बदहाल रिक्शा बेहाल रिक्शा चालक

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-अनिल अनूप 

कभी आने-जाने का एकमात्र साधन माने जाने वाला सामान्य साइकिल रिक्शा अब लोगों की पसंद नहीं है. बढ़ते शहरीकरण और आधुनिकरण के इस बाज़ार में रिक्शे की जगह ऑटो, इ-रिक्शा जैसे आवागमन के साधनों ने ले ली है और ये हाथ रिक्शे मात्र मूक बनकर खड़े होते हैं.

नोएडा इलाक़े में रिक्शा चलाने वाले योगेंद्र बताते हैं, “जब से यह ई-रिक्शा आया है साहब, हमारी आर्थिक हालत पहले से ख़राब हो गई है. हमारी कमाई लगातार घटती जा रही है. प्रशासन भी साथ नहीं देता.

साल के अधिकांश महीनों में तकनीक से घूमता पहिया इंसान की शारीरिक मेहनत से चलने वाले पहिए को पछाड़ देता है। लेकिन बारिश के महीनों में नजारा बदला हुआ होता है। पानी की निकासी नहीं होने के कारण बारिश में अक्सर सड़कें पानी में डूबी होती हैं। इसी वजह से ई-रिक्शा चालक अपने वाहन को सड़क पर नहीं उतारते हैं, क्योंकि उसकी बैटरी के पानी में डूब जाने से वह बंद हो जाता है और उसके खराब होने का डर भी रहता है। इसके बाद लोगों के पास विकल्प के तौर पर साइकिल रिक्शा ही मौजूद रहता है। साइकिल रिक्शा चालक अपनी कठोर मेहनत के दम पर सवारियों को निर्धारित स्थान पर पहुंचाता है। ऊबड़-खाबड़ सड़क और कहीं-कहीं गड्ढे होने के चलते उसे गंदे पानी में भी उतर कर रिक्शे को खींचना पड़ता है। इन सबके चलते वे कुछ ज्यादा किराया लेते हैं जो मेरी नजर में जायज है। कुछ लोग उनकी मेहनत को देखते हुए सहजता से पैसे दे देते हैं, लेकिन बहुत-सारे ऐसे लोग भी हैं जो किराए को लेकर उनसे उलझते हैं, लेकिन कोई विकल्प नहीं होने के चलते कड़वे लहजे में कुछ बोलते हुए आखिरकार किराया देते हैं। वे इसे लूट का नाम देते हैं। क्या रिक्शा चालकों को इस तरह लांछित करना जायज है? क्या लोगों को ऐसा बर्ताव करने से पहले अपने गिरेबान में झांक कर यह नहीं देखना चाहिए कि उन्होंने सड़क पर अपने कठोर शारीरिक श्रम से रिक्शा खींचने के उनके रोजगार को बरकरार रखने में अपनी कौन-सी भूमिका निभाई है? अगर आज भी रिक्शाचालक अन्य किसी काम के न होने के चलते ऐसे मौसम में भी रिक्शा चलाने को मजबूर हैं, तो यह लोगों से ज्यादा उसकी मजबूरी है। इसी वजह से लोगों को सड़क पर फैले गंदे पानी में नहीं उतरना पड़ता.

सड़कों की खस्ता हालत के चलते इन लोगों को रोजी-रोटी जुटाने के लिए और भी कड़ी मेहनत करनी पड़ती है। स्थानीय जनप्रतिनिधियों को चाहिए कि वे मानवीय श्रम की कद्र करते हुए कम से कम समतल सड़कों का निर्माण करा दें, जिससे इन्हें सवारियों को लाने और ले जाने में थोड़ी आसानी हो जाए। फिल्म ‘बाजार’ में अभिनेता फारुख शेख रिक्शा चलाते हैं। लेकिन फिल्म में दिखाई गई जैसी सड़कों पर वे रिक्शा चलाते हैं, वह अपनी गरिमा को बचाए रख कर मानवीय श्रम से आजीविका कमाने का एक उदाहरण है, लेकिन फिल्मी परदे पर है। जैसी स्थिति बनाई जा रही है, उसमें हकीकत में शायद कभी रिक्शाचालकों को यह हक हासिल न हो सके.

