ईसाई समाज की बदलती सोच

आर एल फ्रांसिस

पिछले एक दशक से ईसाई मिशनरियों और हिन्दू संगठनों के बीच धर्मांतरण को लेकर चली आ रही कड़वाहट का सबसे ज्यादा नुकसान ईसाई समुदाय को उठाना पड़ा है। चर्च नेतृत्व ने इन्हें अपने रक्षा कवच की तरह इस्तेमाल करते हुए तमाम मुश्किलों के बीच में भी अपने विस्तार की रफतार को ढीला नही होने दिया है। विदेशी अनुदान के सहारे देश के विभिन्न राज्यों में नयें चर्च बनाने, कान्वेंट स्कूल खोलने का सिलसिला भी तेज हुआ है। पिछले एक दशक के दौरान चर्च ने विदेशी पैसे की मदद से सैकड़ों की तदाद में अपने मीडिया कमीशन खड़े कर लिये है जिनका कार्य चर्च गतिविधियों पर आने वाले किसी भी संकट के समय मामले को राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय स्तर पर तूल देने का है।

चर्च द्वारा धर्मांतरण के कार्यो को लगातार बढ़ावा देने के कारण कर्नाटक,उड़ीशा,आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, छतीसगढ़, राजस्थान, महाराष्ट्र आदि राज्यों में उसका टकराव धर्मांतरण विरोधी ताकतों के साथ लगातार बढ़ है। इन टकरावो के चलते ईसाई समुदाय के चर्च पदाधिकारियों के सामने उठाये जाने वाले महत्वपूर्ण मुद्दे दबते चले आ रहे है। पूरी तरह व्यपारिक हो चुके चर्च के लिए यह बड़ी सुहावनी स्थिति है। किसी कान्वेंट स्कूल में किसी प्रशासनिक धांधली को लेकर स्कूल प्रशासन और अभिभाविकों के बीच कोई टकराव हो जाये तो उसे आज के समय में मीडिया के सहयोग से ‘ईसाइयत पर हमला’ बनाने में चर्च नेतृत्व को एक पल भी नही लगता। हाथों में बैनर लिये वह उन ईसाइयों के विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व करता है जिनके बच्चों के लिए ऐसे अल्पसंख्यक स्कूलों में स्थान ही नही होता।

मुठ्ठीभर पादरियों की यह टीम ईसाई समुदाय के साथ साथ सरकार को भी अपनी स्वार्थपूर्ति हेतू नचा रही है। अपने विशेष अधिकारों की आड़ में अकूत संपत्ति और संसाधनों पर कब्जा जमाये यह लोग धर्मांतरण के नाम पर देश में अस्थिरता पैदा करने में भी पीछे नही है। अच्छी खबर यह है कि ईसाई समुदाय धीरे-धीरे चर्च की कूटनीति को समझने लगा है और अब ईसाइयों के अंदर से अपने अधिकारों की अवाज उठनी लगी है।

कर्नाटक की राजधानी मंगलौर में ईसाई समुदाय की हुई एक बैठक में चर्च नेतृत्व पर इस बात के लिये दबाब बनाने का निर्णय लिया गया कि वह ईसाई समुदाय को चर्च द्वारा संचालित संस्थानों में उचित भागीदारी दें। बैठक को सम्बोधित करते हुए कर्नाटक उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायधीश माइकल एफ सलदना ने कहा कि चर्चो के नीतिगत फैसले लेने में केवल 1.3 प्रतिशत कर्लजी वर्ग का दबाव है और 98.7 प्रतिशत लेइटी का कोई रोल ही नही है। पूर्व न्यायाधीश ने इस बात पर चिंता जाहिर की कि चर्च नेतृत्व चर्च संपतियों की बड़े पैमाने पर खरीद-ब्रिक्री करने में लगा हुआ है और अकेले मंगलौर में ही पिछले एक दशक के दौरान चर्च नेताओं ने तकरीबन दो अरब रुपये की चर्च संपतियों को बेच दिया है और वह पैसा कहा गया इसका समाज को कोई जानकारी नही है। बैठक में कहा गया कि भारत में 7 हजार ऐसे चर्च है जहां प्रत्येक चर्च में प्रति वर्ष 2.5 मिलीयन रुपये इक्कठा होते है चर्चो में इक्कठे होने वाले इन करोड़ों-अरबों रुपयों को गरीब ईसाइयों के विकास पर खर्च किया जाये।

