तन्त्र से मुकाबला

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संस्मरण

Lawहमारा शहर एक कस्बानुमा जिला मुख्यालय था। इस जिले को बने अभी कुछ ही साल हुए थे। अभी विभिन्न सरकारी  विभागों का अस्तित्व में आना चल ही रहा था। I

 मैं  नगर के प्रतिष्ठित कॉलेज में व्याख्याता था। हमलोग प्रोफेसर साहब कहे जाते थे। एक सुबह मैं नहाने के लिए प्रस्तुत हो रहा था, तभी मेरे चौदह साल की उम्र के बेटे ने मुझसे पूछा कि क्या मैं उसी मोहल्ले में रहनेवाले एक मैजिस्ट्रेट को जानता हूँ। मैंने वजह जाननी चाही तो उसने बतलाया कि वह अपने साथी के साथ उसके घर से आ रहा था तो पड़ोस के एक व्यक्ति ने उसके साथी को बुलाया। वह भी उसके साथ गया तो मैजिस्ट्रेट साहब ने  उसे गाली दी। मैंने उससे वजह पूछी तो उसने कहा कि बस अपने साथी के साथ जाने के कारण ही। मुझे लगा कि कहीं कोई गलतफहमी है , कोई जिम्मेदार व्यक्ति बिना वजह किसी लड़के को गाली नहीं दे सकता। इसलिए मैं अपने बेटे के साथ उस व्यक्ति से मिलने गया ताकि गलतफहमी दूर की जा सके। हम उनके आवास पर पहुँचे तो पाया कि घर के बाहरी कमरे में दो युवा व्यक्ति बैठे हुए थे। मेरे बेटे ने उनमें से एक की ओर इशारा कर पहचान बताई। मैंने बाकायदा अन्दर प्रवेश करने की अनुमति चाही और फिर उनसे पूछा कि क्या मेरे बेटे से उनको कोई शिकायत है। इसपर उन्होंने तमक कर  कहा कि आप अपने बेटे को सँभालिए। तब मैंने उनसे कहा कि आपको बात करने की तमीज नहीं है। बस मैजिस्ट्रेट साहब आपे से बाहर हो ऊँटपटाँग बकने लगे। मैं हक्काबक्का हो गया कि आखिर मैंने क्या कहा कि वे सामान्य भद्रता भूल गए। एक जवाब मन में सूझा कि शायद तमीज शब्द ने उन्हें भड़का दिया क्योंकि हमलोग सामान्यतः बदतमीज में ही तमीज का प्रयोग करते हैं।  उन्होंने उसी क्रम में मुझे धमकी दी कि ऐरेस्ट करवा दूँगा। बाद में मुझे जानकारी हुई कि वे जुडिसियल मैजिस्ट्रेट के पद पर नियुक्त थे। मैंने भी कुछ जवाब दिया कि देख लीजिएगा वगैरह और बेटे के साथ अपने आवास पर चला आया। फिर नहाकर नाश्ता कर कॉलेज गया और बेटा अपने स्कूल।

