मतांतरण पर सही संदेश, दलितों के हिस्से के अवसर मतांतरित ईसाइयों एवं मुस्लिमों को नहीं दिए जा सकते

मतांतरण वस्तुतः राष्ट्रांतरण होता है। मतांतरित व्यक्ति अपनी जन्मभूमि, इतिहास और संस्कृति से टूट जाता है। भारत ईसाई, इस्लामी जोर जबरदस्ती, लोभ, भय आधारित मतांतरण का भुक्तभोगी है। मद्रास हाई कोर्ट में एक महिला ने ईसाई होने के बावजूद हिंदू दलित होने का प्रमाण पत्र मांगा था।

न्यायालय ने टिप्पणी की कि केवल नौकरी के लिए मतांतरण संविधान विरुद्ध है। सुप्रीम कोर्ट ने मद्रास हाई कोर्ट के फैसले को स्वीकार कर लिया है। न्यायालय ने कहा है कि आरक्षण का लाभ लेने के लिए मतांतरण संविधान के साथ धोखाधड़ी है। सुप्रीम कोर्ट के ताजा निर्णय से राष्ट्र प्रसन्न है।

राष्ट्रपति के 1950 के आदेश में कहा गया है कि सिर्फ हिंदुओं, बौद्ध, जैन सहित सिखों के दलितों को अनुसूचित जाति का दर्जा मिल सकता है। संविधान में धर्म प्रचार (अनु. 25) की स्वतंत्रता है और किसी भी पंथ या विश्वास को स्वीकार करने की भी। कोर्ट ने बल देते हुए कहा कि मतांतरण सच्चे विश्वास से प्रेरित होते हैं न कि गुप्त उद्देश्यों से।

मतांतरित दलित ईसाई-मुस्लिम की आरक्षण से जुड़ी मांग पुरानी है। मतांतरित अनुसूचित जाति को सरकारी प्रयोजनों के लिए अनुसूचित जाति का नहीं माना जा सकता। उन्हें ईसाई या मुस्लिम बन जाने का कोई लाभ नहीं मिलेगा। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के व्यापक प्रभाव होंगे।

मतांतरण अंग्रेजी राज के पहले से ही राष्ट्रीय बेचैनी का विषय रहा है। मिशनरी अस्पताल, स्कूल और तमाम सुविधाएं सेवाएं देकर गरीबों का मतांतरण कराते हैं। तमिलनाडु, केरल, तेलंगाना और झारखंड आदि कई राज्यों में मतांतरण जारी है। महात्मा गांधी ने वर्ष 1936 में हरिजन में लिखा था, ‘आप पुरस्कार के रूप में चाहते हैं कि आपके मरीज ईसाई बन जाएं।’ डा. आंबेडकर ने भी कहा था, ‘गांधी जी के तर्क से वह सहमत हैं, लेकिन उन्हें ईसाई पंथ प्रचारकों से दो टूक शब्दों में कह देना चाहिए कि अपना काम रोक दो।’

उन्होंने व्लादिमीर के ईसाई होने और एक साथ भारी भीड़ के मतांतरण का उदाहरण देते हुए कहा, ‘इतिहास गवाह है कि धोखाधड़ी के कारण धर्म परिवर्तन हुए हैं।’ अफ्रीकी आर्कबिशप डेसमंड टूटू ने कहा था, ‘जब मिशनरी अफ्रीका आए तब उनके पास बाइबल थी और हमारे पास धरती। मिशनरी ने कहा हम सब प्रार्थना करें। हमने प्रार्थना की। आंखें खोलीं तो पाया कि हमारे पास बाइबल थी और भूमि उनके कब्जे में।’

मतांतरित व्यक्ति की देश के प्रति कोई आस्था नहीं होती। उसके आराध्य भी बदल जाते हैं। विश्वविख्यात लेखक वीएस नायपाल ने लिखा है, ‘जिसका धर्म परिवर्तन होता है, उसका अपना अतीत नष्ट हो जाता है। नए विश्वास के कारण उसके पूर्वज बदल जाते हैं। उसे कहना पड़ता है कि हमारे पूर्वजों की संस्कृति अस्तित्व में नहीं है और न ही कोई मायने रखती है।’

आजादी के बाद चार-पांच साल की अवधि में मध्य प्रदेश की कांग्रेसी सरकार भी मतांतरण से परेशान रही। उस दौर में मुख्यमंत्री रहे रविशंकर शुक्ल ने न्यायमूर्ति भवानी शंकर नियोगी की अध्यक्षता में जांच कमेटी बनाई। समिति ने 14 जिलों के लगभग 12,000 लोगों के बयान लिए। ईसाई संस्थाओं को भी अपना पक्ष रखने का अवसर मिला।

नियोगी समिति ने मतांतरण के लक्ष्य को लेकर भारत आए विदेशी तत्वों को देश से बाहर करने की सिफारिश की। उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति एमएल रेंगे के नेतृत्व वाली जांच समिति ने ईसाई मतांतरण को ही दंगों का कारण बताया। वेणुगोपाल आयोग ने यह कृत्य रोकने के लिए नए कानून की सिफारिश की। ओडिशा में सक्रिय ईसाई पंथ प्रचारक ग्राहम स्टेंस और उनके दो बच्चों को जलाकर मारने की जांच करने वाले वाधवा आयोग ने भी ईसाई मतांतरण को चिह्नित किया।

वर्ष 2020 में मोदी सरकार ने सख्ती दिखाई और चार बड़े ईसाई संगठनों के अनुमति पत्र एवं विदेशी अनुदान विनियमन अधिनियम संबंधी प्रविधान निरस्त कर दिए। अधिनियम के संशोधन में सभी एनजीओ को 20 प्रतिशत से अधिक प्रशासनिक व्यय न करने के निर्देश हैं।

इससे पूर्व एनजीओ विदेशी सहायता का 50 प्रतिशत हिस्सा प्रशासनिक खाते में दिखाते थे, मगर इस राशि का उपयोग मतांतरण के लिए होता रहा। विदेशी अनुदान को किसी अन्य संगठन को हस्तांतरिण पर भी रोक लगाई थी। प्रत्येक दृष्टि से प्रशंसनीय इस कानूनी संशोधन का भी विरोध हुआ। तृणमूल कांग्रेस ने अधिनियम का विरोध किया था। कांग्रेस के अधीर रंजन चौधरी ने इसे विपक्ष की आवाज दबाने की कोशिश कहा था।

धर्म प्रचार का अधिकार खतरनाक है। इसका सदुपयोग विरल है और फायदे के लिए दुरुपयोग आसान। धर्म उपभोक्ता वस्तु नहीं है। उपभोक्ता वस्तुओं का प्रचार होता है। धर्म साधना के तल पर व्यक्तिगत है और सामूहिक स्तर पर राष्ट्रजीवन की आचार संहिता। ईसाई और इस्लाम सहित सभी पंथ, मत और मजहब धर्म नहीं हैं। वे पंथ/रिलीजन हैं। प्रत्येक पंथ और रिलीजन का कोई न कोई पैगंबर या देवदूत होता है।

सनातन धर्म में ऐसा नहीं है। संविधान सभा के अधिकांश सदस्य धर्म प्रचार के अधिकार के विरुद्ध थे। सभा में तजम्मुल हुसैन ने कहा था, ‘मैं आपसे अपने तरीके से मुक्ति के लिए क्यों कहूं? आप भी मुझे ऐसा क्यों कहें? आखिरकार धर्म प्रचार की आवश्यकता क्या है?’ लोकनाथ मिश्र ने धर्म प्रचार को गुलामी का दस्तावेज बताया था।

केएम मुंशी ने कहा, ‘भारतीय ईसाई समुदाय ने इस शब्द के रखने पर जोर दिया। परिणाम कुछ भी हो। हमने जो समझौते किए हैं। हमें उन्हें मानना चाहिए।’ इसका अर्थ यही है कि भारतीय नेतृत्व ने अंग्रेजी सत्ता से धर्म प्रचार के अधिकार को संविधान में जोड़ने का समझौता किया था?

मतांतरित अनुसूचित जातियों, दलितों को अनुसूचित जाति की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। मतांतरित दलितों को अनुसूचित जाति का होने के आधार पर आरक्षण देना भारतीय समाज के साथ कदम मिलाकर चलने वाले मूल दलितों को क्षति पहुंचाना है। दलितों ने तमाम कष्ट सहे हैं। वे राष्ट्रजीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सक्रिय हैं।

उनके हिस्से के अवसर मतांतरित ईसाइयों एवं मुस्लिमों को नहीं दिए जा सकते। शीर्ष अदालत ने इस विचार को खारिज कर दिया है। मतांतरण के कृत्य में जुटी मिशनरियों को गरीबों, अनुसूचित जातियों को मतांतरण का चारा फेंकने की प्रवृत्ति रोकनी होगी। सुप्रीम कोर्ट का ताजा फैसला स्वागतयोग्य है।

हृदयनारायण दीक्षित

(लेखक_ उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं)

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