कविता

दशकों पहले गांव से निकला था शहर

—विनय कुमार विनायक
दशकों पहले गांव से निकला था शहर
अपनी खिचड़ी आप पकाने के लिए
अपना एक आशियाना बनाने के लिए!

पर अबतक कोई अपना बन न सका
अब भी हूं अनजानापन को साथ लिए
आत्ममुग्ध होकर जिए खुद के लिए!

एक शहर से कटकर दूसरा महानगर
आता-जाता रहा हूं स्थानांतरित होकर
पद प्रतिष्ठा की चाहत में छूटा घर!

क्वार्टर से दफ्तर, दफ्तर से क्वार्टर
आने-जाने में बीती उम्र साठ से ऊपर
अब सेवा निवृत्त होकर घर के बाहर!

बाट निहारता हूं, ताकता हूं,इधर-उधर
पड़ोसी को, पर कोई आता नहीं नजर
मनमाफिक अपना मित्र-कुटुम्ब रहबर!

मुद्दत के बाद से आने लगी है यादें
पीछे छूटे गांव, पीपल की छांव बराबर
मां की ममता पिता का दुलार मित्र यार!

बड़े छोटे भाई बहन का प्यार व मनुहार
सुबह गोहाल से बथान जाती हुई गौएं
शाम हाट से लौटते पिता मिठाई लेकर!

याद आती है बेशुमार दादी के सिर पर
सफेद हो चुके चूल जिसे चुनने के बहाने
मैं बच जाता था स्कूल जाने से अक्सर!

अब तो सिर्फ यादें ही बची रह गई है
शायद ही लौट के आऊंगा गांव का घर
जहां आज भी मां पिता स्मृतिशेष हैं!

बचपन के कुछ दोस्त अब भी शेष हैं
और शेष है वह स्कूल जहां से पढ़कर
मैं बना था एक अदद सरकारी नौकर!

पुश्तैनी खेती किसानी से बचने के लिए
जीवन के कुछ नवीन छंद रचने के लिए