जैसा शुरु में बतलाया गया है कि जिला स्थापित हुए अभी कुछ ही साल हुए थे और अधिकारियों के आवास के लिए  मकान अभी नहीं बने थे। इसलिए अधिकतर अधिकारी शहर के मोहल्लों में किराए के मकानों में रहते थे। जिला न्यायाधीश का पद अभी सृजित नहीं हुआ था और सीजेएम ही स्थानीय सर्वोच्च न्यायिक पदाधिकारी थे। कॉलेज में मैंने अपने विभागीय कक्ष में सहकर्मियों के बीच इस घटना की चर्चा की। मेरे एक सहकर्मी स्थानीय न्यायपालिका के तत्कालीन वरिष्ठतम पदाधिकारी सीजेएम के पड़ोसी  थे। वे सीजेएम साहब के प्रशंसक भी थे। हमने उनसे कहा कि वे सीजेएम साहब से इस घटना की चर्चा करें। यह भी तय हुआ कि शाम को हम कई लोग उनके आवास पर मिलकर आगे के कदम की बात करेंगे। शाम को जब हम इकट्ठा हुए तो हमारे सहकर्मी मित्र ने बताया कि सीजेएम साहब ने उनसे अपनी ही पहल पर चर्चा की और बताया कि उस न्यायिक मैजिस्ट्रेट ने सचमुच मामला दायर कर दिया है और अपने कई साथियों के साथ उनपर गिरफ्तारी का परवाना जारी करने का दबाव डाल रहा था । उन्होंने यह सोचकर स्थगित किया कि अपने तईं पता कर लें, क्योंकि मामला कॉलेज के प्रोफेसर से सम्बन्धित है। सीजेएम साहब ने अपने पड़ोसी से मेरे सम्बन्ध में जानना चाहा कि गंगानन्द झा किस प्रकार के व्यक्ति हैं और क्या मैं वैसा कर सकता हूँ कि नहीं। हमने सारी बातें सुनकर सीजेएम साहब से मिलना तय किया । हमारे मित्र ने उनसे मिलकर इस प्रस्ताव पर उनकी सहमति ली और फिर हम मिले। मैंने उन्हें घटना का विवरण दिया और प्रस्ताव दिया कि अगर वे सहमत हों तो मैं अगले दिन अपने बेटे को उनके आवास पर भेज दूँ ताकि वे अकेले में में उससे जिरह कर खुद आश्वस्त हो जाएँ।  वे राजी हो गए। उन्होंने कहा कि पढ़ेलिखे लोगों के बीच का मामला है, आपस में बातचीत कर निपटा लिया जा सकता है। बातचीत  में पता चला कि मुकदमा मैजिस्ट्रेट के चपरासी  की ओर से दायर किया गया है। उसका दावा था कि उसके साहब कमरे में बैठकर सरकारी  फाइल देख रहे थे, तभी मैं चपरासी के मना करने के बावजूद उसको धक्का देकर कमरे में घुस गया और उसके साहब से झगड़ने लगा। उन्होंने मुझे आश्वस्त करना चाहा कि वारंट जारी नहीं किया जाएगा और बातचीत से मामला सुलझा लिया जाएगा। मैंने उनसे पूछा कि झूठे मुकदमे का संज्ञान कैसे लिया गया। इसपर उन्होंने दबी आवाज में कहा कि विभागीय पदाधिकारी जब संलग्न हों तो इनकार करना कठिन हो जाता है। । यह भी पता चला कि स्थानीय न्यायपालिका के सारे पदाधिकारियों को लामबन्द किया गया था। कहा गया था कि प्रोफेसर साहब ने धमकी दी है कि विद्यार्थियों को उकसाकर उनपर हमला करा दिया जाएगा। मैंने झूठा केस दायर करने और न्यायपालिका की उज्जवल एवम् विशिष्ट छवि के दावे के प्रति उनकी निष्ठा की बात उठाई । सीजेएम साहब ने मुझे कहा कि जब भी केस किया जाता है तो कुछ झूठ का जोड़ा जाना आम बात है, आप भी मामला करेंगे तो ऐसा ही करेंगे। मैंने कहा कि मैं कदापि  झूठा मुकदमा नहीं करूँगा। मैंने इसपर कहा कि फिर न्यायपालिका के दावों का क्या कहा जाए। सीजेएम साहब ने कोई जवाब नहीं दिया। मैंने उन्हें कहा कि अगर समन भी जारी हुआ तो बातचीत का कोई सवाल नहीं रहेगा। अलबत्ता झूठा मामला उन्होंने अपने मन से दायर किया है तो उसे वापस लेने में मेरी क्या प्रासंगिकता हो सकती है। जैसे मुकदमा दायर किया गया है उसी तरह वापस ले लिया जाए। सीजेएम साहब ने धीरज पूर्वक बातें सुनी और मेरे बेटे से मिलने को सहमत हुए। दूसरी सुबह मैंने अपने बेटे को अपने सहकर्मी मित्र के पास भेज दिया । वे सीजेएम साहब के पास उनके आवास पर उसे ले गए। सीजेएम साहब ने अकेले में उस चौदह साल के लड़के से बहुत विस्तार में पूछताछ किया।  इसके बाद न ऐरेस्ट वारंट जारी हुआ न ही कोई पेशी का समन। लेकिन मुकदमा लगा रहा।

