अर्थव्यवस्था को संकट में डालता कोरोना

0
159

प्रमोद भार्गव

चीन में फैले कोरोना वायरस को भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए बड़ा संकट माना जा रहा है। लेकिन स्वास्थ्य के लिए संकट बनी इस महामारी को भारत को सुनहरे अवसर के रूप में भुनाने की जरूरत है। शायद इसी दृष्टि से वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने उद्योग जगत के दिग्गजों के साथ बैठक में भागीदारी कर कहा है कि सरकार घरेलू उद्योगों पर कोरोना के पड़ने वाले असर से निपटने के लिए नए उपाय तलाशेगी। इस संकट से जहां आयात-निर्यात बड़े पैमाने पर प्रभावित हुआ, दवा उद्योग पर इसका सबसे ज्यादा असर दिखाई दे रहा है। औषधि विशेषज्ञों का कहना है कि दवाओं के आयात में चीन की कुल हिस्सेदारी 67.56 प्रतिशत है। चीन में यदि कोरोना का कहर जल्द खत्म नहीं होता है तो औषधि निर्माण में उपयोग में लाए वाले रासायनों की कमी का सामना करना पड़ेगा। इस कच्चे माल की कमी के चलते दवाओं की कीमतों में भारी उछाल देखने को मिल सकता है। औषधि उद्योग के अलावा वस्त्र, ऑटो और दूरसंचार से जुड़े उद्योग भी प्रभावित होंगे। इस संकट से यह सबक लेने की जरूरत है कि किसी एक देश पर जरूरत से ज्यादा कच्चे माल के आयात पर निर्भरता नहीं बढ़ाई जानी चाहिए। अब दूसरे देशों से आयात की सीमा बढ़ाने के साथ, कुछ ऐसे उपाय किए जाएं कि देश में ही उपलब्ध कच्चे माल से दवाओं के रसायन एवं ऑटो, टेलीकाॅम व टेक्सटाइल से जुड़े उपकरण भारत में ही बनें।कोरोना का सबसे ज्यादा प्रभाव भारत में दवा उद्योग पर पड़ने की आशंका जताई जा रही है। फिलहाल दवा कंपनियों की समिति ‘इंडिया फार्मास्युटिकल एलायंस‘ (आईपीए) ने भारत सरकार को सूचित किया है कि फिलहाल दो-तीन माह की दवाओं का भंडार उपलब्ध है। चीन से पिछले करीब एक माह से कोई सामग्री नहीं आ पाई है। समिति के महासचिव सुदर्शन जैन ने कहा है कि यदि सरकार वि-निर्माण इकाईयों के लिए तेजी से पर्यावरणीय मंजूरी दे दे तो चीन पर निर्भरता कम हो जाएगी। भारत चीन से 17000 करोड़ रुपए का दवा निर्माण संबंधी कच्चा माल आयात करता है। भारत में दवाएं बनाने का ज्यादातर कच्चा माल भारतीय जंगलों व पहाड़ों की कोख में उपलब्ध है। इसके साथ ही हमें देश में एलोपैथी के साथ-साथ अन्य वैकल्पिक चिकित्सा पद्धत्तियों को भी मजबूत करने की जरूरत है।

चीन के साथ दवा आयात-निर्यात के सिलसिले में विडंबना है कि भारतीय दवा कंपनियां जहां अमेरिका और यूरोपीय संघ को जेनरिक दवाओं का बड़ी मात्रा में निर्यात करती हैं, वहीं चीन को इनका निर्यात संभव नहीं हो पा रहा है। चीन के साथ इस कारण भारत को व्यापार घाटा उठाना पड़ रहा है। इस क्षेत्र में भविष्य में संतुलन बिठाने की जरूरत है। दोनों देशों के बीच 2001-02 में आपसी व्यापारिक लेन-देन की शुरूआत महज तीन अरब डाॅलर से हुई थी, जो 2017-18 में बढ़कर करीब 90 अरब डाॅलर पहुंच गई है। भारत मुख्य रूप से चीन से कार्बनिक रासायन, इलेक्ट्रिक और मेकेनिकल उपकरण, वस्त्र और मोबाइल खरीदता है। जबकि भारत लोहा, कपास और खनिज ईंधन का निर्यात करता है। यह निर्यात बमुश्किल 14-15 अरब डाॅलर तक हो पाता है।इस असंतुलन से निपटने के लिए जरूरी है कि भारत ऐसे घरेलू उद्योगों को बढ़ावा दे, जो हमारी पारंपरिक उद्यमिता से जुड़े हैं। भारत में होली के अवसर पर चीनी उत्पादों की भरमार होती है। इनका आयात इस पर्व के एक-डेढ़ माह पहले शुरू हो जाता है। किंतु इसबार भारतीय बाजारों में होली से जुड़े चीनी उत्पाद दिखाई नहीं दे रहे है। चीन में कोरोना की मौजूदा स्थिति को देखते हुए आयात पर पूरी तरह प्रतिबंध है। चीन से पिचकारियों के अलावा रंग, गुलाल स्प्रिंकलर्स भी बड़ी मात्रा में आयात किए जाते हैं। इन सभी वस्तुओं के निर्माण में हमारे यहां परंपरागत रूप से कुशल कारीगर हैं। इनके निर्माण में न तो भारी मशीनों की जरूरत पड़ती है और न ही बड़ी पूंजी लगानी पड़ती है।

इसी तरह दीवाली और रक्षाबंधन पर्वों में उपयोगी सामग्री का चीन से बड़ी मात्रा में आयात किया जाता है। इनमें दीपक, झालर, मोमबत्ती और राखी जैसी मामूली वस्तुएं होती हैं। इन्हें हमारे परंपरागत कारीगर घरों में ही बना लेते हैं। किंतु इनका चीन से निर्यात किए जाने के कारण ये कुशल कारीगर हाथ पर हाथ धरे बैठ गए हैं। इन घरेलू उद्योगों को यदि पुनर्जीवित कर दिया जाए तो बड़ी संख्या में रोजगार का सृजन होगा और हमें चीन से इन वस्तुओं के आयात में विदेशी मुद्रा भी खर्च करनी नहीं पड़ेगी। चीन से इन वस्तुओं के सस्ते होने का दावा किया जाता है। दरअसल वहां ये वस्तुएं कम लागत में इसलिए तैयार कर ली जाती हैं, क्योंकि चीनी व्यापारी इन वस्तुओं में इस्तेमाल सामग्री गांव-गांव उनलोगों तक पहुंचा देते हैं, जो इन्हें बनाने में रुचि लेते हैं। इससे कारीगरों के शहर में आकर काम करने में जो खर्च होता है, उसकी बचत होती है। नतीजतन वस्तुएं कम लागत में तैयार कर ली जाती हैं। इन वस्तुओं के निर्माण में महिलाओं व बच्चों की भी भागीदारी रहती है। इस वजह से बच्चे खेलते-खेलते कुशल कारीगर बन जाते हैं। एक तय समय पर व्यापारी इन निर्मित वस्तुओं को शहर में लाकर आकर्षक पैकिंग कर निर्यात कर देते हैं। यदि हमारे व्यापारी इस तरीके को अपनाएं तो ग्रामों में कच्चा माल पहुंचाकर कम से कम लागत में इन वस्तुओं का निर्माण किया जा सकता है। यदि ये उपाय फलीभूत होते है तो 15 से 17 करोड़ ग्रामीण महिलाओं को रोजगार के अवसर दिए जा सकते हैं। भारत में विडंबना रही है कि पिछले दशक में भारत की आर्थिक प्रगति के बावजूद श्रम-शक्ति में महिलाओं की भागीदारी घटी है।

हाल ही में आई बेन एंड कंपनी एवं गूगल की सर्वे रिपोर्ट से पता चला है कि इस तरह के रोजगार में महिलाओं की भागीदारी की जाए तो भारत का आर्थिक, शैक्षिक और सामाजिक परिदृश्य में बड़ा बदलाव आ सकता है। ग्रामीण एवं अर्धशहरी सवा से डेढ़ करोड़ महिलाओं को उद्यमी बना दिया जाए तो 15 से लेकर 17 करोड़ लोगों को रोजगार के अवसर पैदा होंगे।चीन पर व्यापार की निर्भरता घटाने के लिए ऑटो, टेलिकाॅम और टेक्सटाइल उद्योगों को बढ़ावा देने की दृष्टि से यदि रक्षा विज्ञान एवं अनुसंधान संगठन (डीआरडीओ) की कार्यप्रणाली को अंजाम दे दिया जाए तो हम न केवल इन क्षेत्रों में आत्मनिर्भर होंगे, बल्कि निर्यात की स्थिति में भी आ जाएंगे। डीआरडीओ के अध्यक्ष सतीश रेड्डी ने बताया है कि हम 1800 लघु उद्योगों को साथ लेकर काम कर रहे हैं। हमने ऐसी आधुनिक तकनीकों पर भी काम में सफलता पाई है, जिनसे कई प्रकार के हथियार बना लिए हैं। इन्हें जल्द ही सेना को सौंप दिया जाएगा। यह प्रणाली ‘मेक इन इंडिया‘ के लिए सुनहरा अवसर है। इस दृष्टि से जब हम रक्षा उत्पादों में आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ सकते हैं तो ऑटो, टेलीकाॅम, टेक्सटाइल और दवा उद्योग में आत्मनिर्भरता हासिल क्यों नहीं कर सकते?

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

17,871 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress