-निरंजन परिहार
भारतीय राजनीति में संदेश (मैसेजिंग) इन दिनों केंद्रीय भूमिका में है। यह वह युग है जहां किसी मुद्दे की गंभीरता और उसका प्रभाव इस बात पर निर्भर करता है कि उसे कौन प्रस्तुत कर रहा है। जैसा कि कहा जाता है – ‘जिस स्तर का काम, उसी स्तर का नेता’, यह सूत्र भारतीय राजनीति में तेजी से प्रासंगिक हो रहा है। कांग्रेस पार्टी ने इस तथ्य को न केवल समझा है, बल्कि इसे अपनी रणनीति का हिस्सा बनाया है। इसका एक स्पष्ट उदाहरण हाल ही में भारत-पाकिस्तान युद्धविराम के मुद्दे पर सरकार से सवाल करने के मामले में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अशोक गहलोत की प्रेस कॉन्फ्रेंस में देखने को मिला। कांग्रेस संगठन द्वारा सचिन पायलट की प्रेस कॉन्फ्रेंस से मैसेजिंग की लगभग असफलता के तत्काल बाद गहलोत की प्रेस कॉन्फ्रेंस करवाने की रणनीति में राजनीतिक विश्लेषक कांग्रेस की इस आंतरिक रणनीति के विभिन्न पहलुओं, पार्टी की रणनीति, गहलोत की भूमिका, और इसके व्यापक राजनीतिक निहितार्थों के विस्तार में कांग्रेस राजनीति के माय़ने तलाशने लगे हैं।
गहलोत के मोदी से सवालों का असर
अशोक गहलोत भारतीय राजनीति में एक ऐसा नाम है, जिसका कद और अनुभव बेजोड़ है। तीन बार राजस्थान के मुख्यमंत्री, तीन प्रधानमंत्रियों, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और पी.वी. नरसिम्हा राव के साथ केंद्रीय मंत्री, 5 बार सांसद, और 6 बार से लगातार विधायक रहने का उनका रिकॉर्ड उन्हें कांग्रेस के सबसे मजबूत स्तंभों में से एक बनाता है। नई दिल्ली में सरकार से सवाल के लिए प्रेस कॉन्फ्रेंस हेतु गहलोत का चयन केवल एक संयोग नहीं, बल्कि एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा था। गहलोत की प्रेस कॉन्फ्रेंस ने दोहरे उद्देश्य पूरे किए। पहला, इसने केंद्र सरकार पर युद्ध विराम के मुद्दे को लेकर दबाव बनाया और सरकार की नीतियों पर सवाल उठाए तो इसने पार्टी के भीतर गहलोत की वरिष्ठता और उनके राजनीतिक कद के भी बरकरार होने का संदेश दिया। यह संदेश न केवल जनता के लिए, बल्कि कांग्रेस के कार्यकर्ताओं और नेताओं के लिए भी था, कि पार्टी अपने अनुभवी नेता गहलोत को महत्व दे रही है।
पायलट की प्रेस कॉन्फ्रेंस से सबक
इसके विपरीत, कुछ दिन पहले इसी मुद्दे पर सचिन पायलट की प्रेस कॉन्फ्रेंस का प्रभाव उतना नहीं पड़ा, जितना अपेक्षित था। पायलट, जो कि कांग्रेस के युवा नेताओं में से एक हैं, निश्चित रूप से हिंदी – अंग्रेजी अच्छी बोलने वाले नेता हैं। लेकिन, उनकी प्रेस कॉन्फ्रेंस का संदेश जनता और मीडिया में उस तरह से चर्चा का विषय नहीं बन पाया, जैसा कि गहलोत की प्रेस कॉन्फ्रेंस को महत्व मिला। इसका कारण स्पष्ट है कि पायलट का अनुभव और राजनीतिक कद, गहलोत की तुलना में अभी भी सीमित है। युद्ध विराम जैसे राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय महत्व के मुद्दे पर जनता और मीडिया एक ऐसे नेता की बात को अधिक गंभीरता से लेते हैं, जिसका अनुभव और विश्वसनीयता लंबे समय से स्थापित हो। इस घटना ने कांग्रेस को एक महत्वपूर्ण सबक दिया कि बड़े मुद्दों पर सवाल उठाने के लिए दिग्गज नेताओं की ही आवश्यकता होती है, गहलोत इसी कीरण पायलट पर भारी रहे।
विश्लेषकों की राय में सही कदम
नई दिल्ली में कांग्रेसी राजनीति के जानकार अजीत मैंदोला कहते हैं कि कांग्रेस की अशोक गहलोत को भारत-पाकिस्तान युद्ध विराम के मुद्दे पर प्रेस कॉन्फ्रेंस के लिए चुनकर यह साफ संदेश दिया है कि गहलोत की ताकत बरकरार है। राजनीतिक विश्लेषक राजकुमार सिंह कहते हैं कि सचिन पायलट की प्रेस कॉन्फ्रेंस से मिले सबक ने कांग्रेस को यह समझने में मदद की कि बड़े मुद्दों पर दिग्गज नेताओं की आवश्यकता होती है। राहुल गांधी का यह कदम, कि अनुभवी नेताओं को महत्व दिया जाए, पार्टी के लिए एक सकारात्मक संकेत है। कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति के जानकार संदीप सोनवलकर कहते हैं कि आने वाले समय में, कांग्रेस को इस रणनीति को और मजबूत करना होगा। अनुभव और युवा ऊर्जा के बीच संतुलन, प्रभावी मैसेजिंग, और जनता के बीच विश्वसनीयता स्थापित करना—ये वे प्रमुख क्षेत्र होंगे, जहां कांग्रेस को ध्यान देना होगा। शताब्दी गौरव के संपादक सिद्धराज लोढ़ा कहते हैं कि पार्टी अब मैसेजिंग की राजनीति की बारीकियों को समझ रही है। अशोक गहलोत का अनुभव, उनका राजनीतिक कद, और उनकी विश्वसनीयता ने इस प्रेस कॉन्फ्रेंस को प्रभावी बनाया। साथ ही, इसने पार्टी के भीतर उनके महत्व को भी रेखांकित किया। वरिष्ठ पत्रकार राकेश दुबे कहते हैं कि कांग्रेस की गहलोत के जरिए सरकार से सवाल करने की यह रणनीति न केवल एक राजनीतिक मास्टरस्ट्रोक थी, बल्कि यह भी दर्शाती है कि गांधी परिवार का भरोसा आज भी उन पर बरकरार है।
दिग्गजों को महत्व देने का दांव
कांग्रेस अब अपनी रणनीति में बदलाव कर रही है। लंबे समय तक, कांग्रेस पर यह आरोप लगता रहा है कि वह अपने युवा नेताओं को बढ़ावा देने के चक्कर में अपने अनुभवी नेताओं को दरकिनार कर रही है। हालांकि, गहलोत को इस तरह के महत्वपूर्ण मुद्दे पर आगे करने का निर्णय यह भी दर्शाता है कि राहुल गांधी और पार्टी नेतृत्व को यह समझ में आ रहा है कि दिग्गजों को नजरअंदाज करके पार्टी को मजबूत करना आसान नहीं है। राहुल गांधी की रणनीति में युवा नेताओं को मौका देना और पार्टी को एक नया रूप देना शामिल रहा है। लेकिन, गहलोत जैसे दिग्गज नेताओं को महत्वपूर्ण अवसरों पर खास भूमिकाएं देकर, राहुल यह संदेश भी दे रहे हैं कि वे अनुभव और युवा ऊर्जा के बीच संतुलन बनाना चाहते हैं।
मोदी के सामने बराबरी का चेहरा
बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की राजनीतिक रणनीति का एक प्रमुख हिस्सा यह रहा है कि वे बड़े मुद्दों पर स्वयं या अपने सबसे वरिष्ठ नेताओं को ही सामने लाते हैं। मोदी का व्यक्तित्व और उनका राजनीतिक कद इतना बड़ा है कि उनके सामने किसी सामान्य नेता का टिक पाना मुश्किल है। कांग्रेस को इस बात का अहसास हो गया है कि मोदी को जवाब देने के लिए उन्हें भी उसी कद के नेता की आवश्यकता है। अशोक गहलोत का चयन इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। गहलोत न केवल अपने अनुभव और विश्वसनीयता के लिए जाने जाते हैं, बल्कि उनकी राजनीतिक सूझबूझ और जनता से जुड़ने की क्षमता भी उन्हें एक मजबूत चेहरा बनाती है। उनकी प्रेस कॉन्फ्रेंस ने न केवल सरकार पर दबाव बनाया, बल्कि यह भी दिखाया कि कांग्रेस के पास ऐसे नेता हैं, जो बड़े मुद्दों पर प्रभावी ढंग से अपनी बात रख सकते हैं।
मैसेजिंग की राजनीति का युग
भारतीय राजनीति में संदेश का महत्व हमेशा से रहा है, लेकिन डिजिटल युग और सोशल मीडिया के आगमन ने इसे और तीव्र कर दिया है। आज, कोई भी राजनीतिक दल केवल नीतियों या कार्यों के आधार पर नहीं, बल्कि अपनी बात को कितनी प्रभावी ढंग से जनता तक पहुंचा पाता है, इस आधार पर भी मूल्यांकन किया जाता है। यह मैसेजिंग की राजनीति है, जहां संदेश का प्रभाव उसकी सामग्री के साथ-साथ उसकी प्रस्तुति और प्रस्तुतकर्ता पर भी निर्भर करता है। कांग्रेस ने इस बदलते परिदृश्य को समझ लिया है। भारत-पाकिस्तान युद्ध विराम जैसे संवेदनशील और राष्ट्रीय महत्व के मुद्दे पर सरकार पर सवाल उठाने के लिए पार्टी ने अपने सबसे अनुभवी और वरिष्ठ नेताओं में से एक, अशोक गहलोत को चुना। यह निर्णय न केवल रणनीतिक था, बल्कि यह भी दर्शाता है कि कांग्रेस अब मैसेजिंग की बारीकियों को समझने और उसका उपयोग करने में सक्षम हो रही है।