राजनीति

घिर चुकी है कांग्रेस और उसकी सरकार

 विनायक शर्मा

संगठन पर कमजोर होती पकड़ और दिशाहीन गठबंधन सरकार का नेतृत्व करती कांग्रेस अपनी स्थापना और देश की स्वतंत्रता के बाद सबसे बुरा वक्त देख रही है. असमंजस की स्थिति तो कांग्रेस के विघटनकाल 1969 और 1978 में भी कांग्रेस जनों ने देखी थीं. 1974 में इलाहबाद उच्च न्यायालय के एक फैसले जिसमें इंदिरा गांधी का चुनाव अवैध घोषित कर दिया था के समय और जेपी आन्दोलन के दौरान भी कांग्रेस और उसकी सरकार असमंजस की स्थिति में थी. आपातकाल और उसके पश्चात् मोरारजी देसाई के नेतृत्व में गैरकांग्रेसी सरकार बनने पर भी कांग्रेस में सत्ता की छटपटाहट के चलते असमंजस की स्थिति थी. ओपरेशन ब्लू स्टार के बाद 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या और उनके बाद प्रधानमंत्री बने उनके पुत्र राजीव गांधी की 1989 में आम चुनाव में प्रचार के दौरान तमिलनाडू के श्रीपेरम्बदूर में बम विस्फोट में हत्या किये जाने पर भी कांग्रेस असमंजस की स्थित में थी. परन्तु असमंजस के जिस वर्तमान दौर से कांग्रेस पार्टी और उसके नेतृत्व में चल रही मनमोहन सरकार गुजर रही है, ऐसी विकट दशा के विषय में किसी ने सोचा तक न था. बढती संगठन और सरकार की समस्याएं और सिमटता जनाधार और उन सब से ऊपर गांधी परिवार का घटता तिलस्म जिसके बिना कांग्रेसी एक कदम नहीं चल सकते.

सरकार पर भ्रष्टाचार और जनविरोद्धी नीतियां, बड़े-बड़े घपलों-घोटालों के आरोप व सरकार की दिशाहीनता के चलते बड़ रही महंगाई से त्रस्त देश का आमजन केंद्र सरकार और कांग्रेस के किसी भी कार्य से खुश नहीं लगता. उसे लगता है कि यह सरकार सभी मोर्चों पर विफल हो रही है. जनता की यही नाराजगी चुनावों में विरोद्ध मत में परिवर्तित हो रही है. कल संसद में कांग्रेस के चार सांसदों को सोनिया के मना करने के उपरांत भी अपनी सीटों से उठ तेलंगाना के मुद्दे पर नारे लगाने पर, कांग्रेस के ही प्रस्ताव पर चार दिनों के लिए निलंबित किया जाना एक अनहोनी घटना है. राजनैतिक व सामाजिक जीवन में नैतिकता को तिलांजली देने का काम करने वाले पार्टी के डर्टी नेताओं की डर्टी व विकृत योनाचार की सीडियों और विवाहेतर संबंधों के विषय में बात ही नहीं की जा सकती क्यूंकि कांग्रेस द्वारा गडी गई नई परिभाषा के अनुसार यह उनका व्यक्तिगत मामला है और इस विषय में बोलने का अधिकार केवल इस प्रकार के कृत करने वालों की पत्नियों को ही है.

