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उच्च शिक्षा व्यवस्था में पनप रही दिशाहीनता

-गुंजेश गौतम झा-
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दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति के स्नातक की डिग्री कोर्स को तीन वर्ष की जगह चार वर्ष करने के फैसले ने उच्च शिक्षा के क्षेत्र में एक नई बहस को छेड़ दिया है। एक तरफ दिनेश सिंह जहां अपने जिद पर अड़े हैं तथा अपने फैसले पर पुनर्विचार करने को तैयार नहीं हैं, वहीं दूसरी तरफ विश्वविद्यालय अनुदान आयोग भी अड़ गया है और उनके फैसले को हर हाल में पलटने पर अमादा है। दिनेश सिंह का तर्क है कि विश्वविद्यालय स्वायत्त संस्थान है, अतः उसके कुलपति को अपने परिसर से संबंधित हर फैसला लेने का अधिकार है, उसमें कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकता। दूसरी तरफ विश्वविद्यालय अनुदान आयोग भी अड़ गया है कि अगर उसके नियमों के अनुसार फैसले पर पुनर्विचार नहीं किया गया तो वह विश्वविद्यालय को दिये जाने वाला अनुदान रोक देगा।

यूजीसी और दिल्ली विश्वविद्यालय के बीच हो रही मौजूदा भिड़ंत से यह जाहिर होता है कि उपरी तौर पर भले ही इसके राजनीतिक निहितार्थ हों, किन्तु गहराई मे देश की उच्च शिक्षा व्यवस्था में पनप रही दिशाहीनता, अवसरवादिता और नेतृत्वविहीनता जैसी प्रवृत्तियां इसके लिए उत्तरदायी हैं।
विश्वविद्यालय और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की लड़ाई में उन लाखों छात्रों का भविष्य मुश्किल में फंस गया है, जो विश्वविद्यालय के फैसले के अनुसार पिछले सत्र में चार वर्षीय स्नातक पाठ्यक्रम में दाखिला ले चुके हैं या जिन्होंने आने वाले सत्र में दाखिला लेने के लिए आवेदन किया है। सवाल यह है कि आखिर उन छात्रों का इस पूरे मामले में दोष क्या है ? जिनका भविष्य इस विवाद के चक्कर में बर्बाद होने जा रहा है ? पर लगता नहीं कि दोनों पक्षों में से कोई भी पक्ष इस दृष्टिकोण से इस मामले पर विचार कर रहा है।

दिल्ली विश्वविद्यालय में डिग्री कोर्स चार वर्षीय हो या तीन वर्षीय यह सिर्फ एक विश्वविद्यालय का मुद्दा नहीं है। भारतीय संविधान की समवर्ती सूची का अंग होने के कारण उच्च शिक्षा पर फैसले लेने का अधिकार वैसे तो केंद्र और राज्य दोनों सरकारों को दिया गया है, किन्तु राष्ट्रीय स्तर पर उच्च शिक्षा के मूलभूत बिंदुओं को केन्द्र सरकार द्वारा संसद में पारित राष्ट्रीय शिक्षा नीति के तहत निर्धारित किया जाता है। त्रिवर्षीय डिग्री पाठ्यक्रम जहाँ ब्रिटिश उच्च शिक्षा से मिलता-जुलता है, वहीं चार वर्षीय पाठ्यक्रम अमेरिकी विश्वविद्यालय की तर्ज पर है।

दिनेश सिंह ने गत सत्र से दिल्ली विश्वविद्यालय में अपने अधिकार का प्रयोग करते हुए स्नातक पाठ्यक्रम को तीन वर्ष से बढ़ाकर चार वर्ष के लिए कर दिया। इसके लिए निश्चित तौर पर उनके अपने तर्क होंगे और इस बात को मानने में कोई हर्ज भी नहीं है कि ऐसा उन्होंने स्नातक उपाधि को और गरिमापूर्ण व गुणवत्तापूर्ण बनाने के लिए ही किया होगा। पर इसके लिए क्या उन्हें तकनीकी मापदंडों का भी ध्यान नहीं रखना चाहिए था ? इस मुद्दे पर शिक्षक वर्ग और जाने-माने शिक्षाविदों का विरोध बेबुनियाद नहीं है। चूंकि यह कोई सामान्य फैसला नहीं था, इसका छात्रों के भविष्य पर दूरगामी असर पड़ना था, तो उन्होंने क्यों नहीं तमाम सम्बद्ध संस्थाओं से इसके लिए अनुमति ली। जब देश के अन्य विश्वविद्यालयों में स्नातक तीन ही वर्ष का पाठ्यक्रम है, वैसे में किसी एक विश्वविद्यालय में इसके लिए चार वर्ष का पाठ्यक्रम बनाना वहाँ के छात्रों के लिए अन्याय सरीखा नहीं था? क्या चार वर्षीय कोर्स पास करने वाले विद्यार्थियों को अन्य विश्वविद्यालयों में द्विवर्षीय पीजी (स्नातकोत्तर) कोर्स ही करने पड़ेंगे ? क्या दिल्ली विश्वविद्यालय अपने तमाम पीजी कोर्सों की अवधि को वर्तमान द्विवर्षीय से एकवर्षीय कर पाएगा ? क्या चार वर्षीय कोर्स करने वाले छात्रों का महत्त्व दूसरे विश्वविद्यालय में उनके समकक्षों से अधिक होगा ? क्या इससे उनके करियर में कोई फायदा मिलेगा ? ऐसे तमाम सवाल आज उठ खड़े हुए हैं।
सवाल यूजीसी पर भी उठ रहे हैं कि आखिर उन्होंने उसी वक्त इस पर कार्रवाई की जरूरत क्यों नहीं समझी, जब दिल्ली विश्वविद्यालय ने यह फैसला लिया ? दो संस्थाओं के टकराव में जिन छात्रों का भविष्य प्रभावित हो रहा है, उनकी भरपाई कौन करेगा ? यह सबकुछ दुर्भाग्यपूर्ण है।

चार वर्षीय पाठ्यक्रम के विरोध में दिल्ली विश्वविद्यालय में जो मुद्दा आज उठ रहा है, वह कल देश के सभी विश्वविद्यालयों के समक्ष उठने वाला है। 150 से अधिक वर्ष पुरानी हमारी उच्च शिक्षा व्यवस्था जड़-जंगम और जर्जर हो चुकी है। इसमें ऐसे बुनियादी परिवर्तन करने होंगे, जो 21वीं सदी की जरूरतों के अनुरूप हों। फिलहाल केंद्र सरकार को इस मामले में हस्तक्षेप कर त्वरित कार्रवाई करनी चाहिए, जिससे दिल्ली विश्वविद्यालय की गरिमा भी बच सके और उन छात्रों का भविष्य भी जो वहां बड़े अरमान से पढ़ने आते हैं।