योगेन्द्र बताता है कि, मेरे पास इतना पैसा भी नहीं है कि मैं ई-रिक्शा खरीद सकूं. अब किसी तरह घर परिवार चलाना है, कर भी क्या सकते हैं. कोई दूसरा काम आता नहीं है. पता नहीं आगे मेरे परिवार का क्या होगा.”

गोपाल कुमार कहते हैं, “मैं तो 10 साल से रिक्शा चला रहा हूं. कोई ख़ास परिवर्तन तो नहीं आया है. पर हां! ये ई-रिक्शा वाले काफ़ी परेशान करते हैं. कम रेट में सवारी ले जाते हैं और हमारी हैसियत नहीं कि हम ई-रिक्शा खरीदें.”

सरकार को आडे़ हाथों लेते हुए गोपाल कहते हैं, “सरकार ई-रिक्शा तो दे रही है पर इतना महंगा है कि हम ख़रीद नहीं सकते.”

पश्चिम बंगाल के मालदा से आकर दिल्ली में रिक्शा चलाने वाले एनामुल इस्लाम बताते हैं कि उनका पूरा परिवार गांव में रहता है. उनके चार बच्चें हैं. इसके अलावा बूढ़े मां-बाप और अपनी पत्नी का खर्च का सारा बोझ इन्हीं के कंधों पर है. घर पर कमाने वाला अकेला मैं ही हूं. हां, वहां गांव में उनकी पत्नी लोगों के घरों में काम ज़रूर करती है.

एनामुल कहते हैं कि, दिल्ली में महंगाई इतनी बढ़ गई है कि कुछ समझ में ही नहीं आता कि वो ख़ुद क्या खाए और घर वालों को क्या भेजे? ऊपर से ये धंधा भी धीरे-धीरे चौपट होता जा रहा है.

अपने मौजूदा हालातों का ज़िक्र करते हुए वह बताते हैं, ‘तीन-चार साल पहले तक मैं अपनी कमाई में से कुछ पैसा घर भेज देता था, इसी पैसे से वहां सबका गुज़र-बसर हो रहा था. लेकिन अब हमारी आमदनी पहले से भी कम हो गई है. इसका एकमात्र कारण बैटरी वाला रिक़्शा है.’

बदलते समय, बढ़ती आमदनी और नई तकनीक के कारण लोगों की सोच में भी भारी बदलाव देखने को मिला है. और इसका सीधा असर इन रिक्शे वालों पर पड़ा है. नोएडा के अधिकतर इलाक़ों में रिक्शा वाले झुंड में अपना वक़्त बिताते हुए मिल जाएंगे.

अब हमने इसका कारण जानने की कोशिश की. एमिटी में जर्नलिज्म की पढ़ाई कर रहा एक छात्र पंकज बताता है, “साइकिल रिक्शा कहीं जाने में वक़्त ज़्यादा लेता है. ऐसे में अगर हम लेट हो रहे हैं और इन रिक्शों का चुनाव किया तो हम समय पर पहुंच नहीं पाएंगे.”

एक और छात्र से ये पूछने पर उनका जवाब था, “अब लोग रिक्शे चढ़ने को भी एक स्टैण्डर्ड से तुलना करते हैं और ई-रिक्शा, ऑटो या कैब ज़्यादा पसंद करते हैं. वो सोचते हैं कि ये रिक्शे उनकी सामाजिक हैसियत को कम करेंगे. वहीं बाक़ी साधन इतना प्रभाव उनकी हैसियत पर नहीं डालेंगे.”

एक तरफ रिक्शे वाले कुछ लोगों को इसका कारण भी मान रहे हैं और रिक्शा चलाना मजबूरी भी. वहीं लोग अब इसके इतने आदी हो गए हैं कि वो तरह-तरह के कारण गिनाकर रिक्शे में चढ़ना पसंद नहीं करते. इधर सरकार का भी कोई ऐसा इरादा नज़र नहीं आता जिससे साइकिल रिक्शा चालकों की सहूलियत का कोई रास्ता खुल सके. ऐसे में यह बड़ी मछली के छोटी मछली को निगलने का खेल सरीखा होता जा रहा है.

