ईश्वर अल्लाह तेरो नाम” पर छिड़ा विवाद 

0
152

कुमार कृष्णन 

बिहार में भजन पर विवाद  छिड़ गया है। पूर्व प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की स्मृति में पटना में आयोजित एक कार्यक्रम में उस समय बवाल हो गया जब लोक गायिका देवी ने प्रतिष्ठित भजन ‘रघुपति राघव राजा राम’ की प्रस्तुति दी और “ईश्वर अल्लाह तेरो नाम” की पंक्तियाँ गाईं। जैसे ही गायिका देवी ने पंक्तियां गाईं, दर्शकों के एक वर्ग ने विरोध किया और नारेबाजी शुरू कर दी। मामला बढ़ने पर गायिका देवी ने मंच से माफी मांगी। उन्हें माफी मांगने को भी कहा गया। इस दौरान पूर्व केंद्रीय मंत्री अश्विनी चौबे भी मौजूद रहे।

केंद्रीय मंत्री अश्विनी चौबे स्थिति को संभालने के लिए आगे आए। वह लोक गायिका को मंच से उतारते भी दिखे। माफीनामे के बाद कार्यक्रम स्थल पर ‘जय श्री राम’ के नारे गूंज उठे। अश्विनी चौबे ने भी ‘जय श्री राम’ की हुंकार भरी। महात्मा गांधी से निकटता से जुड़ा यह भजन एकता का संदेश देता है। ‘मैं अटल रहूंगा’ शीर्षक वाला कार्यक्रम, उनकी जयंती के अवसर पर भाजपा के दिग्गज नेता के योगदान को याद करने के लिए आयोजित किया गया था। कार्यक्रम में चौबे के अलावा डॉ. सीपी ठाकुर, संजय पासवान और शाहनवाज हुसैन भी मौजूद थे।

गांधी के विचारों को कथित तौर पर आत्मसात करने वाले मुख्यमंत्री के शासन में गांधी के नाम पर बने बापू सभागार में गांधी भजन पर  हंगामा बरपाना शर्मनाक है। 

घटना किसी को छोटी लग सकती है लेकिन इसके अर्थ बहुत गहरे हैं। ‘ रघुपति राघव राजा राम ‘ गाँधी का प्रिय भजन था। यह भजन हमारे राष्ट्रीय आंदोलन का हिस्सा था। इसने करोड़ों भारतीयों को एक दौर में राष्ट्रीय चेतना से अनुप्राणित किया था। विरोध की वजह भजन में ईश्वर- अल्लाह को एक साथ रखना था। यह हमारे द्विज-हिन्दुत्व का स्तर हो गया है। सिया-राम और सीता-राम को श्रीराम बनाया गया और अब ईश्वर अल्लाह को एक बताने पर कोहराम! हमारी संस्कृति में एकम् विप्रा बहुधा वदन्ति का आर्ष वाक्य है।एक ही सत्य को विद्वान अनेक तरह से कहते हैं। हम ईश्वर को अल्लाह या अल्लाह को ईश्वर नहीं कह सकते। यह उस संस्कृति के ध्वज-धारक बोल रहे हैँ जो वेदांत प्रतिपादित करने का गुमान पालते हैं जिसके अनुसार सभी ज़ड़-चेतन में एक ही ब्रह्म-तत्व विराजमान है।

मूल रूप से उपरोक्त भजन संत लक्ष्मण आचार्य का है जो इस प्रकार था-

रघुपति राघव राजाराम, पतित पावन सीताराम 

सुन्दर विग्रह मेघश्याम, गंगा तुलसी शालिग्राम।

गांधी ने इसे बदल कर राष्ट्रीय आंदोलन की जरूरतों के अनुरूप बनाया। उन्हें हिन्दू-मुस्लिम एकता और राष्ट्रीय सहमति की जरूरत थी। गांधी ने मूल भजन की दूसरी पंक्ति को बदल कर इस प्रकार कर दिया-

ईश्वर- अल्लाह तेरो नाम, सबको सन्मति दे भगवान 

गाँधी को सांस्कृतिक-वैचारिक तौर पर ईश्वर और अल्लाह को एक बनाने और देश में सन्मति विकसित करने की ग़र्ज थी। उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष में राष्ट्रीय एकता की जरूरत थी। दरअसल उन्हें एक नया राष्ट्रवाद विकसित करने की फ़िक्र थी। इस दिशा में अपनी समझ के अनुरूप वह कोशिश कर रहे थे।

हम लोगों ने यह भजन स्कूलों में प्रार्थना के तौर पर गाया। बिस्मिल्ला खान ने इस धुन को अपनी शहनाई से संवारा है।