कांग्रेस और सरकार में एक अजीब सी असमंजस की स्थित के निर्माण के कारण ही सब कुछ दिशाहीन सा हो गया है. अन्दर की बातें विकृत रूप में बाहर आ रही है जिसका या तो बाद में खंडन किया जाता है या फिर किसी कमेटी से जाँच करवाने की बात की जाती है. कभी योजना आयोग सरकार की सुविधा के लिए गरीबी की रेखा का नया मापदंड खड़ा करने के चक्कर में सरकार को ही विवादों में खड़ा कर देता है तो कभी सरकार के अर्थशास्त्री व सलाहकार सरकार को असमंजस की स्थिति में डाल रहे हैं. मंत्रियों के फोन टैप होने की शिकायतों के साथ ही उनकी जासूसी हो रही है, कौन करवा रहा है यह सब ? कभी सेना के विषय में कोई गुप्त पत्र मीडिया में लीक हो जाता है तो कभी संगठन में कार्य के लिए चार-चार मंत्रियों के इस्तीफे देने की बात से राजनीतिक माहोल गरमा जाता है. परन्तु सेना और सरकार के विषय में जिस प्रकार की चर्चाएँ चल रही हैं वह लोकतंत्र और देश की सुरक्षा के लिए अवश्य ही चिंताजनक हैं. इसे तो राजनीतिक और प्रशासनिक निकम्मेपन की संज्ञा देना ही उचित है. बोफोर्स तोपों की खरीद में दलाली के आरोपों के बाद अब सेना के जनरल को ही सीधे दलाली का प्रलोभन देने की बात सामने आ रही है और आश्चर्य में डालने वाली बात तो यह है कि देश के रक्षा मंत्री को बताने पर भी उन्होंने इस पर कोई करवाई क्यूँ नहीं की ? इतना ही नहीं पूर्व प्रधान मंत्री देवगौड़ा के पुत्र कुमारस्वामी ने भी कुछ ऐसा ही खुलासा किया है, हालाँकि देवगौड़ा ने इसका तभी खंडन कर दिया था, परन्तु देश की सुरक्षा से सम्बंधित ऐसी कोशिश के विषय में क्या कुमारस्वामी से पूछताछ नहीं होनी चाहिए थी ? घोटालों और दलाली के आरोपों में आज दो नए मामले और जुड़ गए. एक इटली से खरीदे गए हैलिकोप्टरों की खरीद पर 350 करोड़ की दलाली और दूसरा बोफोर्स तोपों की दलाली में कुछ नए तथ्यों के उजागर होने के समाचार आ रहे हैं.

संगठन की निष्क्रियता के पीछे अध्यक्ष सोनिया गांधी की अस्वस्थता और संप्रग सरकार पर संकट के चलते संगठन के कार्य की अनदेखी बताया जा रहा है. तदर्थवाद पर चल रहे कांग्रेस के तमाम संगठन और कार्य समितियों के साथ-साथ अनेक राज्यों के संगठन प्रमुखों की नियुक्ति पर भी निर्णय लिए जाने हैं. सूत्र बताते हैं कि कांग्रेस संगठन और केंद्र सरकार में मंत्रिमंडल स्तर पर एक साथ कुछ बड़े परिवर्तन पर विचार चल रहा है. जहाँ तक अभी हाल के चुनाव नतीजों के लिए जवाबदेही तय करने का विषय है सूत्रों के मुताबिक, कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी की उत्तरप्रदेश समीक्षा के निष्कर्षों पर कांग्रेस के दूसरे बड़े नेताओं को चिंतन पर मजबूर कर दिया है. एंटनी समिति की रिपोर्ट आने के बाद मई-जून के भीतर ही संगठन में बड़े बदलावों और राज्यों के रुके हुए फैसलों को मूर्त रूप दिया जा सकेगा.

सत्ता और पद की लोलुपता व धन कमाने की होड़ में लगे नेताओं और कार्यकर्ताओं के आचरण से शनैः शनैः कमजोर पड़ता संगठन कांग्रेस पर दोहरी मार कर रहा है.

हाल के पांच राज्यों के चुनावों के अति निराशजनक नतीजों से कांग्रेस उभर नहीं पाई थी कि राजधानी दिल्ली के शहरी निकायों के नतीजों ने एक और झटका दे दिया. पंजाब की ही भांति दिल्ली के नतीजों से भी बहुत उम्मीदें थी कांग्रेस को. उत्तरप्रदेश में राहुल को मेहनत का सुफल क्यूँ नहीं मिला इस पर बुलाई गयी बैठक में समीक्षा और मंथन के बाद कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने पार्टी के वरिष्ठ नेता व केंद्रीय रक्षा मंत्री एके एंटनी की अध्यक्षता में चुनावों में हुई पराजय की जिम्मेदारी तय करने के लिए एक उच्चस्तरीय कमेटी बना दी है. परन्तु यहाँ प्रश्न यह खड़ा होता है कि क्या यह कमेटी कांग्रेस के शीर्षनेतृत्व द्वारा की गईं गलतियों और तानाशाही रवैया के माध्यम से लिए गए निर्णयों के लिए शीर्ष नेतृत्व को उत्तरदाई ठहराने का साहस करेगी ? कदाचित नहीं, यह तो उत्तरप्रदेश की प्रदेशाध्यक्ष रीता बहुगुणा ने पहले ही स्पष्ट कर दिया था. क्या यह कमेटी केंद्र में सरकार चला रही कांग्रेस के लाखों अरबों के घोटालों और भ्रष्टाचार को प्रश्रय देने व जनविरोधी नीतियों जिसके चलते बढती महंगाई में जन साधारण आम आदमी का जीना दूबर हो गया है को किसी भी प्रकार से उत्तरदायी ठहराने का साहस कर सकती है. अभी कल ही अंतर्राष्ट्रीय संस्था एस एंड पी के अनुसार भारत की आर्थिक दशा नकारात्मक प्रगति पर है. इसी के चलते विदेशी निवेश में कमी आने की आशंका जताई जा रही है.

