
देह कितनी लिये विचर चहता,
कितने आयाम देखना चहता;
आवरण कितने घुसे लख चहता,
वरण कितने ही पात्र कर चहता !
कला कितनी में पैठना चहता,
ज्ञान विज्ञान की धुरी तकता;
राज कितने प्रदेश कर चहता,
ताज कितने पहन सतत चहता !
मुक्त पर जब तलक न मन होता,
व्यस्त स्तर हरेक रह जाता;
त्रस्त हर देश काल वह रहता,
कहाँ आनन्द बहे चल पाता !
स्थिति हर का लाभ ना लेता,
परिस्थिति प्रतिष्ठित न हो पाता;
जहाँ होता कहाँ है वह रहता,
वादियाँ विचरता चित्त फिरता !
समर्पित श्याम-रंध्र ज्यों होता,
सृष्टि स्वामित्व भाव अपनाता;
अणु ब्रह्माण्ड तब नज़र आता,
प्रभु परिकल्पना ‘मधु’ रमता !
✍? गोपाल बघेल ‘मधु’