गांधी जी और हिन्दू होने की परेशानियां

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समूची दुनिया के वैचारिकता के इतिहास को उठा कर देख लें, या विचारों की श्रेष्ठता को लेकर खून-खराबा के दौर को याद करें तो आपको ताज्जुब होगा कि हिंदुत्व या भारतीय विचारधारा को जितना कठघरे में खड़ा करना का अनावश्यक प्रयास हुआ है, आज तक जितनी अग्नि परीक्षण से इसको गुजरना पड़ा है, उसका कोई सानी नहीं. सबसे बड़ी विडम्बना ये कि सर्व मत-पंथ सदभाव, हर विचार एक ही सत्य के अलग-अलग तरीके हैं ऐसा मानने वाला हिंदुत्व ही उन समूहों के द्वारा बार-बार दुत्कारा जाता है जो खुद तलवार के जोर के अलावा किसी अन्य रास्ते को कभी महत्व नहीं देते. “शिकार” को ही “शिकारी” बना देने वाले इस विडंबना से सदा निपटते रहना भारतीयता के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती है/रही है. और सबसे बड़ी विडम्बना ये कि पूर्वाग्रह सहित सबसे ज्यादा शंका-आशंका अपने ही लोगों द्वारा उठायी जाती है. अभी हाल ही में हिंदुत्व से सम्बंधित एक किताब के विमोचन समारोह में वरिष्ठ पत्रकार राहुल देव का सवाल था, “गाँधी से बड़ा कोई हिन्दू हो सकता है, जिन्होंने आदर्श हिन्दू जीवन जीया, उन्हें तो कोई परेशानी नहीं थी, फिर आप हिन्दू होने के नाते इतने चिन्तित क्यों हैं?’’ सवाल बड़ा माकूल था लेकिन उसका जबाब खोजने के लिए थोड़ा सा हमें अपने माथे से पूर्वाग्रह एवं दुराग्रह का बोझ हटाना पड़ेगा. मैथिली में एक कहावत है “अहाँ कोनो गीत गाऊ हम बटगबनीये बूझब” यानी आप जो भी राग अलापें मुझे तो “राग उस्मानी” ही समझना है. ऐसे-ऐसों के लिए तो किसी भी तर्क का कोई मतलब नहीं है, लेकिन तटस्थ लोगों के लिए ऊपर के सवालों का जबाब खोजना ज़रूरी है. अव्वल तो यह कि किसने कहा कि गांधी को हिन्दू जीवन जीने में कोई परेशानी नहीं हुई? उनकी परेशानियों का तो कोई अंत ही नहीं था. हिन्दू ग्रंथों में वर्णित ज्ञान, गरीबी, हरि-भजन, कोमल वचन अदोष, क्षमा, शील, संतोष की विचारधारा को अंगीकार करते रहने और उन सत्यों का निरंतर प्रयोग करते रहना ही तो उनके परेशानी का कारण रहा सदा. अपने उसी अहिंसक विचारधारा के कारण सदा वे जिन्ना की बदतमीजी झेलते रहे. मुसलमानों के एक समूह के डाइरेक्ट एक्शन की धमकी के आगे भी अपनी लकुटिया थाम्हे खड़े होने की परेशानी झेलते रहे. हिन्दुओं का कत्ले-आम देख कर भी पाकिस्तानियों के जान माल की हिफाज़त के निमित्त स्वयं एवं देश का तन मन धन और जीवन कुर्बान कराते रहने की परेशानी. बार-बार अपमान सहने का बावजूद राष्ट्र एक्य के निमित्त विधर्मियों के दरवाज़े तक भूखे-प्यासे बैठे रहने की परेशानी. बार-बार अपनी प्रतिबद्धता का सबूत देने हेतु ऐसे सरफिरों के सामने झुकते रहने की परेशानी और अंततः अपने विफल होने की कुंठा झेलते हुए राष्ट्र विरोधी द्विराष्‍ट्र सिद्धांत के आगे किंकर्तव्यविमूढ़ हो मुल्क के बटवारा को स्वीकार कर लेने की अभागी परेशानी. उनके परेशानियों पर तो ग्रन्थ का ग्रन्थ लिखा गया है और अब भी अगर “सात समुद्र की मसि करो लेखन सब बरनाई, धरती सब कागद करो, गांधी परेशानी लिखी ना जाए”.