उत्तरप्रदेश में मायावती की सरकार द्वारा प्रदेश के विभाजन का विरोद्ध करने वाली कांग्रेस दिल्ली नगर निगम के विभाजन को इतनी आतुर थी कि अपने तमाम बड़े नेताओं के मना करने पर भी विधान सभा की ताकत और केंद्र में चल रही सरकार के गृह मंत्री चिदम्बरम पर दबाव बनाकर दिल्ली नगर निगम में भाजपा के गढ़ को भेदने के लिए ही विभाजन करवाने में सफल होकर भी चुनावी समर में असफल हो गईं.

बजट सत्र में लंबित बिलों को पारित करवाने के लिए समर्थन जुटाने में लगी कांग्रेस बाहर एक के बाद एक समस्याओं में उलझती जा रही है. एक ओर ममता की तृणमूल कांग्रेस के नित नए नखरे और वहीँ दूसरी ओर शरद पवार की एनसीपी भी अब बहानों की तलाश में जुटी हुई जान पड़ती है. सरकार को समर्थन देने वाले दलों को भी अब लगने लगा है कि इस घायल ऊंट पर बैठ मरुस्थल पार नहीं किया जा सकता. आंकलन तो यह है कि इस वर्ष जून माह में राष्ट्रपति चुनाव तक तो मनमोहन सरकार ऐसे ही चलेगी. हाँ, राष्ट्रपति के चुनाव के पश्चात् कांग्रेस के साथ ही अन्दर व बाहर से समर्थन देनेवाले वाले दल अवश्य ही 2014 के चुनावों के मध्येनजर अपना-अपना रास्ता तलाश करने को मजबूर हो सकते हैं.

एक ओर जहाँ केंद्र सरकार नीतिगत अनिर्णय की शिकार है तो कांग्रेस नेतृत्व राजनीतिक अनिर्णय की. अन्दर बाहर से समर्थन देने वाले दल समर्थन की अपेक्षा विरोद्ध और भयदोहन अधिक कर रहे हैं. पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के बाद दिल्ली में एमसीडी के चुनावों में भी झटका खाने के बाद भी यदि कांग्रेस नेतृत्व की कुम्भकर्णी नींद नहीं खुली और आनेवाले राज्यों और लोकसभा के चुनावों में के मध्येनजर राज्यों में संगठन की समस्याओं पर अविलम्ब कुछ बड़े अप्रिय फेरबदल और कठोर निर्णय नहीं लिए तो नतीजे हाल के चुनावों जैसे ही होंगे. वैसे पांच राज्यों चुनाव नतीजों की समीक्षा और पार्टी का भविष्य का रोडमैप तैयार करने के लिए गठित एके एंटनी समिति की रिपोर्ट को तेजी से अंतिम रूप देना का कार्य कांग्रेस में पैदा हुई सजगता को ही दर्शाता है. परन्तु यक्ष प्रश्न फिर वही है कि घोटालों, भ्रष्टाचार और महंगाई के चलते संगठन को मजबूत करने हेतु किये जा रहे यह सब उपाय मतदाताओं को लुभाने में कितने कारगर साबित हो सकेंगे ? सूचना के अधिकार और नरेगा के अतिरिक्त कुछ और भी है कांग्रेस के पास कहने को ?