राजनीति

नीतीश-मोदी के टकराव के मायने !

सोनू कुमार

2010 से पहले एनडीए के दो दिग्गज नेता नीतीश कुमार और नरेन्द्र मोदी के बीच कोई प्रोब्लम नहीं थी उससे पहले बिहार के मुख्यमंत्री के लिए गुजरात के मुख्यमंत्री में कोई कमी नजर नहीं आई औऱ ना हीं वे उनको कम्यूनल छवि दिखती हैं जो अब उनके राजनैतिक करियर मे एक बाधा बन गई हैं । जदयू-भाजपा का गठबंधन बहुत पुराना हैं इससे पहले कई मौकों पर दोनो दलों के ये दिग्गज एक साथ दिख चुके हैं । अटल बिहारी के सरकार मे नीतीश कुमार केंद्र मे मंत्री भी रह चुके हैं । ये बातें सबकों पता हैं कि भाजपा को संघ का समर्थन हैं या यूं कहें की संघ हीं भाजपा को चलाता आया हैं उसका ताजा उदाहरण भी सामने आया जब नीतीश कुमार के बयान के बाद संघ प्रमुख ने ये बयान दिया कि भारत का प्रधानमंत्री हिन्दुत्ववादी क्यों नही हो सकता ? और नीतीश कुमार को ये बताने की जरुरत नहीं हैं कि देश का प्रधानमंत्री कैसा होना चाहिए ।

सवाल ये हैं कि जब पूरे बीजेपी को कम्यूनल का तमगा दिया जाता हैं तो फिर मोदी को छोड़कर बाकी नेता सेक्यूलर कैसे हो सकते हैं ? दरअसल नीतीश कुमार का यह दोहरा चरित्र तब सामने आया जब बिहार में जनता ने लालू यादव से तंग आकर एनडीए को दुबारा सत्ता सौंपी तो ऐसे मे यह कहा जा सकता हैं कि नीतीश कुमार बिहार मे मुस्लिम वोटों को बचाने के लिए सिर्फ नरेन्द्र मोदी का विरोध कर रहे हैं, 2002 के गोधरा कांड के बाद गुजरात के मुख्यमंत्री पर अभी तक वो दाग हैं जिसे समय-समय पर सियासी पार्टीयां अपने फायदे के लिए कुरेदते रहते हैं । नीतीश और मोदी के बिच यह खटास पहली बार सामने तब आया जब बिहार मे चुनाव के समय एक अखबार में एक एड आया कि गुजरात के मुसलमान बिहार के मुसलमानों से ज्यादा खुश और संपन्न हैं जिसमें सच्चर कमीटी के रिपोर्ट का भी हवाला दिया गया था । ये सारा विवाद उसी समय मुस्लिम वोटों के लेकर खड़ा हुआ था नीतीश कुमार को लगा कि मुस्लीम वोट उनसे बिखर जाएगा, नतीजा नीतीश कुमार ने बिहार मे जगह-जगह लगे नरेंद्र मोदी के साथ अपने तस्वीरों को हटवाया और बीजेपी को दी गई रात्री भोज भी रद्द कर दिया । अब जब नीतीश कुमार कि छवी कुछ हद तक सेक्यूलर बन चुकी हैं तब वो इतनी आसानी से मुस्लीम बिरादरी को अपने हाथों से छिटकने नही देना चाहते । भले हीं नीतीश कुमार ये कहते रहे हों की प्रधानमंत्री पद की दिलचस्पी उनमें नहीं हैं लेकिन बिहार के सौ साल पूरे होने के मौके पर जिस तरह से बिहार से बाहर जाकर प्रवासी बिहारीयों को लुभाने के लिए मुंबई तक का सफर करके राज ठाकरे से हाथ मिलाते हैं और मराठी भाषा मे जयकारा भी लगाते हैं उसे देखकर श्री कुमार के महात्वाकांक्षा का अंदाजा सहज ही लगा सकते हैं । इसमे कोई शक नहीं कि नीतीश कुमार एक बेहतर औऱ कुशल नेता हैं जिनकी छवी एक विकासपुरुष की बन चुकी हैं शायद यह भी एक वजह हैं कि नीतीश अपनी तुलना मोदी के