लेकिन इतना सब झेलते रहने को स्वतः अभिशप्त रहने के बावजूद भी अगर उनकी निष्ठा एवं आस्था में कोई फर्क नहीं पड़ा तो केवल इसलिए कि उन्होंने महान हिन्दू संस्कृति और उनके विचारों को अंगीकार किया था. हिंदुत्व का जीवन दर्शन ही उनकी सहिष्णुता का आधार रहा था सदा. इसी ऊर्जा के कारण वे अपने सिद्धांतों पर सदा कायम रह पाए. अपनी मान्यताओं को उन्होंने कभी छुपाने की ज़रुरत नहीं समझी. हर वक़्त उनके ताकत का आधार रहा उसी राम के राज का स्वप्न रहा, जिनके बारे में उनका कहना था कि राम सत्य हैं या नहीं ये उन्हें नहीं पता, लेकिन गांधी ज़रूर राम का नाम लेकर सत्य हो गए. तो भले ही लाख परेशानियां झेलनी पड़ी हो उस महामानव को लेकिन उनकी आस्था कभी भी ना राम से डिगी ना ही उन्होंने हिन्दू प्रतीकों को अपने आंदोलनों का आधार बनाने में कभी दुविधा महसूस किया. ना आज के वामपंथियों की तरह अपनी आस्था को छुपाने की उन्हें ज़रूरत हुई और ना ही उनके हिन्दू मान्यताओं को कभी साम्प्रदायिकता का कलंक झेलना पड़ा. हिन्दू तन-मन, हिन्दू जीवन, रग-रग हिन्दू के अपने परिचय पर वे सदैव अटल रहे.

लेकिन आज तो स्थिति इस मामले में गुलामी से भी गयी बीती है.आज की परेशानी तो पहले से भी ज्यादा है. आप आज कल्पना करें कि देश के कोई कर्णधार हिन्दू प्रतीकों का इस्तेमाल करने की हिम्मत कर पाए. गाँधी के नाम की ही तिजारत करने वाले दल के प्रधानमंत्री या मुखिया की तो चूलें ही हिल जायेगी अगर वे अपने भाषणों में गाँधी की तरह से “राम-राज्य” की बात एक बार भी जुबान पर ले आये तो. तो आज अगर कोई राष्ट्रवादी अपने हिन्दू पहचान को लेकर चिंतित या गांधी से भी ज्यादा परेशान हैं तो इसके बाजिब कारण हैं. कारण यह कि आज का भारत तुष्टिकरण एवं वोट की राजनीति का शिकार हो कर अपने ही घर में बेगाना हो गया है. सुप्रीम कोर्ट तक के द्वारा हिंदुत्व को एक जीवन पद्धति करार दिए जाने के बावजूद आज हिन्दू हित की बात करना साम्प्रदायिकता करार दे दिया गया है. मजहबी आतंकवाद, घुसपैठ, सम्प्रदाय आधारित तुष्टिकरण आदि के विरोध को देशद्रोह करार दे दिया जाता है. ज्यादा परेशानी आज इसलिए है कि जो “रघुपति राघव राजाराम, पतित पावन सीताराम” गाँधी के विचारों का आधार था आज उसपर सांप्रदायिकता का लेबल चस्पा कर दिया गया है. इसलिए आज वास्तव में अपने ही देश में हिन्दू होना ज्यादे परेशानियों का कारण बन गया है. सबसे अजीब स्थिति तो यह है कि आज तक जनसामान्य तक जान-बूझकर “संप्रदाय” का ग़लत अर्थ और सन्दर्भ प्रस्तुत किया जाता रहा है. केवल वोट की पतित लिप्सा के लिए लोगों को बरगलाने का शायद ही कोई दूसरा इतना बड़ा उदाहरण कही देखने को मिले.

आपसे एक छोटा सा सवाल पूछता हूँ…आपने जैन, बौद्ध, सिक्ख, इश्लाम, ईसाई, पारसी आदि के साथ “सम्प्रदाय” विशेषण सुना होगा या रामानंदी, निम्बार्की, शैव, वैष्णव, शाक्त आदि मतों के बारे में सुना होगा. लेकिन अपने कलेजे पर हाथ रख कर सोचें…क्या कभी “हिन्दू संप्रदाय” यह शब्द सुना आपने? तो हिन्दू अगर कोई सम्प्रदाय है ही नहीं, जैसा कि उच्चतम न्यायालय ने भी व्यवस्था दी है कि अगर “हिंदुत्व” से राष्ट्रीयता का बोध होता है तो फिर हिन्दू प्रतीकों एवं मान्यताओं की बात करना या हिन्दू हित की चर्चा करना सांप्रदायिकता कहाँ से हो गया? उर्दू (जिसे जबरदस्ती मुसलमानों का जुबान प्रचारित किया गया है) बोलने वाले लोग भी खासकर अपने देश के लिए “हिन्दुस्तान” संज्ञा का ही इस्तेमाल करते हैं. तो अगर पाकिस्तान का नागरिक पाक, तज़ाकिस्तान का तजाक, उजबेकिस्तान का उज़्बेक, तुर्कमेनिस्तान का तुर्क, अफ़गानिस्तान का अफ़गान हो सकता है, तो हिन्दुस्तान का नागरिक “हिन्दू” क्यूँ नहीं कहा जा सकता? मोटे तौर पर हिन्दू शब्द राष्ट्रीयता का परिचायक है ना कि किसी मत, मज़हब या सम्प्रदाय का.