समझ थी कि इनलोगों का इरादा मुझे परेशान करने का है, इसलिए मैंने तय कर लिया था कि मेरे आचरण से कहीं भी परेशानी नहीं झलकनी चाहिए। मैं कभी कोर्ट  परिसर में ही नहीं जाउँगा।  इस मुकदमे में किसी प्रकार की दिलचस्पी नहीं दिखलाउँगा। मेरा यह रुख सही प्रमाणित हुआ क्योंकि    वकालत के पेशे में मेरे बहुत सारे मित्र और भूतपूर्व विद्यार्थी के रहने के बावजूद  मुझे उनलोगों के सूत्र से मालूम हुआ कि मुझे अपने मामले की पैरवी करने के लिए एक भी वकील उपलब्ध नहीं होगा। विपिन बाबू सज्जन व्यक्ति थे, मुझे उनका स्नेह प्राप्त था, वे अपवाद प्रमाणित हुए,उन्होंने मुझे आश्वस्त किया कि मैं आपका मुकदमा लड़ुँगा। मैंने उनसे कहा, वकील साहब, आपके पेशे के दूसरे लोग जब मुँह छिपा रहे हैं तो इसका मतलब है कि मेरा साथ देने से पेशे में हानि की आशंका है, इसलिए मैं आपको भी परेशान नहीं करना चाहूँगा। मैं मुकदमा लड़ने के रास्ते पर जाउँगा ही नहीं।

मेरी रणनीति कुछ पूर्वधारणाओं पर आधारित थी। इन्हें खुशफहमी या गलतफहमी कहा जाए तो बहुत गलत नहीं होगा। एक, मैंने सुना था कि हाईकोर्ट का प्रशासन अपने अधिकारियों के उपर सख्त निगरानी रखता है और उनके आचरण के सम्बन्ध में किसी भी शिकायत का निश्चित संज्ञान लिया जाता है तथा निष्पक्ष कार्रवाई की जाती है। न्यायपालिका की छवि के प्रति उच्च न्यायालय का प्रशासन पूरी तरह सतर्क रहता है। दूसरा, पटना हाईकोर्ट के प्रशासनिक न्यायाधीश के दामाद डॉ रामगोपाल सिंह मुझे अपने बड़े भाई जैसा सम्मान और स्नेह देता था। मेरी समझ थी कि मेरा एक पोस्टकार्ड ही उसके लिए काफी होगा अपने ससुर के पास जाकर मेरे मामले को उनके ध्यान में लाने के लिए। लेकिन मैंने उसे अन्तिम क्षण में ही लिखने का फैसला कर रखा था. क्योंकि मैं समझता था कि अगर मेरी शिकायत पर हाईकोर्ट की कार्ऱवाई से मैजिस्ट्रेट की नौकरी खतरे में पड़े और तब वे लोग मुझे अपनी शिकायत वापस लेने को कहें तो मुश्किल होगी। मैं नहीं चाहता था कि किसीकी नौकरी पर मेरी वजह से खतरा हो और न ही मुझे अपना बयान वापस लेना पड़े। आज सोचता हूँ कि यह निर्णय मेरे लिए बड़ा सही रहा क्योंकि ऐसा हो सकता था कि डॉ रामगोपाल की प्रतिक्रिया मेरी अपेक्षाओं और आवश्यकताओं के अनुरूप नहीं होने की सम्भघावना से इनकार नहीं किया जा सकता था। तब खुशफहमी से मुक्त होने की यन्त्रणा कैसी होती। सपनों का महल भरभरा कर ढह जाता। एक और बात मैंने अपने बचाव के लिए सोच रखी थी। डिस्ट्रिक्ट जज, जो पुराने जिला मुख्यालय में रहते थे, से मिलकर अपना पक्ष रखा जाए। लेकिन इसको भी क्रियान्वयित करने के बजाय अपने मन में ही रखा था कि संकट की स्थिति उत्पन्न होने पर अमल किया जाएगा।।