पश्चिम बंगाल के मालदा शहर से आकर दिल्ली में अकेले रहने वाले रहमत अली बताते हैं कि उनके ऊपर पत्नी व पांच बच्चों के अलावा बूढ़े मां-बाप की भी ज़िम्मेदारी है. वह सुबह सात से लेकर शाम के सात बजे तक रिक़्शा चलाते हैं. तयशुदा वक़्त इसलिए क्योंकि रहमत के पास खुद का रिक़्शा नहीं है.

वह बताते हैं, ‘रोज़ चाहे कमाई हो या न हो, रिक़्शा मालिक को 150 देना होता है. बाक़ी के बचे पैसे इतने कम होते हैं कि कुछ समझ में ही नहीं आता कि वो ख़ुद क्या खाए और घर वालों को क्या भेजे? यही सोच-सोचकर उसकी पूरी रात बीत जाती है.’

रहमत के मुताबिक़ अब लोग रिक़्शा के बजाए ई-रिक़्शा पर बैठना ज़्यादा पसंद करते हैं. क्योंकि लोगों को जल्दी रहती है और उनका काम सस्ते में भी हो जाता है. ऐसे में इस पहिए के धीमी रफ़्तार वाली रिक़्शा को कोई नहीं पूछता. रहमत का कहना है, ‘हमारे पास इतने पैसे भी नहीं है कि हम भी बैटरी वाला रिक़्शा खरीद सकें.’

बिहार से आए 60 साल के नवाब आलम की कहानी रहमत अली के कहानी से भी ज़्यादा दर्दनाक है. नवाब ढ़ाई साल से रिक्शा चलाकर किसी तरह ज़िंदा हैं.

नवाब बताते हैं कि दो जवान लड़कों के होते हुए भी उन्हें घर वालों से निराश होकर इस उम्र में दिल्ली आना पड़ा. काम की तलाश में दो-तीन दिनों तक यहां-वहां घूमते रहे, लेकिन कहीं काम नहीं मिला. बकौल नवाब, ‘बेहाली में खुद को ज़िन्दा रखने के लिए रिक्शा चलाना ही मेरे लिए एकमात्र विकल्प था. अब मैं इस बूढ़ी उम्र में एक साथ दो-तीन लोगों को ढोकर ज़िन्दगी का बोझ ढो रहा हूं.’

नवाब आगे बताते है, ‘इस काम में भी क़िस्मत मेरा साथ नहीं दे रही है. लोगों को जल्दी रहती है. बैटरी वाले रिक्शे पर बैठ जाते हैं. अगर साइकिल रिक़्शा से भी जाना होता है तो वह दूसरे रिक़्शों पर बैठते हैं. उन्हें लगता है कि यह बूढ़ा तेज़ रिक़्शा नहीं भगा पाएगा.’

32 साल के अज़हर की रिक़्शा चलाने की स्पीड तो काफ़ी तेज़ है. लेकिन ई-रिक़्शा ने उनकी ज़िन्दगी की रफ़्तार को धीमा ज़रूर कर दिया है. अज़हर का कहना है कि वह पिछले पांच साल से जामियानगर में रिक्शा चला रहे हैं. लेकिन अब बैट्रीवाला रिक्शा आ जाने से उतनी सवारियां नहीं मिलती हैं. कभी-कभी तो इतने पैसे भी नहीं हो पातें कि गांव में अपने परिवार को पैसे भेज सकें.

बिहार से ताल्लुक रखने वाले 45 वर्षीय साइकिल रिक्शा चालक दुर्गा कुमार कहते हैं, ‘हम लोगों के पास समस्या है कि हम करते हैं तो उसके मुताबिक़ पैसा लेते हैं. अब रिक्शे में भी मोटर लगा दीजिए तो हैंडल घुमाके हम भी सस्ते में आपको ले चलेंगे. हमारी मेहनत का पैसा लोगों को महंगा लगता है.’