“सम्प्रदाय” शब्द का विशद अर्थ शास्त्रों में दिया गया है. जिसके अनुसार “सम्यकत्वेन प्रदीयेत इति सम्प्रदायः” यानी विधिवत (सम्यक) रूप से एक व्यक्ति (गुरु या पैगम्बर) द्वारा प्रदान या आविष्कृत किये गए सिद्धांत को सम्प्रदाय कहते हैं. (संस्कृत की भूल-चूक-लेनी-देनी). यदि भारतीय सन्दर्भों में बात करें तो मोटे तौर पर उपनिषदकार अपने-अपने सम्प्रदाय के प्रणेता भी होते थे. “ऊपनिषद” शब्द का अर्थ होता है नजदीक बैठना. यानी उस जमाने में जब कागज़ और कलम की खोज नहीं हुई थी तब “ज्ञान” श्रुति और स्मृति (सुनने और याद रखने) के रूप में पीढ़ियों तक निरंतर गुरु से शिष्यों में परावर्तित होते रहता था. और प्रसिद्ध गुरु अपनी खोज के अनुसार अपने “सम्प्रदाय” का निर्माण कर लेते थे. जैसा कि गोस्वामी जी ने कहा है…”प्रथम मुनिन्ह जेहि कीरति गाई तेहि मग चलत सुगम मोहि भाई” यानी मुनियों ने जिस मार्ग(पंथ) का अन्वेषण किया है उस पर चलने में ही सुविधा है. इस अर्थ में भारत में अन्य विदेशी मतों के आने से पहले भी अनेक तरह के सम्प्रदाय अस्तित्व में थे. अनुयायियों के बीच अपने-अपने मत को लेकर विमर्श एवं विवाद, संवाद, शास्त्रार्थ की भी परंपरा थी. लेकिन “अनुयायी” का “अन्यायी” बन जाने या तलवार के बल पर अपने मतों की स्थापना करने, “मानो या मरो” की परंपरा – कुछ अपवादों को छोड़कर- विदेशियों, विधर्मियों के आने से ही शुरू हुई. तो मोटे तौर पर भय, लोभ, बरगला कर या आग्रह के साथ मत परिवर्तन या अपनी संख्या बढाने का कार्य, किसी मत विशेष को प्रोत्साहन या हतोत्साहन सांप्रदायिकता की श्रेणी में ज़रूर आता है. लेकिन पूर्वजों द्वारा सिन्धु नदी के तट पर विकसित की गयी हज़ारों वर्ष पुरानी जीवन पद्धति जिसमें उपरोक्त वर्णित तमाम मत समुद्र में मिल गयी विभिन्न नदियों की तरह समाहित होते चले गए, की बात को आप सांप्रदायिकता कहेंगे ? योगिराज श्रीकृष्ण ने जैसी स्थापना दी है..स्वधर्मे निधने श्रेयः, परधर्मो भायावयाह.. यानी दुसरे के धर्म में जाने से अच्छा अपने मत को मानते रहते हुए मर जाना बेहतर है…तो यह तय है कि आज पूरी दुनिया में हो रहे या होते आये युद्ध का कारण केवल और केवल अपने मज़हब को श्रेष्ठ मानते हुए दुसरे को उनमें शामिल करने की कुचेष्टा है. लेकिन हिन्दू जन-मन की बात करें तो यहाँ पर तो ऐसी कोई वेकेंसी ही नहीं है. यदि आपने हिन्दू होकर जनम नहीं लिया है तो आप चाह कर भी “हिन्दू” नहीं बन सकते. जैसा कि मेक्समूलर ने कहा था, आपको हिन्दू बनने के लिए दुबारा जन्म ही लेना पड़ेगा. या जैसा की हाल में मार्क टुली ने कहा कि उन्हें अफ़सोस है कि वे हिन्दू बनकर क्यू नहीं पैदा हुए.

