिम औरंगाबादी ने ‘अहवाल-उल ख्वाकीन और खफी खान ने ‘मुखाब-उल लुबाब में कुदसिया या फख्र-उन-निशा बेगम को जहान शाह की पत्नी और मुगल शासक मोहम्मद शाह रंगीला की मां बताया है। कुछ इतिहासकारों ने ये भी लिखा है कि कुदसिया बेगम का पहला नाम उधम बाई था और वह एक मशहूर नर्तकी थी। बाद में बादशाह मोहम्मद शाह ने उससे निकाह किया था।

बाग़ के निर्माण के काल पर भी इतिहासकार और पुरातत्वविद् एकमत नहीं हैं। भारतीय पुरातत्व विभाग की सन् 1971-72 की रिपोर्ट के चौथे खंड के अनुसार, “कुदसिया बाग 1398 में भी मौजूद था और तैमूरलंग ने हिंडन-यमुना के बीच लोनी में अपनी सेना की मोर्चाबंदी करने के बाद कुदसिया बाग के सामने ही यमुना नदी पार की थी।” कुछ इतिहासकारों ने यह भी दावा किया है कि कुदसिया बाग के पास मौजूद कुदसिया घाट महाभारत काल में भी था और इसका असली नाम कौरवों के नाम पर कौरवसिया या कौरवैया घाट था। इसकी सत्यता जानने के लिए शायद और गहरी खोज की आवश्यकता है।

कुदसिया बेगम ने इस बाग को बनवाने के लिए कश्मीरी दरवाजे की ओर यमुना नदी का किनारा चुना था। बाग़ का कुछ हिस्सा शायद बना-बनाया था जिसके बाद बेग़म ने इसमें आलीशान कोठियां बनवाईं, नहरें और फव्वारे बनवाए और यमुना का पानी बाग तक लाने का इन्तजाम कराया। महल के दोनों ओर बारहदरियां थीं जिनको सुरंगों द्वारा लाल किले से जोड़ा गया था। बाग़ का मुख्य द्वार जो 39 फुट ऊंचा, 74 फुट लंबा और 55 फुट चौड़ा है, आज भी बरक़रार है। यमुना नदी जो उस समय मौजूदा रिंग रोड से पूर्व को बहती थी, कुदसिया बाग से टकराकर ही गुज़रती थी। इस इलाके की यमुना नदी का किनारा आज भी कुदसिया घाट नाम से मशहूर है, जहाँ छठ पूजा सहित हिन्दू पर्वों के समय गणेश-दुर्गा प्रतिमाओं का विसर्जन होता हैं।

कुदसिया बेगम ने दिल्ली में यमुना नदी के किनारे ईरानी चारबाग की पद्धति पर बने इस बाग में महल, झरना, मस्जिद और गर्मी में हवाखोरी के लिए लॉज सहित फूलों और फलों का बगीचा लगवाया था। यहां एक खूबसूरत मस्जिद और एक चबूतरा भी था। इस चबूतरे पर बैठकर यमुना नदी की खूबसूरती को निहारा जा सकता था। यमुना नदी की ओर दो मीनारें और पत्थरों की चौरस छत भी बनवायी गई थी। ऐसा कहा जाता है कि इस बगीचे के चारो तरफ एक दीवार थी जो कि वर्ष 1857 की आजादी की लड़ाई में टूट गई।

“द सेवन सिटीज ऑफ़ दिल्ली” के लेखक गॉर्डन रिसले हेअर्न के अनुसार, वर्ष 1857 तक कुदसिया बाग एक चारदीवारी वाला बाग था, जिसमें से अब केवल दरवाजा, कोने में बनी एक मीनार और दीवारों के अवशेष बचे हैं। दरवाजे के सामने घरों से घिरा एक गलियारा था, जिसकी आड़ में सैनिकों के लिए चार नंबर बैटरी (तोपखाना) बनाई गई थी। इसी के ऊपर से विद्रोहियों (1857 की आजादी की लड़ाई के सैनिक) ने एक रात घनघोर गोलीबारी की थी। बंगाल इंजीनियर के कैप्टेन टेलर के प्रस्ताव के अनुसार, बाग की चारदीवारी के पीछे तोपखाने की जगह बनाने के लिए संतरे और नींबू के पेड़ हटाए गए, जिससे गोलीबारी करने के लिए जगह बनाई जा सकें।

आज अपने वर्तमान स्वरूप में यह बगीचा विभिन्न विदेशी यात्रियों सहित ईस्ट इंडिया कंपनी के कारिंदों के शुरुआती विवरणों के अनुरूप नहीं नज़र आता है। मुगल दरबार में कंपनी का एजेंट, सर थॉमस मेटकाफ ने एक शानदार महल के साथ बगीचे का एक विस्तृत चित्र (स्केच) तैयार किया था जो कि अब इंग्लैंड की ब्रिटिश लाइब्रेरी में संगृहीत है। यह बाग अपने सुनहरे दिनों में, यूरोप के किसी भी समकालीन महल वाले बागों की टक्कर वाला था, जिसके भव्य भवन, बगीचे, फव्वारे और पानी की नालियां फारस की स्वर्ग की अवधारणा के आवश्यक तत्व के अनुरूप निर्मित थे।

मुगल साम्राज्य के पतन और वर्ष 1857 में हुई देश की आज़ादी की पहली लड़ाई में अंग्रेजों के साथ सैन्य संघर्ष के बाद यह स्वर्गिक बाग भी मुरझाता गया। देश की आजादी के समय यह बाग सिमटकर 50 एकड़ जमीन का रह गया और अब पिछले 68 वर्षों में कश्मीरी गेट आईएसबीटी और मेट्रो रेल के रूप में शहरी विकास के कारण 30 एकड़ जमीन और सिकुड़ गई है। आज मस्जिद का कुछ भाग ही शेष बचा है, शेष सब नष्ट हो चुका है। हालत यह है कि नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक ने वर्ष 2013 की अपनी एक रिपोर्ट (संख्या 18) में भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण वर्ष 1971 से अभी तक कुदसिया बाग में दो ‘घेराबंदी वाली तोपों के स्थल’ खोजने में असफल रहने के बिंदु को रेखांकित किया था।
आज यह ऐतिहासिक बाग जिस रूप में हैं, यदि समय रहते ध्यान न दिया गया तो इनकी उपस्थिति मात्र इतिहास की पुस्तकों में ही देखी जा सकेगी।

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