शिक्षा संस्थानों में संभावनाओं की मौत

संदर्भःउच्च शिक्षा संस्थानों में छात्राओं का यौन उत्पीड़न एवं आत्महत्याएं
प्रमोद भार्गव
इसे उच्च शिक्षा संस्थानों की विडंबना ही कहा जाएगा कि अब तक गुरुओं की प्रताड़ना के चलते शिष्यों की आत्महत्याओं के मामले सामने आते रहे हैं, किंतु अब अपनी पुत्री समान छात्राओं के साथ दुष्कर्म के मामले भी सिलसिलेवार सामने आ रहे हैं। ओड़ीसा के बालासोर में यौन उत्पीड़न की शिकायत पर कार्यवाही न होने से परेशान छात्रा ने आत्मदाह कर लिया। इसी तरह बैंग्लुरु में दो शिक्षक हवस पूर्ति के लिए हैवान बन गए। इन शिक्षकों ने छात्रा को नोट्स देने के लिए बुलाया और दुष्कर्म किया। कोलकाता के आईआईएम की एक मनोवैज्ञानिक महिला परामर्शदाता के साथ छात्रावास में कथित दुष्कर्म का मामला भी सामने आया है। उच्च शिक्षा परिसरों के ये मामले चिंता के साथ शर्मसार करने वाले हैं। इन संस्थानों में प्रताड़ना के चलते आत्महत्या के मामले भी नहीं थम रहे है। नोएडा के शारदा विश्वविद्यालय में दंत चिकित्सा की छात्रा ने छात्रावास के अपने कक्ष में पंखे से लटककर आत्महत्या कर ली। छात्रा द्वारा आत्महत्या से पहले लिखे पत्र में विवि के डीन एम सिद्धार्थ, प्राध्यापक सैरी मैडम, महेंद्र, अनुराग अवस्थी, आशीष कुमार एवं सुरभि को प्रताड़ना का दोषी ठहराया है। पुलिस ने महेंद्र एवं सैरी को गिरफ्तार कर लिया है। विवि प्रशासन ने इन दोनों के अलावा अन्य तीन प्राध्यापकों को निलंबित कर दिया है।
यह अत्यंत बैचेन करने वाला विषय है कि उच्च शिक्षा के लिए हम विदेशी विवि भारत में खोलने के फैसले ले रहे हैं, दूसरी ओर हम अपनी शिक्षा संबंधी नीतियों में पश्चिम का जरूरत से ज्यादा अनुकरण कर रहे हैं। जबकि हमें अपने ही संस्थानों में बुनियादी सुधार की जरूरत है। यदि हम विदेशी शिक्षा को प्रोत्साहित करेंगे तो छात्र एवं अभिभावक देसी संस्थानों को दोयम दर्जे का मानने लग जाएंगे। वैसे भी विदेशों में पढ़ाई के चलते प्रतिभाओं के पलायन का संकट खड़ा हो रहा है। शिक्षकों द्वारा दुष्कर्म और प्रताड़ना के बढ़ते मामलों से तय होता है कि एक तो हमारे शिक्षक वैभव और भोग की हसरतें पालने लगे हैं, दूसरे वे छात्रों में उम्मीदों की उड़ान पैदा करने की बजाय निराशा, कुंठा और अवसाद पैदा कर रहे हैं। लगता है शिक्षकों पर राष्ट्रीय शिक्षा नीति का भी कोई उत्साहजनक असर नहीं पड़ा है। अन्यथा इस तरह की शर्मसार कर देने वाली घटनाएं घटती ही नहीं।
21वीं सदी को ज्ञान की सदी की संज्ञा दी गई है। ज्ञान परंपरा और मातृभाषाओं में शिक्षा दिए जाने की बात भी खूब जोर-शोर से उठी है। शिक्षा की पूंजी से गरीब और वंचित के लिए उच्च पद, बड़ा उद्योगपति और विश्वस्तरीय तकनीकिशियन (टेक्नोक्रेट) बनने के रास्ते भी खुले हैं। बावजूद शिक्षा संस्थाओं से दुश्कर्म, पलायन और आत्महत्या के मामले सामने आ रहे हैं तो यह चिंतनीय पहलू है। क्योंकि शिक्षा के जरिए विद्यार्थी और उसके अभिभावक जिस उपलब्धि के शिखर पर पहुंचने की परिकल्पना कर रहे होते हैं, यदि इसी बीच संभावना की मौत हो जाए, तो यह शिक्षा का अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण पहलू है। ज्ञान की महिमा ने इस भ्रम को तोड़ने का काम किया है कि शिक्षा पर जाति, नस्ल या रक्त विशेष समुदायों का ही अधिकार है। राजतंत्र में यह धारणा सदियों