काल चिंतन के चितेरे : राजेंद्र अवस्थी

0
1072

अनिल अनूप

वर्ष 2009 के आखिरी महीने के लगभग आखिरी दिन, 30 दिसंबर को कैसे भुलाया जा सकता है, जब देश के अत्यंत लोकप्रिय एवं चिंतनशील साहित्यकार, पत्रकार तथा संपादक राजेंद्र अवस्थी का निधन हो गया था। उनके निधन की खबर बुद्धिजीवी पाठकों को निराश करने वाली थी, क्योंकि श्रेष्ठ साहित्यिक-दार्शनिक रचनाओं के पिपासु सुधी पाठकों की प्यास कादंबिनी पत्रिका के कुशल संपादक एवं सशक्त रचनाकार राजेंद्र अवस्थी ही बुझा सकते थे, जिनकी लेखनी उत्कृष्ट साहित्यिक रचनाओं की तो जन्मदात्री थी ही, गंभीर दार्शनिक चिंतनधारा की निर्मल स्रोतस्विनी भी थी।

मध्यप्रदेश के गढ़ा जबलपुर में 25 जनवरी,1930 को जन्मे राजेंद्र अवस्थी नवभारत, सारिका, नंदन, साप्ताहिक हिन्दुस्तान और कादम्बिनी के संपादक रहे। उन्होंने अनेक उपन्यासों, कहानियों एवं कविताओं की रचना की। वे ऑर्थर गिल्ड ऑफ इंडिया के अध्यक्ष भी रहे।

नई कहानी धारा के लेखकों में ख्यात राजेंद्र अवस्थी ने ‘लमसेना’ जैसी कहानियां लिखकर हिंदी कहानी को एक ऐसे लोक से परिचित कराने के साथ किया जिसका लोक जीवन दुनिया के लिए विस्मय की चीज़ बना। बस्तर के आदिवासी क्षेत्रों का वह लोक समुदाय नृवंशशास्त्रीय समाजशास्त्रीय, फिल्मकारों और रंगकर्मियों के लिए भी एक उर्वर भूमि बना। इसी समकाल में वैरियर एल्विन के अध्ययन और फिर इन अछूते क्षेत्रों में शिक्षा, सामुदायिक किस्म के प्रजातांत्रिक कार्यक्रम इस तेजी से चलने लगे कि राजेंद्र अवस्थी आदिवासी आंचलिक कथाकार के रूप में विख्यात होने लगे।

पत्रकार के रूप में नागपुर के नवभारत से यात्रा करनेवाले राजेंद्र अवस्थी का दूसरा पड़ाव उस काल का बंबई और आज का मुंबई बना। हिंदी की बहुचर्चित कथापत्रिका सारिका के संपादन से राजेंद्र अवस्थी का जुड़ाव हुआ और बाद में वे दिल्ली चले आए। उस काल के प्रसिद्ध साहित्यकारों से उनके घने संबंध बने। धर्मयुग के संपादक और कथाकार धर्मवीर भारती ने ‘कथादशक’ की योजना द्वारा नई कहानी को लोकप्रियता के शिखर पर पहुंचाने का कार्य किया। राजेंद्र अवस्थी का ‘मछली बाज़ार’ उपन्यास मुंबई पर दूसरा उपन्यास था जिसने हिंदी जगत का ध्यान अपनी ओर खींचा। इस बीच राजेंद्र अवस्थी दिल्ली आ गए और बच्चों की पत्रिका के संपादन के बाद कादम्बिनी का संपादन संभाला। इस दौरान राजेंद्र अवस्थी देश-विदेश के साहित्य को देशी और विदेशी अनुवादकों के सहारे अपने स्तर पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित करवाते रहे।