विकास से करना चाहते हैं कि मैं उनसे बड़ा विकासपुरुष हूं, हालांकी जमीनी सच्चाई क्या हैं ये बिहार के लोग हीं जानते हैं । बिहार ने वास्तव मे कितना विकास किया हैं ये दिल्ली मे बैठकर या बिहार के कुछ शहरों मे जाकर विकास का वास्तवीक मुआयना नही किया जा सकता । पुल-पुलीया, सड़क और स्कुलों के निर्माण भर से किसी प्रदेश का विकाश नही हो सकता आज भी बिहार मे गरिबों की तादाद ज्यादा हैं ना तो बिजली की हालत सुधरी हैं ना हीं स्वास्थ्य और सुवीधा मे जो बुनीयादी सुधार हुआ हैं जो एक विकसित राज्य मे होना चाहिए । बिहार पिछले कइ सालों से लगातार पिछड़ा हुआ था भ्रष्टाचार ने इस तरह से जकड़ रखा था कि विकाश सिर्फ कागजों पर हीं होता था नीतीश कुमार ने जहां कुछ नहीं वहां कुछ तो किया लेकिन क्या ये असली विकाश हैं । आज भी प्रदेश मे किसी बड़े कॉरपोरेट घरानों का निवेश नहीं हुआ जिसके कारण बेरोजगारी की समस्य़ा जस के तस बनी हुई हैं । शिक्षकों की जो भर्ती हुई उनमे से 70 फिसदी तो ऐसे हैं जिन्हे शिक्षक कि परिभाषा तक मालुम नही होगी, अपराध का ग्राफ इसलिए कम हुआ हैं क्योकी अफसरशाही बढ़ी हैं और बड़ी मुश्कील से एफआईआर दर्ज हो पाती हैं जब थानों मे एफआईआर ही नहीं होगी फिर आंकड़े कहां से मिलेंगे । ऐसा नहीं हैं की लालु यादव के साथ हीं अपराधियों औऱ माफियाओं का कारवां था, सुशासन के इस सरकार मे भी माफियाओं का मिश्रण हैं । विकाश की जो तस्वीर लोगो के सामने आई हैं उसमे सबसे बड़ा हाथ मिडीया का हैं, बिहार मे पब्लीसीटी के उपर खर्च किए गए रुपये का हिसाब-किताब देखने पर पता चलता हैं कि ऐसी तस्वीर मिडीया ने क्यों पेश की । अभी हाल हीं मे मार्कंडेय काटजु का पटना मे दिया गया बयान इस बात को साबित करने के लिए काफी हैं । विकाश तो किया हैं नीतीश कुमार ने लेकिन नरेंद्र मोदी के साथ तुलना करना कितना सहीं हैं यह तो बिहार की जनता हीं जानती हैं । कुछ दिन पहले नरेन्द्र मोदी ने एक जनसभा मे यह कहा था कि बिहार और यूपी जातीवाद की राजनीती की वजह से पिछड़े हैं तब भी बहुत हो हल्ला मचा था लेकिन मुझे नही लगता मोदी ने कुछ गलत कहा था ।बिहार में लालू यादव की लुटिया ही इसीलिए डूबी कि उन्होंने अपनी जाति के अलावा अन्य पिछड़े वर्गों की उपेक्षा की थी। उनके विरोधी आपस में पूरी तरह एकजुट होने के बाद भी उनका कुछ बिगाड़ नहीं पाते थे। बिहार की अगड़ी जातियों ने लालू को हटाने के लिए क्या कुछ नहीं किया था, लेकिन जब तक उन्हें पिछड़ों का समर्थन मिलता रहा, वे चुनाव जीतते रहे। लेकिन पिछड़ों की उपेक्षा करके उन्होंने अपनी राजनीति खराब कर ली। नीतीश की पहली सरकार में भी पिछड़े अपने आपको उपेक्षित महसूस कर रहे थे। फिर भी नीतीश ने बिहार को जातिगत राजनीति से मुक्ती नहीं दिलाई बल्की नए जातिगत समीकरण पैदा करके मुसलमानों का बंटवांरा कर पसमांदा मुसलमान, दलीतों का बंटवारा कर अतिपिछड़ों को ढुढा और जातिवाद