वर्ष 2002 में देश की राजधानी दिल्ली में ‘पुअर क्रिश्चियन लिबरेशन मूवमेंट’ ने दलित ईसाइयों के विकास के लिए कैथोलिक बिशप काफ्रेंस ऑफ इंडिया एवं नैशनल कौंसिल चर्चेज फॉर इंडिया के सामने दस सूत्री कार्यक्रम रखा था। जिसमें चर्च संस्थानों में समुदाय की भागीदारी, धर्मपरिवर्तन पर रोक, विदेशी अनुदान में पारर्दिशता, बिशपों का चुनाव वेटिकन/पोप की जगह समुदाय द्वारा करने, चर्च संपतियों की रक्षा हेतू एक बोर्ड बनाने जैसे मुद्दे उठाये गये थे। जिसे चर्च नेतृत्व ने अपनी कुटिलता से दबा दिया था। मूवमेंट के कार्यकर्ता ईसाई समाज में जन-चेतना फैलाने के अपने कार्य में लगे रहे हैं और इसी का परिणाम है कि आज सबसे शक्तिशाली माने जाने वाले रोमन कैथोलिक चर्च में भी आम ईसाइयों के अधिकारों की बात उठने लगी है।

कर्नाटक उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायधीश माइकल एफ सलदना का चर्च नेतृत्व पर काफी प्रभाव है हालही के दिनों में उन्होंने कर्नाटक सरकार द्वारा गठित सोमशेखर कमीशन की रिर्पोट आने के बाद चर्चो पर हुए हमलों के संबध में अपनी एक रिर्पोट बनाकर वेटिकन के दिल्ली स्थित राजदूत Apostolic Nuncio Archbishop Salvatore Pennacchio को दी है। अब वह चर्च के अंदर लेइटी के अधिकारों की वकालत भी कर रहे है। लेकिन इसके लिए एक स्पष्ट नीति बनाने की जरुरत है। भारत सरकार के बाद चर्च दूसरा संयुक्त ढांचा है जिसके के पास भूमि और अन्य संसाधनों का विशाल भंडार है लेकिन आज उसे कुछ मुठृठीभर कलर्जी प्रईवेट कम्पनियों की तर्ज पर मुनाफा देने वाले संस्थान की तरह चला रहे है। अगर ऐसा न होता तो आज 30 प्रतिशत शिक्षा में भागीदारी करने वाले समुदाय के 40 प्रतिशत से भी ज्यादा अबादी निराक्षर नही होती।

वर्ष 2008 में ईसाई समुदाय के अंदर से चर्च संपतियों को बचाने के लिए एक राष्ट्रीय बोर्ड/एजेंसी बनाने की बात उठने लगी। पहली बार मूवमेंट ने इस मामले पर केन्द्र सरकार से दखल देने की मांग की। मध्य प्रदेश राज्य अल्पसंख्यक आयोग ने ऐसे ही एक प्रस्ताव पर कार्य शुरु किया बौखलाए चर्च नेतृत्व ने प्रस्ताव के समर्थक ईसाई सदस्य अन्नद बनार्ड के सामाजिक बहिष्कार का ऐलान कर दिया। 28 जुलाई 2009 को कैथोलिक चर्च ने पणजी -गोवा में ले-लीडर की मोजूदगी में इस मुद्दे पर चर्चा शुरु की। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायधीश श्री के.टी.थोमस, पूर्व मंत्री एडवड फलेरो, ईसाई चिंतक जोजफ पुलिकलेल आदि वक्ताओं ने सरकारी भागीदारी वाले एक बोर्ड का समर्थन किया। जिसे चर्च नेतृत्व ने ठुकरा दिया हालांकि कई पश्चिमी देशों में वहा की सरकारे चर्च संपतियों में अपना हस्तक्षेप रखती है।

भारत का चर्च न तो चर्च संसाधनों पर अपनी पकड़ ढीली करना चाहता है और न ही वह वेटिकन और अन्य पश्चिमी देशों का मोह त्यागना चाहता है। विशाल संसाधनों से लैस चर्च अपने अनुयायियों की स्थिति से पल्ला झाड़ते हुए उन्हें सरकार की दया पर छोड़ना चाहता है। रंगनाथ मिश्र आयोग इसकी एक झलक मात्र है।