राजेंद्र अवस्थी लेखकों की भारतीय संस्था आथर्स गिल्ड ऑफ इंडिया से जुड़े और विनोदपूर्वक लोग टिप्पणी करते रहे कि उन्होंने उसे जेबी संस्था बना डाला किंतु श्रीमान केकर, डॉ कर्ण सिंह, डॉ लक्ष्मीमल्ल सिंघवी जैसी हस्तियों को उन्होंने भारतीय लेखकों की शीर्ष संस्था से जोड़े रखा। आजकल प्रसिद्ध समाजसेवी डॉ बिंदेश्वर पाठक इससे जुड़े हुए हैं। राजेंद्र अवस्थी की अपनी प्रकृति भारत को उसके अछूते पक्षों की मार्फत जानने की जिस रूप में विकसित हुई, आज उस पर बहस की जा सकती है। परंतु अब तक वैज्ञानिक आधारों पर न तौले गए पक्षों को उन्होंने अपनी पत्रिका में जगह दी। कभी कभी उन्होंने झूठे दावेदारों का पर्दाफाश भी किया परंतु उनकी छवि तंत्र-मंत्र के विषम जाल को जनोन्मुख बनाने वाले संपादक के रूप में निर्मित हो गई।

राजेंद्र अवस्थी भरसक उस मिथक को तोड़ने की कोशिश करते रहे किंतु वे एक ऐसे अभिनेता के रूप में विख्यात हो गए जो अपने एक आदर्श चरित्र के रूप में ढल जाता है। इन पंक्तियों के लेखक को राजेंद्र अवस्थी के साथ देश-विदेश में एक साथ जाने का मौका मिला और उस दौरान विलक्षण किस्म के अनुभव हुए। पहला तो यही कि जब अवस्थी जी से कहा जाता कि ‘मित्रवर अगर आपके चार प्रशंसक हैं तो चार हज़ार आलोचक भी हैं।’ तो वे उत्तर देते ‘नाम लेने वाले चार हजार चार’ लोग तो हैं।

आंकड़ों की इस दुनिया में वे अपने ढंग के खिलाड़ी थे। एक बार जब लक्ष्मीमल्ल सिंघवी, जो लंदन में उच्चयुक्त थे, के आमंत्रण पर हम वहां थे तो एक रात अपने ठिकाने की दिशा भूल गए थे। उच्चयोग का विदेशी ड्राइवर पता नहीं खोज पाया तो अवस्थी जी ने कहा अरे वह वही जगह है जहां इक्यावन कारें बिक्री के लिए खड़ी थीं। अचरज नहीं होना चाहिए कि विदेशी ड्राइवर हमें उसी स्थान पर ले आया। अंकों, आंकड़ों और ज्योतिष की गणनाओं में रुचि रखने वाले अवस्थी दूसरी बहुतेरी चीजों में दिलचस्पी रखते थे किन्तु सबसे ज्यादा लगाव उन्हें शब्दों से था। उनका ‘काल चिंतन’ इस दृष्टि से गद्य का एक अनुपम लेखन है।

संपादक रहते हुए राजेंद्र अवस्थी ने कादंबिनी के अनेक ऐसे अनूठे एवं अद्भुत विशेषांक छापे, जिन्हें प्रतिष्ठित पुस्तकों की भांति सुधी पाठक अपने निजी पुस्तकालयों की शोभा बनाकर रखने में गौरव का अनुभव करते थे। साहित्यिक पत्रकारिता के इतिहास में यदि किसी पत्र-पत्रिका ने रिडर्स डाइजेस्ट की अत्यंत लोकप्रिय रही ‘सर्वोत्तम’ पत्रिका को न केवल बिक्री बल्कि लोकप्रियता के मापदंड पर भी टक्कर दी तो वह कोई और नहीं, बल्कि ‘कादंबिनी’ पत्रिका ही थी। अवस्थी जी के संपादन में उस पत्रिका ने बिक्री के सारे रिकॉर्ड ध्वस्त कर दिए थे, जबकि उन दिनों भी आज की तरह ही पत्रिकाओं की भीड़ में किसी उत्कृष्ट साहित्यिक पत्रिका को टिके रहना अत्यंत कठिन होता था। गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा के उस दौर में कादंबिनी यदि फलती-फूलती रही तो इसका श्रेय अवस्थी जी की करिश्माई लेखनी को ही जाता है। कालांतर में कादंबिनी की लोकप्रियता में थोड़ी कमी अवश्य आई, हालांकि तब अपेक्षाकृत अन्य पत्रिकाओं की बिक्री भी कम हुई थी, परंतु अवस्थी जी ने कादंबिनी की गुणवत्ता में कभी कोई कमी नहीं आने दी। इसीलिए उनके संपादन में वह साहित्यिक पत्रकारिता का प्रतिमान बनी रही।