तक फलीभूत होती रही है कि भारत समेत दुनिया का कुलीन वर्ग नियति की देन है। जबकि वाकई यह पक्षपाती व्यवस्था की उपज रही है। ज्ञान के तंत्र ने इस भ्रामक स्थिति को तोड़ने का काम किया है। हालांकि भारतीय मनीषियों ने ज्ञान की इस शक्ति को हजारों साल पहले जान लिया था, इसीलिए कहा भी गया कि राजा की पूजा अपने राज्य में होती है, जबकि विद्वान सब जगह पूजा जाता है। ज्ञानार्जित विद्वता की ही देन है कि आज दुनिया शिक्षा और अनुसंधान से आविष्कृत ऐसा तकनीकि संसार रच रही है, जिसमें सुविधाएं मुट्ठी में हैं और लक्ष्य अंतरिक्ष में मनुष्य को बसाने की संभावनाएं तलाश रहा है। संभावनाओं के इस द्वार पर शिक्षा परिसरों में छात्र निराशा के भंवर में मौत का लक्ष्य तय कर रहे हैं, तो यह समूची शिक्षा पर एक बड़ा प्रश्नचिन्ह है ?      
देश के युवाओं की ये मौतें, संभावनाओं की मौतें हैं। ऐसे में यदि छात्र एवं छात्राओं की मौतों का यही सिलसिला बना रहता है तो देश के बेहतर भविष्य की संभावना क्षीण हो जाएगी ? ये मौतें अध्ययन-अध्यापन से उपजी परेशानियों के चलते सामने आ रही हैं।  बावजूद देखने में आ रहा है कि राजनीतिक दलों के रहनुमा मौतों को केवल राजनीतिक चश्मे से देख रहे है, लिहाजा समस्या के सामाधान की दिशा में ठोस पहल होती नहीं दिख रही है। यदि आने वाले समय में छात्र आत्महत्याओं को शिक्षा की व्यापक समझ के परिदृश्य में नहीं देखा गया तो इन मौतों पर विराम लग जाएगा यह कहना मुश्किल है ?
देश में प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च व तकनीकी शिक्षा तक शिक्षण पद्धति को लेकर अजीब भ्रम, विरोधाभास व दुविधा की स्थिति बनी हुई है। नतीजतन इनसे उबरने के अब तक जितने भी उपाय सोचे गए, वे शिक्षा के निजीकरण, अंग्रेजीकरण और विदेशीकरण पर जाकर सिमटते रहे हैं।यही वजह रही कि देश में शिक्षा में आवश्यक बदलाव लाने की द्श्टि से आयोग तो बिठाए गए,उनकी रपटें भी आईं,लेकिन उन पर अमल नहीं हुआ। लिहाजा शिक्षा प्रणाली में आदर्श व समावेशी शिक्षा के बुनियादी तत्व में शामिल करने की बजाय, शिक्षा में निजीकरण को बढ़ावा दिया जा रहा है, जो केवल और केवल अंग्रेजीकरण की पर्याय बनती जा रही है। नतीजतन शिक्षा सफलता के ऐसे मंत्र में बदल गई है, जिसका एकमात्र उद्देश्य पैसा कमाना रह गया है। दुश्चक्र में फंसी इस शिक्षा की यही बानगियां इन घटनाओं में देखने में आ रही हैं।
 कोटा के कोचिंग संस्थानों में निरतंत छात्रों द्वारा की जा रही खुदकुशियों की पड़ताल करने से पता चलता है कि छात्रों को अभिभावक अपनी इच्छा के अनुसार महान बनाने की होड़ में लगे हैं। केरल के रहने वाले छात्र अनिल कुमार ने आत्महत्या पूर्व लिखे पत्र में लिखा था, ‘सॉरी मम्मी-पापा, आपने मुझे जीवन दिया, लेकिन मैनें इसकी कद्र नहीं की।‘ यह पीड़ादायी कथन उस किशोर का था, जो आईआईटी की तैयारी में जुटा था। ये संस्थान प्रतिभाओं को निखारने का दावा अपने विज्ञापनों में खूब करते हैं। लेकिन युवाओं को महान और बड़ा बनाने का सपना दिखाने का इस उद्योग का दावा कितना खोखला है, यह पता यहां बढ़ती जा रही आत्महत्याओं से चलता है। शिक्षा के इस कोचिंग उद्योग का गोरखधंधा देशव्यापी है। इसकी जकड़न में अब अन्य प्रदेशों के बड़े नगर भी आते जा रहे हैं।

प्रमोद भार्गव

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