प्रमोद भार्गव

जाति आधारित जनगणना की मांग एकबार फिर सतह पर आ गई है। बिहार विधानसभा ने सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित कर केंद्र सरकार से 2021 में होने वाली जनगणना जातीय आधार पर कराने की मांग की गयी है। प्रस्ताव लाते समय आश्चर्य की बात रही कि सभी जातीय भेदों को नकारते हुए बिना विवाद के प्रस्ताव पास कर दिया गया। ऐसा इसलिए संभव हुआ क्योंकि बिहार विधानसभा के चुनाव इसी साल के अंत में होने वाले हैं। वैसे, जातीय जनगणना की मांग कोई नई नहीं है। इसी वजह से 2011 की जनगणना के साथ अलग प्रारूप पर सामाजिक, आर्थिक और जाति आधारित जनगणना की गई थी किंतु मूल जनगणना के साथ की गई गिनती के आंकड़े न तो मनमोहन सिंह सरकार ने उजागर किए और न ही नरेंद्र मोदी सरकार ने। जाति आधारित जनगणना की मांग करने वाले नेताओं का कहना है कि इसके निष्कर्ष से निकले आंकड़ों के आधार पर जिन जातियों की जितनी संख्या है, उस आधार पर कल्याणकारी योजनाओं के साथ सरकारी नौकरियों में आरक्षण का लाभ मिले। हमारे नीति-नियंताओं में दूरदृष्टि है तो पहले इस विषय पर राष्ट्रीय विमर्श कराए और फिर इससे निकले निष्कर्ष पर अमल करे। यह ऐसा मुद्दा है, जिसमें सतह पर तो खूबियां दिखाई देती हैं लेकिन अनेक डरावनी आशंकाएं भी इसके गर्भ में छिपी हैं। बृहत्तर हिन्दू समाज (हिन्दू, जैन, बौद्ध, सिख) में जिस जातीय संरचना को ब्राह्मणवादी व्यवस्था का दुष्चक्र माना जाता है, हकीकत में यह व्यवस्था इतनी पुख्ता है कि इसकी तह में जाना मुश्किल है। मुस्लिम समाज में भी जातिप्रथा पर पर्दा डला हुआ है। मुसलमानों की सौ से अधिक जातियों के बावजूद इनकी जनगणना में भी पहचान का आधार धर्म और लिंग है। शायद इसीलिए आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा है कि ‘जाति ब्राह्मणवादी व्यवस्था का कुछ ऐसा दुष्चक्र है कि हर जाति को अपनी जाति से छोटी जाति मिल जाती है। यह ब्राह्मणवाद नहीं है, बल्कि पूरी की पूरी एक साइकिल है। अगर यह जातिचक्र सीधी रेखा में होता तो इसे तोड़ा जा सकता था। यह वर्तुलाकार है और इसका कोई अंत नहीं है। जब इससे मुक्ति का कोई उपाय नहीं है।‘ वैसे भी धर्म के बीज-संस्कार जिस तरह से हमारे बाल अवचेतन में, जन्मजात संस्कारों के रूप में बो दिए जाते हैं, कमोबेश उसी स्थिति में जातीय संस्कार भी नादान उम्र में उड़ेल दिए जाते हैं।इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता कि जाति एक चक्र है। यदि जाति चक्र न होती तो अबतक टूट गई होती। जाति पर जबरदस्त कुठारघात महाभारत काल के भौतिकवादी ऋषि चार्वाक ने किया था। उनका दर्शन था, ‘इस अनंत संसार में कामदेव अलंधय हैं। कुल में जब कामिनी ही मूल है तो जाति की परिकल्पना किसलिए? इसलिए संकीर्ण योनि होने से भी जातियां दुष्ट, दूषित या दोषग्रस्त ही हैं, इस कारण जाति एवं धर्म को छोड़कर स्वेच्छाचार का आचरण करो।’ गौतम बुद्ध ने भी जो राजसत्ता भगवान के नाम से चलाई जाती थी, उसे धर्म से पृथक किया। बुद्ध धर्म, जाति और वर्णाश्रित राज व्यवस्था को तोड़कर समग्र भारतीय नागरिक समाज के लिए समान आचार संहिता प्रयोग में लाए। चाणक्य ने जन्म और जातिगत श्रेष्ठता को तिलांजलि देते हुए व्यक्तिगत योग्यता को मान्यता दी। गुरूनानक देव ने जातीय अवधारणा को अमान्य करते हुए राजसत्ता में धर्म के उपयोग को मानवाधिकारों का हनन माना। संत कबीरदास ने जातिवाद को ठेंगा दिखाते हुए कहा भी, ‘जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजियो ज्ञान। मोल करो तलवार का, पड़ी रहने दो म्यान।