की राजनीति करके हीं आगे बढे । बहुत हद तक यह सच हैं कि मोदी से ये दुरी सिर्फ और सिर्फ मुस्लीम वोटों के छिटकने के डर से हैं । नीतीश कुमार 1996 से बीजेपी के साथ हैं, अटल बिहारी के सरकार मे जब 2002 मे गोधरा कांड हुआ उस समय वे रेलवे मंत्री थे, और गोधरा कि शुरुआत हीं रेलवे से हुई थी लेकिन वो वहां पर देखने तक नहीं गए जब ट्रेन की 2 बोगीयों मे लोगों को जिंदा जला दिया गया था । अटल जी ने उस समय मोदी को कहा कि मोदी ने राज धर्म का पालन नहीं किया और वे मोदी को हटाना चाहते थे लेकिन आडवाणी ने मोदी को बचाया, वो आडवाणी नीतीश कुमार को मंजुर हैं । बाबरी मस्जीद गिराने का केस आज भी कोर्ट मे हैं लेकिन आडवाणी मंजुर हैं, पर मोदी नहीं । जिस बीजेपी के सहारे अपनी राजनैतिक जमीन मजबूत की उसी बीजेपी को आज आंख दिखा रहे हैं, इसका कारण भी स्पष्ट हैं कि आज नीतीश कुमार का कद वाकई बढ गया हैं । इसमे कोई शक नहीं कि नीतीश कुमार एक बेहतर नेता हैं और उन्होने पिछड़े बिहार को निश्चित रुप से आगे ले जाने का काम किया हैं । नीतीश कुमार ने अपने बयान मे एक बात औऱ कहा था कि नेता ऐसा हो जो सबको साथ लेकर चले ये बात क्या सिर्फ नरेन्द्र मोदी पर लागु होती हैं ? नरेन्द्र मोदी पर आरोप लगा रहे नीतीश कुमार का राजनैतिक इतिहास भी कुछ ऐसा ही हीं, अपने गुरु जार्ज फर्नांडीस सहीत बिहार जदयू के तमाम बड़े नेताओं का पत्ता साफ कर दिया ताकी उनसे आगे कोई ना रहे फिर वो मोदी पर कैसे आरोप लगा सकते हैं ? जॉर्ज फर्नांडीस, ललन सिंह, प्रभूनाथ सिंह सरिखे दिग्गज नेताओं को पार्टी छोड़ने पर मजबूर करने वाले नीतिश कुमार मोदी को महत्वाकांक्षी कैसे बता सकते हैं । नीतीश कुमार अगर वाकई सेक्यूलर हैं, तो 1996 से आज तक आडवाणी से दिक्कत क्यों नही हुई । अगर बीजेपी सेक्यूलर हैं, तो मोदी कम्यूनल कैसे हो सकते हैं । नीतीश- मोदी प्रकरण ने एक बात तो साफ कर दी हैं कि भले हीं बीजेपी को जदयू की जरुरत हो लेकिन नीतीश कुमार को अब बीजेपी से अलग होने पर कोई फर्क नहीं पड़ता औऱ जैसी खबर आ रही हैं कि जदयू 2014 से पहले धर्मनिरपेक्षता के नाम पर कांग्रेस के साथ हाथ मिला सकती हैं । राजनैतिक गलियारों से ऐसी भी खबरें आ रही हैं कि जदयू ने कांग्रेस के सामने प्रस्ताव रखा हैं कि रेलवे के साथ कोई और मंत्रालय उसके कोटे मे दे दिया जाए, लेकिन रेलवे मंत्रालय अभी ममता के खाते मे हैं औऱ कांग्रेस अपनी तरफ से टीएमसी से नाता तोड़ने की पहल नही करना चाहता हालांकी उसका भी दम घुट रहा हैं दीदी के हर मुद्दे पर विरोध करने से । इन सबके बीच राजनैतिक विश्लेषक तीसरे मोर्चे की सुगबुगाहट भी देख रहे हैं जिसमे अहम किरदार मुलायम सिंह निभा सकते हैं हालांकी इसकी संभावना कम ही हैं । इस पूरे प्रकरण मे एक बात साफ हुई हैं कि धर्मनिरपेक्षता सिर्फ एक बहाना हैं दरअसल नीतीश कुमार कुशल और साफ छवि के साथ-साथ एक अवसरवादी नेता भी हैं ।