सूत्रों से मालूम होता रहता था कि मुकदमे की तारीख एक एक महीने कर पड़ा करती थी। मित्रों में से लोग सुलह करने की तरह तरह की सलाह दिया करते, मैं सुनता रहता। मेरे एक सहकर्मी मित्र, जो अफसरों से निकटता रखने का हर सम्भव प्रयास करते थे, विशेष रुप से शुभचिन्तक के रूप में सक्रिय होकर मुझे समझौता करने के लिए दबाव  डालते रहे। उन्होंने उन अफसरों से बात की थी और मुझसे कहा कि समझौते के लिए उन्हें राजी करने में कामयाब हुए हैं। कुछ ऐसा अन्दाज था उनका कि मुझे उनका कृतज्ञ होना चाहिए कि मेरी ओर से उन्होंने पहल कर इतना काम कर लिया है.  पर मेरा कहना था कि मुकदमा झूठा है और इकतरफा है, इसलिए इसे इकतरफे रूप से वापस भी लिया जाना चाहिए। शुभचिन्तक मित्र को मैंने निराश किया। इस तरह और कई भी मित्रों ने टटोला था। एक मित्र ने कहा था कि अभी इमरजेंसी( इस संस्मरण का ताल्लुक सन 1976 ईं से है) है, इसलिए अधिकारियों की मनमानी पर अंकुश नहीं है, पर मेरी सोच थी कि इमरजेंसी में अधिकारियों के आचरण पर खबरदारी अधिक होगी।

इस प्रकरण का पटाक्षेप करीब सात महीने बीतने पर एकाएक हुआ। मैं विश्वविद्यालयीय प्रायोगिक परीक्षक के रूप में छपरा( जहाँ जिला न्यायाधीश रहते थे) गया था वहाँ अपने एक डॉक्टर मित्र के साथ ठहरा था। उससे बातचीत के सिलसिले में मैंने जानना चाहा कि क्या वह डिस्ट्रिक्ट जज से परिचित है। उसने हाँ में जवाब दिया और मुझसे  इसकी प्रासंगिकता पूछी । मैंने उसे पूरा किस्सा बतलाया और कहा कि मैं जज साहब से मिलकर यह कहानी कहना चाहता हूँ। वह सहमत हुआ। दूसरी सुबह हम जज साहब के घर उनसे मिले और मैंने उन्हें पूरा घटनाक्रम बयान किया। जज साहब ने सहानुभूतिपूर्वक धीरज के साथ सुनकर अपने अधिकारियों के आचरण पर खेद प्रकट किया। फिर उन्होंने मुझे यह कहकर आश्वस्त किया कि मैं खुद परसों  सीवान आ रहा हूँ और वहाँ सब ठीक कर दूँगा। मैंने उनसे पूछा कि क्या मैं उनसे वहाँ मिलूँ। उन्होंने कहा कि नहीं, जरूरत होगी तो मैं आपको बुलवा लूँगा।

हमलोग आश्वस्त होकर लौटे। परीक्षकता का काम पूरा कर दूसरे दिन में वापस अपने शहर सीवान लौट आया । मन में आशंका थी कि जज साहब नहीं भी आ सकते हैं।  निर्धारित दिन अपराह्न तीन बजे मैं कक्षा में था, तभी प्राचार्य का चपरासी आया और बताया कि जज साहब ने फोन कर आपको बुलाया है।