‘ महात्मा गांधी के जाति प्रथा तोड़ने के प्रयास तो इतने अतुलनीय थे कि उन्होंने ‘अछूतोद्धार’ जैसे आंदोलन चलाकर भंगी का काम दिनचर्या में शामिल कर, उसे आचरण में आत्मसात किया।भगवान महावीर, संत रैदास, राजा राममोहन राय, दयानंद सरस्वती, विवेकानंद, ज्योतिबा फुले, आम्बेडकर ने जाति व्यवस्था तोड़ने के अनेक प्रयत्न किए लेकिन जाति है कि मजबूत होती चली गई। इसकी वजह यह रही कि कुलीन हिन्दू मानसिकता, जातितोड़क कोशिशों के समानांतर अवचेतन में पैठ जमाए मूल से अपनी जातीय अस्मिता और उसके भेद को लेकर लगातार संघर्ष करती रही। इसी मूल की प्रतिच्छाया हम पिछड़ों और दलितों में देख सकते हैं। मुख्यधारा में आने के बाद न पिछड़ा, पिछड़ा रह जाता है और न दलित, दलित। वह उन्हीं ब्राह्मणवादी हथकंडों को हथियार के रूप में इस्तेमाल करने लगता है, जो ब्राह्मणवादी व्यवस्था के हजारों साल के हथकंडे रहे हैं। नतीजतन जातीय संगठन और दल भी अस्तित्व में आ गए।जातिगत आरक्षण के संदर्भ में संविधान के अनुच्छेद 16 की जरूरतों को पूरा करने के लिए आरक्षण की व्यवस्था है। लेकिन आरक्षण किसी भी जाति के समग्र उत्थान का मूल कभी नहीं बन सकता? आरक्षण के सामाजिक सरोकार केवल संसाधनों के बंटवारे और उपलब्ध अवसरों में भागीदारी से जुड़े हैं। इस आरक्षण की मांग शिक्षित बेरोजगारों को रोजगार और अब ग्रामीण अकुशल बेरोजगारों के लिए सरकारी योजनाओं में हिस्सेदारी से जुड़ गई है। परंतु जबतक सरकार समावेशी आर्थिक नीतियों को अमल में लाकर आर्थिक रूप से कमजोर लोगों तक नहीं पहुंचती तबतक पिछड़ी या निम्न जाति अथवा आय के स्तर पर पिछले छोड़ पर बैठे व्यक्ति के जीवन स्तर में सुधार नहीं आ सकता।मुस्लिम धर्म के पैरोकार यह दुहाई देते हैं कि इस्लाम में जाति प्रथा की कोई गुंजाइश नहीं है। जबकि एम एजाज अली के मुताबिक मुसलमान भी चार श्रेणियों में विभाजित हैं। उच्च वर्ग में सैयद, शेख, पठान, अब्दुल्ला, मिर्जा, मुगल, अशरफ जातियां शुमार हैं। पिछड़े वर्ग में कुंजड़ा, जुलाहा, धुनिया, दर्जी, रंगरेज, डफाली, नाई, पमारिया आदि शामिल हैं। पठारी क्षेत्रों में रहने वाले मुस्लिम आदिवासी जनजातियों की श्रेणी में आते हैं। अनुसूचित जातियों के समतुल्य धोबी, नट, बंजारा, बक्खो, हलालखोर, कलंदर, मदारी आदि हैं। मुस्लिमों में ये ऐसी प्रमुख जातियां हैं जो पूरे देश में लगभग इन्हीं नामों से जानी जाती हैं। इसके अलावा ऐसी कई जातियां हैं जो क्षेत्रीयता के दायरे में हैं। जैसे बंगाल में मण्डल, विश्वास, चौधरी, राएन, हलदार, सिकदर आदि। यही जातियां बंगाल में मुस्लिमों में बहुसंख्यक हैं। इसी तरह दक्षिण भारत में मरक्का, राऊथर, लब्बई, मालाबारी, पुस्लर, बोरेवाल, गारदीय, बहना, छप्परबंद आदि। उत्तर-पूर्वी भारत के असम, नागालैंड, अरूणाचल प्रदेश, मणिपुर आदि में विभिन्न उपजातियों के क्षेत्रीय मुसलमान हैं। राजस्थान में सरहदी, फीलबान, बक्सेवाले आदि हैं। गुजरात में संगतराश, छीपा जैसी अनेक नामों से जानी जाने वाली बिरादरियां हैं। जम्मू-कश्मीर में ढोलकवाल, गुडवाल, बकरवाल, गोरखन, वेदा (मून) मरासी, डुबडुबा, हैंगी आदि जातियां हैं। इसी प्रकार पंजाब में राइनों और खटीकों की भरमार है। इतनी प्रत्यक्ष जातियों के बावजूद मुसलमानों को लेकर यह भ्रम की स्थिति बनी हुई है कि ये जातीय दुष्चक्र में नहीं जकड़े हैं।अल्पसंख्यक समूहों में इस वक्त हमारे देश में पारसियों की घटती जनसंख्या चिंता का कारण है। इस आबादी को बढ़ाने के लिए भारत सरकार ने प्रजनन सहायता योजनाओं में भी शामिल किया हुआ है। राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के एक सर्वे के मुताबिक पारसियों की जनसंख्या 1941 में 1,14000 के मुकाबले 2001 में केवल 69000 रह गई। इस समुदाय में लंबी उम्र में विवाह की प्रवृत्ति के चलते भी यह स्थिति निर्मित हुई है। इस जाति का देश के औद्योगिक और आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान है। प्रसिद्ध टाटा परिवार इसी समुदाय से है। बहरहाल ऐसे समाज या धर्म समुदाय को खोजना मुश्किल है, जो जातीय कुचक्र में जकड़ा न हो? गोया, जातिगत जनगणना के क्या फलित निकलेंगे इसपर गंभीरता से विचार की जरूरत है।
प्रमोद भार्गव जी द्वारा प्रस्तुत आलेख भारतीय इतिहास की उस अभाग्यपूर्ण अवधि जिस के बीच मुट्ठी भर फिरंगियों ने प्रशासन हेतु भारतीय मूल के निवासियों, विशेषकर हिन्दुओं की अलौकिक वर्ण व्यवस्था में अवैध छेड़छाड़ करते उनमें जातिवाद के भेद-भाव द्वारा उन्हें बांटे रखा था, का वृत्तांत है जिसे चिरकाल से हिन्दू-विरोधी तत्व राजनीतिक हथियार बना न केवल हिन्दुओं को ही नहीं बल्कि आज समस्त भारतीय समाज को अपने कुकर्मों का अखाड़ा बनाए हुए हैं| विडंबना तो यह है की आज इक्कीसवीं शताब्दी में जब औसत परंपरागत भारतीय वैश्वीकरण व उपभोक्तावाद में अकस्मात छलांग लगाए निस्तब्ध अपनी रोजी-रोटी में लगा हुआ है, उसे फिर से धर्म व जाति के बवंडर में धकेल राष्ट्र-विरोधी तत्व भारतीय समाज के साथ साथ स्वयं भारत देश के लिए चुनौती बने हुए हैं| उन्हें रोकना होगा| प्रश्न उठता है कि हिन्दू- व राष्ट्र-विरोधी तत्वों को रोकेगा कौन, क्योंकर रोकेगा, कैसे और कब रोकेगा? किसी एक के वश में होता तो मुट्ठी भर संगठित फिरंगी भारतीय उप महाद्वीप के अधिकांश क्षेत्र पर क्योंकर अधिपत्य बना पाते और उनके प्रस्थान के पश्चात दशकों सत्ता में बैठे उनके कार्यवाहक प्रतिनिधि नेहरु की कांग्रेस आज देश के प्रत्येक नागरिक को उसके हाल—जैसे दलित आज भी दलित बना हुआ है—पर क्योंकर छोड़ जाती!
आज केंद्र में युगपुरुष मोदी जी के नेतृत्व के अंतर्गत राष्ट्रीय शासन के चलते संगठित भारतीयों को धर्म अथवा जाति से ऊपर उठ भारत की अखंडता की ओर ध्यान देते अपना और देश के विकास में सहभागी होना होगा| हाँ, यदि उपरोक्त प्रश्नों, “हिन्दू- व राष्ट्र-विरोधी तत्वों को रोकेगा कौन, क्योंकर रोकेगा, कैसे और कब रोकेगा?” का उत्तर ढूँढना है तो किसी अदृश्य व्यक्ति लिए न छोड़ते हमें स्वयं इस आलेख को मंच बना विषय पर विचार विमर्श करना होगा| इस बीच भारतीयों के लिए संगठन का पहला और अति आवश्यक व महत्वपूर्ण पाठ का अभ्यास भी हो जाएगा|