सम्प्रेषण और भंगिमाएं

सम्प्रेषण और भंगिमाएं

दोनों की सीमाओं पर सतत निरंतर

आँखों का सदा ही बना रहना

और

पता चल जानें से लेकर

प्रकट हो जानें तक की सभी चर्चाओं पर सदा बना रहता है सूर्य.

सूर्य के प्रकाश में भावों को

भंगिमाओं में बदलनें की ऊर्जा मिलती तो है

किन्तु परिवर्तन के इस प्रवाह में

सम्प्रेषण के काम आयें

कितनें ही शब्द होनें लगते हैं

कुछ चुप्पे और कुछ डरे सहमें से.

न होने को होते हैं वें शब्द

फिर भी कुछ कहतें तो हैं.

कहनें की ही तो भूमिका होती है शब्द की

जिसे वह निभा चुका होता है

सन्दर्भों को बता चुका होता है.

किन्तु फिर भी सन्दर्भ समाप्त हो जाते हैं

और शब्द शेष रह जाते हैं सदा अपनी

शाब्दिक सक्रियता को उठाये अपने कन्धों पर.

शब्दों के ऊपर लिपटी रहती हैं

कई बार कहानियां या उन कहानियों के कुछ अंश

जिन्हें वे कह चुके होतें हैं

इन्हीं लिपटे और लिटपिटे

अर्थों को कहीं दूर रख देनें की तड़प होती है

निस्पृह निर्दोष हो जाने की प्यास रहती है.

इन्हीं अनावश्यक लिपटें अर्थों के भय से

भंगिमाएं बैठी रहती हैं किसी नीम, पीपल या बड़ की खुरदुरी शाखों पर

और भाव भी ऐसे ही कहीं टंगे फंगे से.

 

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