कविता

बाल कविता : दुश्मन को कभी मित्र  न मानो

मिली कही तुलसी की माला,

लेकर उसे गले में डाला।

तन पर अपने राख लगाई,

बैरागी सा रूप बनाया।

बिल्ली चली प्रयाग नहाने,

चूहो से बोली,ए प्यारो,

मैने किए हजारों पाप,

तुमको दिए कितने संताप,

कर उन सब पापो का ख्याल,

मैने छोड़ा ये जग जंगाल,

अब जाती हूं तीर्थ करने,

राम राम रट कर मरने।

चूहो न किया सोच विचार,

सत्तू बांध हुए वे तैयार,

ज्योहि बिल्ली पहुंची पुल के पास,

बिल्ली करने लगी उनका नाश।

ले ले उनको खूब चबाने,

दोनो कूल्हे लगी मटकाने।

दुश्मन को कभी मित्र न मानो,

उसका कहा कभी मत मानो।।

आर के रस्तोगी