पर्व - त्यौहार

कोरोना दुष्प्रभाव:विश्व इतिहास में पहली बार ‘मीठी ईद हुई फीकी’

निर्मल रानी

 ईदुल फ़ित्र को मुसलमानों का सबसे प्रमुख त्यौहार माना जाता है। भारत-पाकिस्तान में इसे ईद या मीठी ईद के नाम से भी संबोधित किया जाता है। दरअसल ईद के दिन का सबसे प्रमुख पकवान चूँकि मीठी सेवईं होता है इसी लिए इसे मीठी ईद भी कहते हैं। ईद से ठीक पहले मुस्लिम समुदाय के लोगपूरे एक महीने तक रमज़ान के दिनों में रोज़ा रखते हैं। रोज़ा के दौरान नमाज़,क़ुरान शरीफ़ का पाठ करना जैसी इबादतों के अलावा वार्षिक तौर पर दी जाने वाली ज़कात,फ़ितरा,व ख़ैरात आदि भी माह-ए-रमज़ान की समाप्ति पर यानि ईद के दिन ही वितरित की जाती है। कुल मिलाकर रोज़दार मुसलमानों के लिए एक माह के कठिन रोज़े के दौर से सफलता से गुज़रना ईद की ख़ुशी का सबसे बड़ा कारण होता है। भारत जैसे बड़ी मुस्लिम आबादी वाले देश में तो रमज़ान व ईद के दौरान बड़े पैमाने पर होने वाली ख़रीद दारी का प्रभाव देश की अर्थ व्यवस्था पर भी पड़ता है।
                       परन्तु इस बार कोरोना के प्रकोप के बीच जिस तरह पूरा रमज़ान बीता उसके बाद मीठी ईद का स्वाद भी फीका पड़ा उसने पूरे विश्व को मायूस कर दिया। मुस्लिम समाज वैसे तो पूरे रमज़ान में लगभग महीने भर ख़रीददारी करता था। परन्तु रमज़ान के आख़री सप्ताह में विशेषकर ज़बरदस्त  ख़रीददारी की जाती थी। रमज़ान माह के आख़िरी जुमे के दिन से ही ईद की रौनक़ नज़र आने लगती थी। पूरी की पूरी बाज़ार अक़ीदतमंदों की भीड़ से पटा होता था। बाज़ार के पूरे वातावरण में ,ख़ुश्बू,इत्र,केवड़ा व अगरबत्तियों की सुगंध महसूस की जाती थी। ईद के दिन पूरे देश की ईद गाहों व प्रमुख मस्जिदों में सामूहिक नमाज़ें अदा की जाती थीं। मुस्लिम समाज के लोग ईद में नए कपड़े ज़रूर सिलवाते थे। बच्चों व महिलाओं का उत्साह तो इस त्यौहार को कुछ ज़्यादा ही आकर्षक बनता था। मस्जिदों के बाहर ग़रीब व असहाय लोगों का एक हुजूम दिखाई देता था जो नमाज़ के बाद दान-पुण्य  प्राप्त करने के मक़सद से नमाज़ ख़त्म होने की प्रतीक्षा में खड़ा रहता था।
                            बहरहाल,कोरोना कोविड-19 महामारी ने पिछले लगभग चार महीनों से पूरी दुनिया की रफ़्तार ठप कर दी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन इस महामारी से बचाव के सबसे महत्वपूर्ण उपायों में सर्वप्रथम उपाय चूँकि यही सुझा रहा है कि दुनिया का हर इंसान एक दूसरे से पर्याप्त फ़ासला बना कर रखे। इस व्यवस्था से ही न केवल उद्योग,व्यवसाय,बाज़ार,भू,वायु व जल परिवहन,सरकारी व ग़ैर सरकारी कार्यालय,सभी शिक्षण संस्थाओं,समस्त संस्थानों में सन्नाटा पसर गया बल्कि इंसानों की गहन आस्था के प्रतीक मंदिर,मस्जिद,चर्च,गुरद्वारे,दरगाहें,मदरसे,इमामबाड़े आदि जगहों पर भी ताले लटकने लगे। त्यौहार,धार्मिक व सामाजिक आयोजन,शादी,विवाह यहां तक कि अंतिम संस्कार आदि सभी अवसर पर एक अजीब भय युक्त सन्नाटा नज़र आने लगा। और इसी दरम्यान मुसलमानों के दो सबसे महत्वपूर्ण एवं पवित्र त्यौहार एक महीने का रमज़ान और गत 25 मई को ईद का त्यौहार भी गुज़रा।
                            मुसलमान भाई रमज़ान के दिनों में अन्य दिनों की तुलना में कुछ ज़्यादा ही इबादत गुज़ारी करते हैं। इसलिए लगभग पूरे रमज़ान माह में मस्जिदों में भरपूर रौनक़ नज़र आती है। सामूहिक नमाज़ें अदा की जाती हैं जिसमें अन्य दिनों से ज़्यादा लोग इकट्ठे होते हैं। सामूहिक रूप से रोज़ा इफ़्तार भी लगभग सभी मस्जिदों में पूरे महीने चलता है। और रात में तरावीह भी पढ़ते हैं जिसके अंतर्गत रमज़ान के दौरान ही पूरे क़ुरान शरीफ़ का पाठ करना होता है। ये सभी कार्यक्रम व आयोजन मुसलमान भाई सामूहिक रूप से करते हैं। पवित्रता का पूरा ध्यान रखा जाता है। परन्तु धन्य हैं भारतीय मुसलमानों के वे रहनुमा,इमाम व धर्मगुरु जिन्होंने रमज़ान शुरू होने से पहले ही मुस्लिम समाज को इस बात के लिए जागृत करना व उन्हें निर्देश देना शुरू कर दिया था कि ‘रमज़ान की सभी इबादतें अपने घरों पर तन्हा करें,मस्जिदों में आने की तकलीफ़ न करें,सरकार के महामारी संबंधी निर्देशों का पालन करें’। यहाँ तक कि मस्जिदों से लाऊड स्पीकर से दी जाने वाली अज़ान भी सिर्फ़ इसलिए बंद करा दी गयीं ताकि कहीं मुस्लिम भाई अज़ान की आवाज़ सुनकर मस्जिदों की तरफ़ न आने लगें।
                         रमज़ान के अंतिम दिनों में जब सरकार ने लॉक डाउन के मध्य धीरे धीरे बाज़ार खुलने के आदेश दिए उस दौरान भी मुसलमानों ने भीड़ लगाकर ख़रीददारी करने से परहेज़ किया। बेशक इसका प्रभाव बाज़ार व अर्थ व्यवस्था पर ज़रूर पड़ा परन्तु ऐसा कर मुसलमानों ने यह साबित कर दिया कि देश के मुसलमानों का वह चेहरा नहीं है जो तब्लीग़ी जमाअत के एक कृत्य के रूप में दलाल मीडिया पेश करना चाह रहा था। बल्कि ठीक इसके विपरीत रमज़ान महीने में ही कहीं कुछ मुस्लिम युवक अपना रोज़ा त्याग कर किसी ज़रूरत मंद हिन्दू परिवार को रक्तदान करते दिखाई दिए। कहीं रमज़ान में रोज़ा रखकर जम्मू-कश्मीर में बीएसएफ कांस्टेबल ज़िया-उल-हक़ और उनके हिन्दू रोज़दार मित्र राणा मंडल श्रीनगर में इफ़्तार करने से पहले ही आतंकियों के हाथों देश के लिए शहीद होते दिखाई दिए। हज़ारों मुसलमान भाइयों ने ईद पर ख़र्च की जाने वाली अपनी रक़म बेघर व बेसहारा श्रमिकों की सेवा में ख़र्च करने जैसे पुण्य कार्य को ही सच्ची इबादत का माध्यम महसूस किया। यहां तक कि देश में मुसलमानों द्वारा श्रमिकों के लिए सैकड़ों लंगर ऐसे भी लगाए गए जहाँ रोज़ा रखे हुए रोज़दार मुसलमान ख़ुद भूखे प्यासे रहकर भी दूसरों को जलपान करा रहे थे तथा उनके आराम की व्यवस्था में लगे थे। अनेक मुसलमानों ने तो हज जैसे पवित्र फ़र्ज़ को अंजाम देने हेतु रखा गया पैसा भी ग़रीबों व बेसहारा श्रमिकों की सेवा में ख़र्च कर मानवता की मिसाल पेश की।
                         परन्तु नकारत्मकता पर ही अपनी सोच व नज़रें केंद्रित रखने वाले सरकारी ईनाम की प्रतीक्षा की लंबी क़तार में लगे कई क़लम घिस्सुओं व इनकी मानसिकता वाले मीडिया को यह सब बिल्कुल नज़र नहीं आया। उन्हें तो केवल जमाअत,मस्जिदों व बाज़ारों में मुसलमानों की भीड़ और मुस्लिम सब्ज़ी विक्रेताओं द्वारा सब्ज़ी बेचने के बहाने ‘कोरोना जिहाद’ फैलाना ही दिखाई देता रहा। जबकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देशवासियों को ईद की बधाई देते हुए कहा -‘ईद-उल-फ़ित्र की शुभकामनाएं। यह विशेष पर्व करुणा, भाईचारे और सौहार्द की भावना को आगे बढ़ाए। सभी स्वस्थ और समृद्ध हों।’ गृह मंत्री अमित शाह ने कहा कि ‘ ईद-उल-फ़ित्र  के अवसर पर मेरी ओर से शुभकामनाएं। यह त्योहार सभी की ज़िन्दिगी में शांति और ख़ुशी लेकर आए।’ इसी प्रकार कर्नाटक के मुख्यमंत्री बी एस येदियुरप्पा ने ईद-उल-फ़ित्र केअवसर पर मुसलमानों को बधाई दी। उन्होंने अपने बधाई संदेश में कहा कि  ‘‘ ईद-उल-फ़ित्र की बधाई। शांति और मेल-मिलाप का यह त्योहार ज़िंदिगी में  ख़ुशियां लेकर आए।उन्होंने कहा ‘मैं कोविड-19 के ख़िलाफ़ जंग में सहयोग के लिए आप सभी का शुक्रिया अदा करता हूं।’’ बहरहाल मक्का में हरम शरीफ़ से लेकर पूरे विश्व की मस्जिदों में छाया सन्नाटा और इसी दौरान ईद जैसा ख़ुशियों भरा त्यौहार जैसे तैसे मनाया तो गया परन्तु विश्व इतिहास में पहली बार कोरोना संकट के चलते ‘मीठी ईद फीकी ज़रूर पड़ गई।