समय आ गया है कि ईसाई बुद्धिजीवी अपनी सोच में बदलाव करे और समाज के सामने जो गंभीर चुनौतियाँ है उन पर बहस शुरु की जाए। धर्मांतरण/ धर्म प्रचार के तरीके, छोटी-छोटी समास्याओं के लिए पश्चिमी देशों पर निर्भरता, लगातार दयनीय होती दलित ईसाइयों की स्थिति, चर्च संगठनों में जड़ तक फैला भ्रष्टाचार और उसके समाधान के लिए चर्च लोकपाल बनाने, ईसाइयत में बढ़ता जातिवाद, दूसरे धर्मो के अनुयायियों के साथ खराब होते रिशते, एक ही राजनीतिक पार्टी के प्रति वफादारी और बिशपों के चुनाव में वेटिकन के प्रभाव को कम करने जैसे मामलों पर खुलकर चर्चा करने की जरुरत है। ईसाइयों को चर्च राजनीति की दड़बाई (घंटों) रेत से अपना सिर निकालना होगा और अपने ही नही देश और समाज के सामने जो खतरे है, उनसे भी दो चार होना पड़ेगा। जब तक ईसाई देश में चलने वाली लोकतांत्रिक शक्तियों से अपने को नहीं जोड़ेगे तथा उसमें उनकी सक्रिय भागीदारी नही होगी, तब तक उनका अस्तित्व खतरे में रहेगा। ईसाइयों को धर्म और सामाजिक जिम्मेदारियों के प्रति एक स्पष्ट समझ बनाने की आवश्यकता है। तभी ही वह विकास की सीढ़िया चढ़ पाएंगे।

2 COMMENTS

  1. गरीब ईसाईयों के अन्दर उठ रही आवाज़ तीन दशक पूर्व पश्चिमी देशों में उभरी लिबेराशन थओलोजी का देसी संस्करण है.इस सम्बन्ध में आज भी डॉ. म.बी. नियोगी aayog की रिपोर्ट प्रासंगिक है.यहाँ उभर रहे गरीब समर्थक चर्च स्वरों को पश्चिम में पनपे ऐसे आन्दोलन के परिप्रेक्ष्य में देखना उचित होगा.जल्दबाजी में किसी नतीजे पर पहुँचना अनुचित होगा.अधिकतर गरीब ईसाई सम्रद्धि के लालसा से ही ईसाई बने हैं. लेकिन कुछ प्रभावशाली लोगों ने sari संपत्ति पर कब्ज़ा किया हुआ है. और गरीबों के उद्धार का जिम्मा सर्कार के भरोसे छोड़ दिया गया है. इसाईयत को जातिविहीन समता वादी समाज के रूप में निरुपित करके गरीबों का धर्मान्तरण कराया जाता है लेकिन वहां भी जातिवाद और असमानता की बात मौजूद है.अतः वहां भी आरक्षण की मांग उठाई जाती है.भारत को जल्दी से जल्दी इसाईयत के झंडे के नीचे laane के लिए वर्ल्ड चर्च कौंसिल लगातार प्रयास करती रहती है.विभिन्न रास्तों से आ रहा विदेशी धन भी इसमें बड़ी भूमिका निभा रहा है.इसके सुरक्षा प्रभावों का अध्ययन किया जाना आवश्यक है.अस्सी के दशक में एक पादरी ने अपना चोगा उतार कर गेरुआ पहन कर अपना नाम हिन्दू संतों की भांति प्रभु रख लिया और महाराष्ट्र व मध्य प्रदेश के जनजातीय समुदायों के बीच काम शुरू किया गया.फिर उनकी काल्पनिक समस्याओं को लेकर सर्वोच्च न्यायालय में जन हित याचिका लगा दी गयी. इस सम्बन्ध में सारे तथ्य संज्ञान में आने पर मेरे द्वारा तत्कालीन भारत के मुख्या न्यायाधीश महोदय को अख़बारों की कटिंग के साथ पत्र लिखा गया. उसके बाद उस जन हित याचिका का कुछ पता नहीं चला.प्रत्येक जागरूक नागरिक को किसी भी घटना पर उसकी बाहरी रूप पर न जा कर समग्रता में विचार और छानबीन करनी चाहिए.

  2. इश्वर करे की इसाई मिशनरी , चर्च दुसरो का बुरा करने की बजाय अपने भले की सोचे जिनका धर्मान्तरण करवा लिया है उनके विकास पर ध्यान दे न की आगे और धर्मान्तरण करवाने पर

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