कक्षा समाप्त होने के बाद मैं अपने एक वरिष्ठ सहकर्मी के साथ कोर्ट परिसर पहुँचा। वहाँ  देखा सारे न्यायिक पदाधिकारी धूप में जज साहब के साथ बैठे हुए हैं। जनवरी का महीना था इसलिए दोपहर की धूप काम्य थी। हमें देखते ही जज साहब ने कहा, आइए, हम आपका इंतजार कर रहे थे। फिर हम दोनो खाली कुर्सियों पर बैठे। हमारे लिए भी चाय मँगाई गई। तब जज साहब मुझसे मुखातिब होकर बोले, मैंने सब देख लिया है, ऐसी घटनाएँ बहुत दुर्भाग्यपूर्ण होती हैँ. इसे खत्म किया जाए।  कुछ तकनीकी बातें हैं, इसलिए आपको लिखकर देना होगा कि मामला सुलझा लिया गया है। फिर केस ड्रॉप कर दिया जा सकेगा।  मैं जज साहब की बात सुनकर खुश नहीं हुआ, क्योंकि मैं तो कहीं से रेकॉर्ड में अपने को इस मुकदमे में सम्बद्ध नहीं रखना चाहता था। मैंने जज साहब से नम्रतापूर्वक कहा, “मैं कुछ कहूँ?” उनके पूछने पर मैंने कहा—“I have been wronged.” जज साहब ने पलट कर सीजेएम श्री धर्मपाल सिनहा को सम्बोधित करते हुए कहा “मैं समझ गया He does not want to appear.  धर्मपाल जी. केस की तारीख कब है?उस दिन केस को ड्रॉप कर दिया जाए. लिख दिया जाए, पैरवी नहीं होने के कारण इसे ड्रॉप किया जाता है और  उसके तुरत बाद मुझे फोन पर सूचित करें।  ” तभी उनकी नजर सब जज मित्तल पर पड़ी जो कानून की पुस्तक के पन्ने उलटाते हुए कुछ बुदबुदा रहे थे, जज साहब ने उनको सम्बोधित किया,” किताब क्या देख रहे हैं ? अगर कुछ होगा तो मैं देख लूँगा। My hands are sufficiently long. मोहल्लों की बातें कोर्ट में नहीं लाई जानी चाहिए।“  इसके बाद जज साहब ने समाज के प्रबुद्ध वर्ग के सदस्यों के आचरण की गरिमा पर कुछ अवलोकन किया । और हमलोग अभिवादन करने के साथ विदा हुए।  इस तरह नाटक का पटाक्षेप हुआ।

6 COMMENTS

  1. सुधर कृपया इस प्रकार पढ़ें —- “और लगता है.. की इस देश का तो भगवान भी शायद ही भला करे ..”

  2. आदरणीय गंगानन्द जी, — आपका आलेख पढा।
    आप जैसे विद्वान प्राध्यापक को भी नकारात्मक प्रवृत्तियों को सुलझाने में कितनी उठापटक करनी पडी?
    ऐसा भी भ्रष्टाचार ही मानना पडेगा।
    नकारात्मक प्रवृत्तियों से, और भ्रष्टाचार से ग्रस्त भारत जितनी शक्ति का दुर्व्यय करता है। उसी शक्ति को सकारात्मकता उपयोग सभी के लिए समृद्धि ला सकेगा।

    बहुत बहुत धन्यवाद

    • मधुसूजनजी, टिप्पणी के लिए धन्यवाद.
      भयावह बात है वरीय न्यायिक पदाधिकारी की स्वीकारोक्ति कि उन्होंने अपने विभागीय पदाधिकारियों के दबाव में झूठे मुकदमे का संज्ञान लिया है। पेशेवर मुकदमाबाजों की तरह आचरण करने में संकोच उन्हें नहीं हुआ था।
      तंत्र की छाँव में ही तो समाज, व्यक्ति आश्वस्त रहते हैं।

