नाजुक, कोमल माओवादी !

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– विश्वरंजन

नक्सली माओवादियों के गुप्त शहरी संगठनों में आपको बड़े तादाद में ऐसे माओवादी मिल जाएँगे, जिन्हें हम नाजुक, कोमल माओवादी कह सकते हैं। उन्हें सुकुमार माओवादी भी कहा जा सकता है। यदि आप उनका चेहरा-मोहरा, कद-काठी देखें तो आप जल्दी मानने को तैयार नहीं होंगे कि यह नाजुक सा- कोमल सा लगने वाला व्यक्ति एक ऐसे संगठन को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सहायता कर रहा है, जो बुनियादी तौर पर सत्ता एक हिंसात्मक युद्घ के जरिए हासिल करना चाहता है और ऐसा करके भारत में माओवादी तानाशाही को स्थापित करने की कोशिश कर रहा है।

अमूमन ऐसे नाजुक कोमल माओवादी आम जनता, बुद्घिजीवियों,न्यायविदों को गफलत तथा ऊहापोह की स्थिति में ला देता है-अरे यह तो अच्छा आदमी दिखता है, कोमल, नाजुक और सुकुमार ! यह कैसेमाओवादी हो सकता है? पर माओवादी गोपनीय दस्तावेजों पर जाएँ तो ऐसे ही व्यक्तियों की उन्हें अपने “अरबन” या शहरी कामों के लिए जरूरत होती है। यह भी जाहिर है कि ज्यादातर ये कोमल-नाजुक शहरी माओवादी बीहड़ जंगलों में बंदूक उठाकर नहीं चल सकते, परंतु वे वह सब काम करेंगे जिससे गुप्त माओवादी गिरोह धीरे-धीरे जंगल क्षेत्र, ग्रामीण क्षेत्र और शहरी क्षेत्रों में अपनी पकड़ मजबूत करते जाएँ और ऐसा करने के लिए उन्हें छोटे-छोटे हथकंडे अपनाने पड़ते हैं। बस !

मसलन कि माओवादी हिंसा पर अमूमन उनका मुँह बंद ही रहेगा। यदि हिंसा इतनी घिनौनी है कि मुँह बंद करना मुश्किल हो जाए तो एक पंक्ति में अपना विरोध जताने के बाद इस बात को समझाने के लिए कि आखिर माओवादी इस तरह की घिनौनी हिंसा करने पर क्यों बाध्य हुए वे पृष्ठ रंग देंगे? माओवादियों के हिंसात्मक गतिविधियों को रोकने के लिए जो कृतसंकल्प है, उन्हें बार-बार न्यायालयों में खींच कर तब तक ले जाने का उपक्रम ये नाजुक कोमल माओवादी करते रहेंगे। जब तक पुलिस के अफसर तंग आ कर लड़ना न छोड़ दें और माओवादी धीरे-धीरे भारत के गणतांत्रिक व्यवस्था को ध्वस्त कर सत्ता पर काबिज न हो जाएँ । नाजुक-कोमल माओवादियों ने दूर देखती रूमानी आँखों और कोमलता से लबरेज चेहरा-मोहरा के बूते पर लोगों को तो गफलत में डाल रखा है।आम व्यक्ति सोचता है, ठीक ही बोल रहे होंगे ये लोग। इतने नाजुक,कोमल और सुकुमार दिखने वाले लोग गलत कैसे हो सकते हैं?

पर एक समस्या और भी है। यदि आपने गलती से उंगली उठा दी एक नाजुक, कोमल और सुकुमार माओवादी पर तो उनके कोमल, नाजुक और सुकुमार माओवादी दोस्त न कोमल, न नाजुक, न सुकुमार रह जाएँगे और असभ्यता की हदें पार कर गाली-गलौच पर उतर आएँगे, मिथ्या प्रचार पर उतर आएँगे और यह वे साइबर-स्पेस के जरिए करेंगे, धरना-प्रदर्शन देकरकरेंगे। यदि आप गूगल में मेरे नाम पर क्लिक करेंगे तो पाएँगे कि मेरे फोटो को विकृत कर छापा गया है, मुझे गालियाँ दी गई हैं।

मुझे कोई खास फर्क नहीं पड़ता पर बहुतों पर असभ्य गाली-गलौच का असर होता है। खास कर यदि साइबर-स्पेस के माध्यम से वह पूरे विश्व में फैलाया जा रहा हो। चुप ही रहना अच्छा है। नाजुक, कोमल माओवादी के साथ सुर मिलाना और भी श्रेयस्कर है और माओवादियों को चाहिए ही क्या? “भूल गलती बैठी है जिरह-बख्तर पहन कर तख्त पर दिल के/ चमकते हैं खड़े हथियार उसके/ आँखें चिलकती हैं सुनहरी तेज पत्थर सी..! है सब खामोश/ इब्ने सिन्ना, अलबरूनी दढ़ियल सिपहसलार सब ही खामोश हैं। बुद्घिजीवी, न्यायविद, अंग्रेजी मीडिया के लोग सभी तो हैं खामोश।” या फिर सुकुमार, कोमल, नाजुक माओवादी के साथ तो साहब जैसा मुक्तिबोध ने लिखा है हम अक्सर खुदगर्ज समझौते कर लेते हैं और माओवाद को पनपने देते हैं, अपने देश के गणतांत्रिक शरीर में विष की तरह । साथ ही आवाज में आवाज मिलाने लगते हैं। माओवादी शहरी संगठन के साथ एक और समस्या भी है। यह एक खगोलशास्त्रीय “ब्लैक होल” की तरह होता है । खगोलशास्त्र के अनुसार आप “ब्लैक होल”को देख नहीं सकते। उसमें से रोशनी ही बाहर नहीं निकलती। हाँ “ब्लैक होल” के आसपास होती हुई गतिविधियों से हम भाँप जाते हैं कि अमुक जगह”ब्लैक होल” है। मसलन कि डायरेक्ट “साक्ष्य” नहीं होता, इनडायरेक्ट या “सरकम्सटैन्शियक” साक्ष्य का ही सहारा लेना पड़ता है। वैसे भी गोपनीय माओवादी दस्तावेज इन लोगों के विषय में कहता है कि ये वो लोग होते हैं जो “दुश्मन” (राज्य) के सामने उघारे नहीं गए हों। यानी कि यह लोग कभी नहीं कहेंगे कि ये माओवादी हैं…।

जरा सोचिए कि यदि माओवादी तानाशाही भारत में स्थापित हो गया तो क्या होगा? हो सकता है आपका लड़का पूरी जन्म जेल में यातनाएँ झेलता रहे और कहीं कोई सुनवाई न हो। चीन का राष्ट्रपति लियोशाओ ची जब माओ का विरोध करने लगा तो उसके बाल नोचे गए और यातनाएँ देकर उसे मारा डाला गया। उसकी पत्नी वांग को पीटा गया, यातनाएँ दी गईं। यह आपके साथ भी हो सकता है एक माओवादी भारत में । जुंग चैंग के पिता माओ के दोस्त थे, परंतु जब माओ से उनका मतभेद हुआ तो न सिर्फ उन्हें यातनाएँ देकर मारा डाला गया परंतु उनके पूरे परिवार को यातनाएँ दी गई। एक अन्य चीनी लेखिका की माँ को यातनाएँ दी गई और उसके बाल नोच डाले गए जब उसने माओ से असहमति दिखाई ।

मासूम और कोमल दिखने वाले माओवादी के साथ खड़े बुद्घिजीवियों,न्यायविदों तथा अन्य लोगों को यह समझना चाहिए कि एक माओवादी भारत में उनके साथ भी वैसा ही सलूक हो सकता है, जैसा चीन के लोगोंके साथ माओ के जमाने में झेला । मुश्किल यह है कि कोमल, नाजुक,सुकुमार तथा मासूम सा दिखता माओवादी भोली सूरत बना कर कहता रहेगा, वह माओवादी नहीं है और हम ऊहापोह, गफलत और बेचारगी का चश्मा लगा या तो कुछ नहीं करेंगे या उन्हें ही गाली देने लगेंगे जो भारत में गणतांत्रिक व्यवस्था को बचाये रखने के लिए जान पर खेल रहे हैं ।

(लेखक छत्तीसगढ़ के पुलिस महानिदेशक हैं)

2 COMMENTS

  1. अगर यही लेख किसी आम आदमी द्वारा लिखा गया होता तो शायद मेरी प्रतिक्रिया कुछ और होती पर चूंकि लेखक पुलिस के महा निदेशक हैं तो मुझे लिखना पड़ रहा है की मो वादियों को इस सीमा तक लाने में और उनकी सहानुभूति में उठ खड़े होने के लिए कोमल लोगों को वाध्य करने में पुलिस और प्रशासन का भी कम हाथ नहीं है.आप तो पुलिस महा निदेशक हैं,क्या आप बता सकते हैं की माओवादियों के उदय और पनपने का कारण क्या है?क्या कारण है की वे देखते ही देखते इतना हावी हो गए?क्या इसमे पुलिस और प्रशासन कोई कोई दोष नहीं?क्या हम अपने दिल पर हाथ रख कर कह सकते हैं की उनका जन्म शोषण का परिणाम नहीं?क्या जिन लोगों को इन बुद्धिजीवीयों ने बरगलाया है वे वास्तव में हमारे गलत नीतियों और हमारी अदुर्दर्शिता के शिकार नहीं हैं?अगर ऐसा है तो इसको प्रारंभ में ही क्यों न रोका गया और आज भी क्यों इस दिशा में सर्वांगीन प्रयत्न क्यों नहीं हो रहा है?विश्वरंजन जी,मेरे विचार सेतो आज भी इस दिशा में जो प्रयत्न हो रहे हैं उनमे इमानदारी का अभाव है.उसका सबसे बड़ा कारण है की मूल रूप से हम सब ईमानदार है ही नहीं तो हम अपने आप से इमानदारी की उम्मीद ही क्यों करते हैं?

  2. अब भारत की वर्तमान शासण पद्धति (संविधान) के विकल्प के रुप मे माओवाद की दावेदारी को महसुस कर रहे है. भारत का वर्तमान संविधान का विकल्प तलासना जरुरी है. क्योकि ऐसा संविधान का क्या काम जिस के तहत एक विदेशी महिला देश की भाग्य निर्माता बन बैठे.

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