निष्कर्षतः अगर हिन्दुओं में कोई इस तरह की भावना होती तो जब स्वामी विवेकानंद शिकागो के धर्म सम्मलेन में हिंदुत्व का पताका फहरा कर लौटे उस समय अगर चाहते तो शायद दुनिया को ही हिन्दू बनाने में सफल हो गए होते. लेकिन उन्हें अपनी सीमाओं और मर्यादाओं का पता था. तभी तो उनके व्याख्यान के अगले दिन “न्यूयार्क टाइम्स” के सम्पादकीय का आशय था कि जहां पर ऐसे प्रखर व्याख्याता और अग्रदूत संत हो वहाँ पर मिशनरियों को मत परिवर्तन के अपने दुराग्रह से बाज़ आना चाहिए. एक ही आलेख में इन सभी सन्दर्भों को समेटना दुष्कर है. लेकिन आग्रह यही है कि हर व्यक्ति अपने-अपने मत पर विवेक भरे आनंद का मुलम्मा चढ़ाए. “एकः सद विप्रः बहुधा वदन्ति” के पूर्वजों की परंपरा को ध्यान में रखते हुए अपने ही खानदान को गरियाने बाज़ आयें और अधर्म सापेक्षता की परिभाषा के बदले सर्व पंथ समादर की हिन्दू भारतीय भावना को कायम रखें. उपरोक्त चीज़ों के आलोक में सोचने पर आपको पता चलेगा राहुल देव जी कि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में तो हिन्दू होना सही में गांधी युग से भी ज्यादे परेशानी का कारण बना दिया गया है.

– पंकज झा.

7 COMMENTS

  1. आपके इस गहन विवेचनात्मक अद्भुद आलेख ने आनंदित कर दिया…
    शत प्रतिशत सहमत हूँ आपसे…..

    वस्तुतः हिन्दू संस्कृति के रगों में जो सहिष्णुतारुपी रक्त प्रवाहित होता है, संभवतः यही कारण है इसे सदैव ही इस प्रकार प्रताड़ना झेलने को विवश होना पड़ता है..
    विश्व का बहुसंख्यक समुदाय शांति तो चाहता है,पर यह नहीं देख समझ पाता कि शांति बिना सहिष्णुता के नहीं पाया जा सकता..

  2. दर असल आज के दौर में हम अपनी कायरता को छिपाने के लिए गांधीवाद का लिबास ओढ़ लेते हैं. और बार-बार गांधी की दुहाई देकर हर तरह के दमन का प्रतिकार करने से रोक दिया जाता है. बहुत उम्दा लेख. जो हर किसी को पढ़ना चाहिए…खासकर सेकुलरवाद के नाम पर हिंदुत्व को गाली देने वालो को.

  3. बहुत बढियां ! प्रस्तुत आलेख के विचारों से मैं सौ फीसदी सहमत हूँ | जहाँ एक और प्रत्येक हिन्दू को सोचना चाहिए की आखिर वो एक हिन्दू की तरह जी भी रहें हैं या नहीं वहीँ दूसरी और अन्य संप्रदाय के लोगों को भी यह बात समझनी चाहिए की हिन्दू महज एक संप्रदाय नहीं अपितु इन सबसे बढ़कर कुछ और है जिसके बारे मैं उन्हें गलत भ्रांतियां हैं | हिन्दू का जीवन जीने मैं सबसे बड़ी परेशानी यह है की हम हिन्दू धर्म के महान आदर्शों को अपनाने से अच्छा अपना लघु स्वार्थ व् जीवन समझते हैं | तो परेशानी हिन्दू धर्म में नहीं बल्कि हममे हैं|

    आपसे अनुरोध है के पाठकों के कमेन्ट पर लेखक की प्रतिक्रिया या तो प्रकाशित किया जय या व्यक्तिगत रूप से मेल की जाय, इससे पाठक-लेखक के सम्बन्ध प्रगाढ़ होंगे |

  4. बहूत सूंदर, बहूत बढिया, हालांक‍ि मोहनदास करमचंद गांधी पर भी गहन बहस की आवश्‍यकता है, ऐसा मैं सोचता हूं,

  5. बहुत ही सटीक बात की है आपने, आप जैसे कलम के वीर जब तक हैं तब तक ये कलम के सौदागर देश को ज्यादा समय तक आहत नहीं कर सकते | आशा है ऐसे लेख हमारे प्रमुख समाचार पत्र भी छापने का साहस कर पाएंगे |

  6. अशोक ने बौध की अहिंसा को राजधरम बना कर देश की सीमाओं को इस्लामिक आक्रान्ताओं के लिए खुला छोड़ दिया । वैसे ही गाँधी के अहिंसा को राष्ट्र धरम मानकर , हम आत्मरक्षा के लिए अनिवार्य हिंसा धर्म से भी विमुख हुए बैठे हैं। चाणक्य ने ठीक ही कहा है’ सांप को दूध पिलाना भी उसका विष बढ़ाना है।’ और हम है की आस्तीन में इन्हें पालते भी हैं और दूध भी खूब पिलाते हैं।

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