  3. सन १९८० के दशक में ऐसा ही एक वाकया मेरे साथ भी घटित हुआ था, उस वक्त करीब में १७ – १८ साल का युवक था| वसंत पंचमी के मौके पर अपने दोस्तों के साथ सरस्वती पूजा का पंडाल सजा रहा था | मजिस्ट्रेट साहब का एक लड़का भी हमारे साथ हाथ बटा रहा था | पूजा सफलता पूर्वक संपन्न हुई, तदुपरांत भंडारे का कार्यक्रम संपन्न करना था, चंदे के शेष इकट्ठे रकम से | पर उक्त साहब के लड़के ने पैसे ख़त्म होने का बहाना कर दिया, फिर क्या, दल के कुछ लड़कों ने स्वाभाविक विरोध प्रकट करने लगे व् हिसाब की कापी मांगने लगे | क्रिकेट टीम का कप्तान होने के नाते मैंने अलग – अलग जिम्मेवारी सबों को दी थी | आसन्न मुसीबत को मैंने टालने की कोशिश की, और कहा कि चलो कोई बात नहीं भंडारा मेरी तरफ से होगी | पर फिर भी कुछ लड़के कतई तैयार नहीं दिख रहे थे | अरे ये तो सरासर बेईमानी हैं | एक तो बाहर से आकर देवघर में घर बना लिया और ऊँची आवाज में बात करता है, फिर क्या था, अभी पापा को बुलाता हूँ यह कहकर वह सामने अपने घर के अन्दर चला गया | साहब पुरे शबाब पर थे, आते ही गाली – गलौज शुरू कर दिया, और दे डाली मुझे धमकी, मेरी तरफ इशारा करके बोलने लगे, ये सब तेरी ही कारस्तानी है, देख लूँगा | बड़ों का लिहाज करते हुए किसी ने कोई जवाब नहीं दिया, घर में भी मैंने पिताजी को इस बारे में कुछ नहीं बताया | दुसरे ही दिन साहब ने सरकारी लाल बत्ती की गाड़ी निकाली व् निकल पड़े रोड पर गाड़ियों की चेकिंग में, ठीक उसी समय जब हमारी गाड़ी देवघर घुस रही होती है | रास्ते में कागजात माँगा ड्राईवर ने दुरुस्ती का जबाब दिया, पर फिर भी साहब ने मालिक को कहना कि शाम को डेरा पर मिलेंगे यह कहकर ड्राईवर से जबरन गाड़ी का ओनर बुक व् परमिट आदि सब छीन लिया | साहब से मिलने मेरे पिता स्वयं गए तो उनसे दस हजार रूपये की मांग की, पर उन्होंने साफ इनकार कर दिया और कहा की आप चाहें तो केस कर दीजिये कोर्ट में मुझे अवश्य न्याय मिलेगा , ऐसा कहकर मेरे पिताजी घर वापस आ गए | गाड़ी का परिचालन बंद हो गया | आर्थिक संकट भी गहरा गया |, क्योंकि मोटर वाहन अधिनियम के तहत बिना कागजात के सड़क पर गाड़ी नहीं चल सकती है | करीब दो महीने बीत गए, साहब ने केस भी दर्ज नहीं किया पर, कागजात मांगने मेरे पिताजी भी उनके पास नहीं गए | मैंने भी उक्त मित्र से काफी अनुनय किया पर उसने कागजात खो जाने की ही बात बार बार की | अंत में मेरे पिताजी को नगर थाने में जाकर कागजात गुम हो जाने का सन्हा दर्ज करवाकर डुप्लीकेट ओनर बुक परिवहन कार्यालय से निर्गत करवाना पड़ा | पिताजी ने कहा था – अंग्रेज चले गए पर कुत्तों को काटने के लिए आज भी छोड़ गए हैं | अमीर साहबों से ही नहीं साहबजादों से भी आम लोगों को दुरी बना कर ही रखनी चाहिए |

    • ये तजुर्बे हमें अपनी प्रतिरोधी क्षमता को विकसित करने में सहायता करते हैं साथ ही अपने आपसे परिचय भी होता रहता है।

    • …. बहुत ही अचरज भरी घटनाये हैं दोनों, हम तो इस विश्वास में थे की न्यायपालिका में लोग, नेताओं, पुलिस और प्रसाशनिक अधिकारियों से ज्यादा न्याय प्रिय और उच्च आचरण वाले होते होंगे… पर आप की दोनों घटनाओं का संज्ञान लेने के बाद तो दिल डूब ही जाता है.. और लगता है.. की इस देश का तो भगवान भी शायद ही बल करे .. (वैसे कभी-कभी आदमी के नैसर्गिक गुण भी ऐसा आचरण करने को उकसाते हैं, गरीब से अचानक अमीर बना आदमी, बिना मेहनत धन और पद पाने वाले आदि भी इसी प्रजाति के लोग हैं )

      कब आयोगे मोरे राम… इन पापियों का अंत करने…

      जय श्री राम, वन्दे मातरम जय हिंदुत्व

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