ऐसी ही कहानी मुख़्तार की भी है जो पिछले 10 साल से रिक्शा चला रहे हैं. मुख़्तार बताते हैं, ‘रिक्शा चलाकर ही वह आज गांव में पक्का घर बनवा चुके हैं. लेकिन आज इस ई-रिक्शा के आ जाने से वही घर चलाना अब मुश्किल हो चुका है. सवारियां पहले से कम मिलती हैं, मजबूरन हम रिक्शे वाले ज्यादा पैसे मांगते हैं. लेकिन कोई देने को तैयार नहीं होता. समझ नहीं आता अब हमारे धंधे का क्या होगा? परिवार कैसे चलेगा?’

दिल्ली के गली-मुहल्लों में ऐसी कितनी ही बेबस कहानियां पड़ी हैं, जो हमारी भागती ज़िंदगी को मंज़िल तक पहुंचाती है. लेकिन शायद ही रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में आम आदमी इन रिक्शेवालों के बारे में सोचता होगा. सरकार की भी नज़र इन पर नहीं जाती है. सरकार के पास विकास के स्वागत की कार्यप्रणाली पर काम कर रही है. देश दिनोंदिन डिजिटल हो रही है. नई-नई तकनीकें विकसित रही हैं, लेकिन सरकार ने यह कभी नहीं सोचा कि डेवलपमेंट के जिस मॉडल के ज़रिए वह लोगों की ज़िन्दगी को आसान बनाने की कोशिश में लगी हुई है, उस मॉडल का एक पहलू ग़रीब तबक़े के लिए बेरोज़गारी व भूखमरी का कारण बन रहा है.

स्पष्ट रहे कि पिछले साल 31 जुलाई 2014 को राजधानी में ई-रिक्शा के परिचालन पर रोक लगा दी गई थी. अदालत ने स्पष्ट तौर पर कहा था कि इसका परिचालन अवैध तौर पर हो रहा है और यह यातायात व नागरिकों के लिए खतरनाक है. लेकिन नवम्बर 2014 में ये प्रतिबंध यह कहते हुए हटा दिया गया कि यह ई-रिक़्शा हजारों लोगों को रोज़गार दे रहा है. सरकार के मुताबिक़ तकनीक के सुधार के साथ समाज में वाहनों को सुविधाजनक बनाने की मांग बढ़ी है, इसलिए मानवचालित रिक्शा की जगह वहनीय और सुविधाजनक ई-रिक्शा का विकल्प होना चाहिए. दिल्ली के लगभग हरेक इलाके में अदालत द्वारा साइकिल रिक्शे की एक औसत संख्या निर्धारित की गयी है, लेकिन ई-रिक्शों के लिए ऐसा कोई निर्धारण नहीं हुआ है. दिल्ली के परिवहन मंत्रालय द्वारा ई-रिक्शा में जारी तमाम आदेशों और सर्कुलर में कोई भी ऐसा बिंदु अनुपस्थित है, जिससे साइकिल रिक्शा चालकों की सहूलियत का कोई रास्ता खुल सके. ऐसे में यह बड़ी मछली के छोटी मछली को निगलने का खेल सरीखा होता जा रहा है.

हालांकि यह सच है कि इससे रिक्शे पर सवारी करने वाले कुछ आम लोगों को फायदा ज़रूर मिल रहा है. लेकिन यह बात भी सच है कि हमारी सरकारें अमूमन हक़ीक़तों से दूर होती जा रही हैं. रोज़गार की जितनी ज़रुरत दिल्ली के ई-रिक्शा चालकों को है, ज़ाहिरा तौर पर उतनी ही ज़रुरत साइकिल रिक्शा चालकों को भी है. दिल्ली ही नहीं, एनसीआर के साथ-साथ पूर्वी व पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कई शहरों में जहां-जहां ई-रिक्शे बढ़ रहे हैं, वहां भी इसी किस्म की कहानियां धीरे-धीरे अपने पैर पसार रही हैं. इन बदहाल रिक्शेवालों की हालत देखकर लगता है कि शायद दिल्ली सरकार को पेट्रोल और डीजल की गंध से उबकाई तो नहीं आ रही है, लेकिन अब आम आदमी के पसीने की बू से उनका जी ज़रूर मितलाने लगा है.

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