कादंबिनी के अतिरिक्त उन्होंने साप्ताहिक हिंदुस्तान, सरिता तथा नंदन जैसी प्रसिद्ध पत्रिकाओं को भी अपनी लेखन-संपादन कला से संवारने का कार्य किया था। यह उनके कुशल संपादन तथा दूरदर्शी सोच का ही परिणाम था कि रहस्य, रोमांच, भूत-प्रेत, आत्माओं, रत्न-जवाहिरात, तंत्र-मंत्र-यंत्र एवं कापालिक सिद्धियों इत्यादि जैसे साहित्यकारों के लिए प्रायः अछूत माने जाने वाले विषयों को भी उन्होंने गहन पड़ताल, अनूठे विश्लेषण एवं अद्भुत तार्किकता के साथ प्रस्तुत कर कादंबिनी के अंकों को लोकप्रियता की पराकाष्ठा पर पहुंचा दिया था। यही कारण था कि कादंबिनी के अंकों के बाजार में आने की प्रतीक्षा पाठकों को वैसे ही रहती थी, जैसे पर्व-त्योहारों में बच्चों को प्रायः उपहारों की प्रतीक्षा रहती है। इस प्रकार अवस्थी जी ने अपने लेखन-संपादन के माध्यम से देश-दुनिया के तमाम हिंदीभाषियों के बीच अपना एक विशेष पाठक वर्ग तैयार कर लिया था।

उनके उपन्यासों में सूरज किरण की छाँव, जंगल के फूल, जाने कितनी आँखें, बीमार शहर, अकेली आवाज और मछली बाजार शामिल हैं। मकड़ी के जाले, दो जोड़ी आँखें, मेरी प्रिय कहानियाँ और उतरते ज्वार की सीपियाँ, एक औरत से इंटरव्यू और दोस्तों की दुनिया उनके कविता संग्रह हैं जबकि उन्होंने जंगल से शहर तक नाम से यात्रा वृतांत भी लिखा है। वे विश्व-यात्री हैं। दुनिया का कोई ऐसा देश नहीं जहाँ अनेक बार वे न गए हों। वहाँ के सांस्कृतिक और सामाजिक जीवन के साथ उनका पूरा समन्वय रहा है। कथाकार और पत्रकार होने के साथ ही उन्होंने सांस्कृतिक राजनीति तथा सामयिक विषयों पर भी भरपूर लिखा है। अनेक दैनिक समाचार-पत्रों तथा पत्रिकाओं में उनके लेख प्रमुखता से छपते रहे। उनकी बेबाक टिप्पणियाँ अनेक बार आक्रोश और विवाद को भी जन्म देती रहीं लेकिन अवस्थी जी कभी भी अपनी बात कहने से नहीं चूके।

अवस्थी जी ने एक विश्वयात्री की भांति विश्व के अधिकतम देशों की यात्रा की थी। एक कहानीकार तथा पत्रकार होने के अतिरिक्त उन्होंने सांस्कृतिक, राजनीतिक तथा सामयिक विषयों पर भी भरपूर लिखा। उनकी साठ से अधिक प्रकाशित पुस्तकों में उपन्यास, कहानी, निबंध एवं यात्रा-वृत्तांत शामिल हैं।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

17,026 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress