भ्रष्ट मेडिकल कौंसिल की बिदाई

courtभारत का सर्वोच्च न्यायालय आजकल छक्के पर छक्के लगा रहा है। जो काम सरकार को करना चाहिए और वह नहीं करती है, उसे सर्वोच्च न्यायालय उसके कान मरोड़कर करवाता है। कल उसके दो फैसले आए। ये दोनों ही फैसले देश की चिकित्सा-व्यवस्था से संबंधित हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने भारत की मेडिकल कौंसिल को लगभग भंग कर दिया है। यह कौंसिल देश में डाक्टरी की पढ़ाई, मेडिकल कालेजों की मान्यता, डाक्टरों की डिग्रियों और दवाईयों की मान्यता आदि के महत्वपूर्ण फैसले करती है।

अदालत ने इस कौंसिल के सारे अधिकार एक नई कमेटी को दे दिए हैं, जिसके अध्यक्ष होंगे, भारत के पूर्व न्यायाधीश आर.एम. लोढ़ा। यह कमेटी तब तक काम करती रहेगी, जब तक कि भारत सरकार इस कौंसिल की जगह कोई बेहतर प्रबंध नहीं करती। मेडिकल कौंसिल जैसी शक्तिशाली संस्था को इतना तगड़ा झटका देने का कारण क्या है?
इस कौंसिल की दुर्दशा का वर्णन करते हुए एक संसदीय कमेटी ने कहा है कि देश में चिकित्सा-शिक्षा एकदम निचले पायदान पर पहुंच गई है। कौंसिल गले-गले तक भ्रष्टाचार में डूबी हुई है। मेडिकल कालेजों की मान्यताएं देते वक्त उनकी गुणवत्ता का नहीं, करोड़ों रु. की रिश्वत का ध्यान रखा जाता है। देश के 400 मेडिकल कालेजों से डाक्टरों की उपाधियां लेने वाले नौजवानों में से कइयों को डाक्टरी का क ख ग भी पता नहीं होता है। उनकी उपाधियां तो बोगस होती हैं, उन्हें प्रवेश देते समय ये कालेज लाखों-करोड़ों रु. उनसे झपट लेते हैं। वे डॉक्टर का चोला धारण करते ही मरीजों से अपनी वसूली चालू कर देते हैं।

ये नीम-हकीम खतरे-जान तो होते ही हैं, वे खुले-आम डकैती भी करते हैं। हमारे डाक्टर दवा-कंपनियों के दलाल बनकर रोगियों को लुटवाने में जरा भी संकोच नहीं करते। यदि मेडिकल कौंसिल मुस्तैद हो तो इस दुर्दशा पर काबू पाया जा सकता है। संसदीय कमेटी ने जितनी कठोर टिप्पणियां की हैं, उनसे भी ज्यादा तेजाबी टिप्पणियां अदालत ने की है।
अदालत ने एक दूसरे फैसले में मेडिकल कालेजों द्वारा ली जाने वाली ‘केपिटेशन फी’ को अवैध घोषित कर दिया है। देश भर के गैर-सरकारी मेडिकल कालेज आजकल छात्रों को भर्ती करते समय उनसे एक-एक–दो-दो करोड़ रु. तक की घूस खाते हैं। बिल्कुल अयोग्य और निकम्मे छात्र भी पैसे के जोर पर डाक्टरी की डिग्री ले लेते हैं। वे इस पवित्र व्यवसाय के कलंक हैं। इन कलंकितों को घूस देनी पड़ती है लेकिन जो गुणी छात्र होते हैं, वे डेढ़-डेढ़ दो-दो लाख रु. प्रतिमाह की फीस कैसे भर सकते हैं? उन्हें मेडिकल की पढ़ाई से वंचित कर दिया जाता है। अदालत ने इस पर चिंता व्यक्त की है।
लेकिन अफसोस कि अदालत ने मेडिकल की पढ़ाई स्वभाषा में करवाने के बारे में कुछ नहीं कहा। मेडिकल के नाम पर सिर्फ खर्चीली ‘एलोपेथी’ पर जोर देना और अपनी आयुर्वेदिक, यूनानी और प्राकृतिक चिकित्सा की उपेक्षा करना उचित नहीं है। ये दोनों प्रवृत्तियां भी भ्रष्टाचार को बढ़ावा देती हैं और चिकित्सा को मंहगा भी बनाती है।

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