कुछ चीजें विरासत की होती हैं। उसके सहारे हम एक विरासत संभाल रहे होते हैं।जैसे वन्दे मातरम गीत।बंकिम बाबू के उपन्यास आनंदमठ का यह गीत सन्यासी दल के मुस्लिम विरोधी अभियान का प्रस्थान गीत था लेकिन यह राष्ट्रीय आंदोलन का गीत और नारा बन गया। इस नाम से राष्ट्रीय संघर्ष की पत्रिका निकली। वन्दे मातरम् का नारा लगाते हुए अनेक स्वतंत्रता सेनानियों ने अपने प्राण उत्सर्ग किये। इसमें से अधिकांश उसकी पृष्ठभूमि से अनभिज्ञ थे।अब आज हम अपनी विरासत में जब वन्दे मातरम् को लेते हैं तो आनंदमठ के वन्दे मातरम को नहीं, स्वतंत्रता सेनानियों के वन्दे मातरम को लेते हैं। उसी प्रकार रघुपति राघव राजा राम का भजन अब संत लक्ष्मण आचार्य का नहीं, गांधी का भजन बन चुका है। और यह संप्रदाय विशेष का नहीं, राष्ट्रीय आंदोलन का गान बन चुका है। इसमें गांधी, उनका संघर्ष और राष्ट्रीय आंदोलन की स्मृतियाँ समाहित हैं

इसका राम हिन्दू से बढ़ कर भारतीय ही नहीं , वैश्विक बन जाता है. इसी भाव को इक़बाल ने राम को इमामे हिन्द कह कर व्यक्त किया था।

समारोह में जो उन्मादी भीड़ इस भजन के विरोध में उठ खड़ी हुई, वह हमारे देश-समाज में बढ़ रही फिरकापरस्ती, नफरत और तंगदिली की भावना को अभिव्यक्त कर रही थी। यह भावना कई स्तरों पर विकसित हो रही है। लोग अधिक असिहष्णु हो रहे हैं। ऐसे लोगों की समझ यही होती है कि हम सही हैं और दूसरे गलत। यह भाव इसलिए पनप रहा है कि ऐसी चीजें हमारे सामाजिक जीवन में फैलाई जा रही हैं। हम खंडित इतिहास संस्कृति और परंपरा को बढ़ावा दे रहे हैं जबकि परंपरा और संस्कृति एक सिलसिले में होती है। सिलसिले से निकाल कर जैसे ही हम किसी एक को रखते हैं, वह मर जाती है। दरअसल जो सभ्यता जितनी पुरानी होती हैं, उसकी जटिलताएं भी उतनी ही अधिक होती हैं। स्वयं जब हिन्दू परंपरा की बात करेंगे  तो उसमें सिंधु सभ्यता, वैदिकसभ्यता, उपनिषदों, जैनियों, बौद्धों, लोकायतिकों की दर्शन-परंपरा से लेकर सूफियों और भक्ति-आंदोलन जैसी अनेक सांस्कृतिक सक्रियताएं समाहित हैं।

हमारे राष्ट्रीय आंदोलन में ही जानें कितने तरह के विचार और बोध समाहित थे। गांधी भी थे और सावरकर आंबेडकर, सुभाष  और भगत सिंह जैसे परस्पर विरोधी मतों के लोग भी।अब कुछ लोगों की जिद होती है कि गांधी को ऊपर करो और इसके लिए आवश्यक है कि सावरकर, आंबेडकर, सुभाष आदि को नीचे करना। आंबेडकर कभी जेल नहीं गए और सावरकर गए तो माफी मांग कर निकल लिए जैसी बातों पर लोग जोर देते हैं। भगत सिंह फांसी पर चढ़ गए, इसलिए सब से बड़े वीर तो वह हैं। उनके सामने गांधी की क्या औकात ! तो ऐसी बहसें हमारे समाज में जारी हैं।

भारत को अनेक तरह और प्रवृत्तियों के लोगों ने मिल-जुल कर गढ़ा। इसमें दार्शनिक, कवि, राजनेता, सब थे लेकिन इसके सबसे महत्वपूर्ण शिल्पकार यहाँ के लोग रहे हैं। किसान, मजदूर, कारीगर रहे हैं। आधुनिक भारत की ही बात करें तो राजा राममोहन राय, विवियन डेरोजिओ, जोतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले, रमाबाई से लेकर रवींद्र, गांधी, नेहरू जैसे अब तक के हजारों लोगों ने इसे संवारने की कोशिश की है। इन सब के महत्त्व को हमें स्वीकार करना होगा।  गांधी के विचारों से सहमत और असहमत हो सकते हैं पर गांधी के विचारों को व्यक्त करने से रोकना, कम से कम बिहार में तो स्वीकार नहीं होना चाहिए लेकिन गांधी के भजन रघुपति राघव राजा राम, पतित पावन सीता राम में ऐसा क्या है जिसपर आपत्ति हो। वाल्टेयर का कथन याद आता है,  “जरूरी नहीं है कि मैं आपकी बात से सहमत रहूं लेकिन मैं आपके बोलने के अधिकार की मरते दम तक रक्षा करुंगा।’’ 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

17,871 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress