परिवारवाद और तुष्टीकरण तक सिमटी कांग्रेस

दुलीचंद कालीरमन

भारतीय लोकतंत्र की सबसे प्राचीन पार्टी कांग्रेस में नेतृत्व की समृद्ध परंपरा रही है. लेकिन आज जब 2019 में कांग्रेस की 135 साल की यात्रा के बाद वर्तमान परिस्थिति को देखते हैं तो यह राजनीतिक पार्टी केवल परिवारवाद तथा तुष्टीकरण तक सिमट कर रह गई है.

 मई 2014 में लोकसभा चुनाव की हार को कांग्रेस पार्टी ने ‘मोदी लहर’ के कारण  हजम कर लिया था. लेकिन 2019 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दूसरे कार्यकाल के दौरान कांग्रेस को मिली करारी हार से कांग्रेस के युवा नेतृत्व पर प्रश्न-चिन्ह लग गया है. पिछले  5 सालों के दौरान कांग्रेस पार्टी ने एक के बाद एक राज्यों में अपनी सरकारों को गवा दिया. राष्ट्रीय स्तर पर उसका स्थान भारतीय जनता पार्टी ने लेकर संपूर्ण भारत में चारों दिशाओं में अपना प्रसार किया है.

 प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के समक्ष अपनी बराबरी साबित करने के लिए राहुल गांधी ने 2019 के लोकसभा चुनावों से बहुत पहले फ्रांस से खरीदें  खरीदे जाने वाले युद्धक विमान ‘रफाल’ को लेकर अनर्गल आरोप लगाना शुरू कर दिया था. “चौकीदार चोर है’ के  नारे राहुल अपनी चुनावी रैली व जनसभाओं में खूब  लगवाते थे. लेकिन नरेंद्र मोदी की छवि ऐसी थी कि ‘रफाल’ का नकारात्मक असर खुद कांग्रेस पर पड़ा और उसे चुनावों में करारी हार का सामना करना पड़ा.

 दूसरा असर यह हुआ कि भारतीय जनता पार्टी को अकेले दम पर 2014 की अपेक्षा ज्यादा सीटों पर विजय प्राप्त हुई. कांग्रेस पार्टी को यूपी में प्रियंका के नाम पर खेला दांव भी काम नहीं आया. नतीजतन राहुल गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना पड़ा. इससे पहले राहुल गांधी की माता सोनिया गांधी पिछले 19 सालों से कांग्रेस अध्यक्ष का पद संभाल रही थी.

 राजनीतिक पंडितों को भी राहुल गांधी के इस्तीफे के बाद यह लगने लगा था कि अब कांग्रेस पार्टी को नेहरू गांधी परिवार से बाहर का कोई योग्य व्यक्ति नेतृत्व प्रदान करेगा.  लेकिन काफी तथाकथित विचार-मंथन के बाद भी कांग्रेसी इतना आत्मविश्वास नहीं दिखा सके कि  गांधी-परिवार से बाहर का कोई  नेता कांग्रेस अध्यक्ष पद बन सके. फिर वही ढाक के तीन पात वाली कहावत सिद्ध करते हुए सोनिया गांधी को ही अंतरिम अध्यक्ष के रूप में कार्यभार संभालने के लिए कहा गया. इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि कांग्रेस कार्यसमिति में गांधी परिवार के चाटुकारों की संख्या ज्यादा है. जिनका राजनीतिक धरातल पर अपना कोई वजूद नहीं है. कांग्रेस अध्यक्ष पद पर यह बदलाव मात्र दिखावा है क्योंकि पूरा देश समझता है कि मां या पुत्र में से कोई भी अध्यक्ष हो, संगठन के स्तर पर कोई विशेष परिवर्तन धरातल पर नहीं होगा.

 नरेंद्र मोदी के कि दूसरे कार्यकाल में राहुल गांधी ने नरेंद्र मोदी को निशाना बनाने की बजाय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को निशाना बनाना शुरू कर दिया. कांग्रेस पार्टी राजनीतिक दल के रूप में अपनी विचारधारा हो चुकी है आज वह विपक्ष की भूमिका भी रचनात्मक ढंग से नहीं निभाकर अराजकता की शिकार हो चुकी है.

 भारत के चारों तरफ से सीमाओं पर खतरे को देखते हुए अपने सुरक्षा बलों को मजबूत किए जाने की आवश्यकता है. लेकिन बिना सबूत के सुरक्षा उपकरणों की खरीद में घोटालों का आरोप लगाकर कांग्रेस पार्टी देशहित से भटक जाती है. कभी “सर्जिकल स्ट्राइक” पर अविश्वास भरे वक्तव्य देकर सबूत मांगती है, तो कभी कश्मीर में धारा-370 हटाए जाने के बाद कश्मीर की स्थिति को असामान्य बताकर देश के दुश्मनों के हाथ मजबूत करती है. किसी भी रचनात्मक विपक्ष को ऐसी विपरीत परिस्थितियों में सरकार के साथ खड़ा हुआ नजर आना चाहिए.

“नागरिकता संशोधन अधिनियम” के नाम पर कांग्रेस पार्टी ने जिस प्रकार का अनर्गल प्रचार देश के अल्पसंख्यक वर्ग में किया वह यह साबित करने के लिए काफी है कि कांग्रेसी पार्टी ने अभी तक तुष्टीकरण की राजनीति ही की है. अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी द्वारा अल्पसंख्यकों को ‘सड़कों पर उतरने’ का आह्वान तथा प्रदर्शन के दौरान हो रही हिंसा की निंदा का एक भी शब्द उनके मुंह से नहीं निकलना और ना ही शांति की अपील करना दंगों के पीछे की मानसिकता को साफ करता है. देश के सामने संकट की स्थिति कांग्रेस को एक राजनीतिक मौका लगती है. देश जब नागरिकता संशोधन विधेयक के विरोध के नाम पर हिंसा की चपेट में था तो कांग्रेस पार्टी को उसमें राहुल गांधी की दोबारा ताजपोशी की संभावना नजर आ रही थी.

भारतीय जनता पार्टी के उदय का दोतरफा प्रभाव यह हुआ है कि एक तो कांग्रेस पार्टी देश भर में हारती चली गई. दूसरा परिवार आधारित क्षेत्रीय राजनीतिक दलों की भूमिका भी राज्यों में कमजोर हुई. कांग्रेस और इन क्षेत्रीय दलों ने अपनी-अपनी विचारधारा से किनारा करते हुए सत्ता को ही प्राथमिकता दी है. भारतीय जनता पार्टी का मुकाबला करने के लिए कांग्रेस पार्टी अपनी प्रासंगिकता खो रहे क्षेत्रीय दलों से हाथ मिला रही है. अभी हाल ही में महाराष्ट्र राज्य इसका ताजा उदाहरण है, जहां पर खुद को हिंदी हिंदूवादी पार्टी बताने वाली शिवसेना तथा धर्मनिरपेक्षता का झंडा थामने का दावा करने वाली कांग्रेस पार्टी चुनाव बाद का गठबंधन करके सत्ता तक पहुंच चुके हैं.

भारतीय लोकतंत्र की सबसे पुरानी पार्टी में कितना आंतरिक लोकतंत्र है, इसका जीता जागता उदाहरण इसके अध्यक्ष पद पर काबिज नेताओं की फेहरिस्त से सामने आ जाता है. क्योंकि इसमें ज्यादातर नेहरू-गांधी परिवार के ही लोगों का नाम मिलेगा. वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में कांग्रेस पार्टी विचारधारा के तौर पर सिर्फ अल्पसंख्यक विशेषकर मुसलमानों के तुष्टीकरण तक सीमित होकर रह गई है.  उसे सत्ता में आने के लिए ऐसे पारिवारिक दलों की जरूरत वैशाखी के रूप में पड़ रही है जिनकी जड़ें अपने-अपने राज्यों में कमजोर हो चुकी हैं.  

देश की सबसे बुजुर्ग पार्टी (कांग्रेस पार्टी) को अपने नेता के परिपक्व होने का इंतजार है

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