समाज

दिव्यांग-समावेशन: बेहतर समाज की नींव

3 दिसम्बर को अंतरराष्ट्रीय दिव्यांगजन दिवस

अमित सिंह कुशवाहा 

हर वर्ष 3 दिसम्बर को विश्व स्तर पर अंतरराष्ट्रीय दिव्यांगजन दिवस मनाया जाता है। यह दिवस केवल एक औपचारिकता नहीं, बल्कि उन करोड़ों लोगों के अधिकारों, सम्मान और उनके सार्थक जीवन की आकांक्षाओं को केंद्र में रखने का अवसर है, जो किसी न किसी रूप में दिव्यांगता के साथ जीवन जीते हैं। वर्ष 2025 की थीम—“समाज की उन्नति के लिए दिव्यांग-सम्मिलित समाज का निर्माण”—हमें यह सोचने के लिए प्रेरित करती है कि किसी भी राष्ट्र की प्रगति तभी अर्थपूर्ण मानी जा सकती है, जब समाज का प्रत्येक नागरिक, चाहे वह सक्षम हो या दिव्यांग, समान अवसर और गरिमा के साथ अपना जीवन जी सके तथा अपने कौशल और प्रतिभा से समाज को योगदान दे सके।

दिव्यांगता अपने-आप में जीवन की कोई बाधा नहीं बल्कि समाज के दृष्टिकोण, संरचनाओं और व्यवहार में मौजूद भेदभाव ही वास्तविक चुनौती बनकर सामने आता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार दुनिया की लगभग 16 प्रतिशत जनसंख्या दिव्यांगता से प्रभावित है, लेकिन फिर भी अधिकांश लोग शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य सुविधाओं और सामाजिक भागीदारी से दूर रहते हैं। यह दूरियाँ उनकी अक्षमता के कारण नहीं, बल्कि इसलिए होती हैं क्योंकि समाज ने अब तक उन्हें सुविधाओं और सम्मान के स्तर पर बराबरी का स्थान नहीं दिया। इसलिए यह समझना महत्वपूर्ण है कि किसी व्यक्ति की पहचान उसकी दिव्यांगता नहीं होनी चाहिए, बल्कि उसकी क्षमताओं, उसके व्यक्तित्व और उसकी संभावनाओं से होनी चाहिए।

दिव्यांग-सम्मिलित समाज वही होता है जहाँ व्यक्ति को उसकी अक्षमता नहीं, बल्कि उसकी योग्यता और मानवता के आधार पर देखा जाता है। जहाँ स्कूल, कॉलेज, परिवहन, कार्यालय, तकनीक और सार्वजनिक स्थान सभी के लिए समान रूप से सुगम हों। जहाँ किसी दिव्यांग व्यक्ति को सहानुभूति की जरूरत नहीं, बल्कि समान अवसर प्रदान किए जाएँ। और सबसे बढ़कर जहाँ समाज दिव्यांगता को एक विविधता के रूप में स्वीकार करे, न कि दुर्बलता के रूप में। इस दृष्टिकोण का निर्माण तभी संभव है जब शिक्षा, परिवार और समाज के सभी स्तरों पर संवेदनशीलता को बढ़ावा दिया जाए।

समावेशी शिक्षा इस दिशा में सबसे महत्वपूर्ण कदम है। यदि बचपन से ही दिव्यांग बच्चों को सामान्य बच्चों के साथ समान अवसर, संसाधन और सहयोग मिलता है, तो वे जीवन के सभी क्षेत्रों में आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़ सकते हैं। समावेशी विद्यालय ऐसे माहौल का निर्माण करते हैं जहाँ किसी बच्चे को उसकी सीमाओं के आधार पर नहीं, बल्कि उसकी क्षमताओं के आधार पर प्रोत्साहित किया जाता है। इसके लिए स्कूलों में सुगम इमारतें, रैंप, संकेत भाषा, ऑडियो-बुक्स, ब्रेल सामग्री, विशेष शिक्षकों की भूमिका और व्यक्तिगत शिक्षण योजनाएँ अत्यंत आवश्यक हैं। शिक्षक यदि यह समझें कि प्रत्येक बच्चा अलग है और अलग तरीके से सीखता है, तो शिक्षा वास्तव में सबके लिए सुलभ और परिणामदायी बन सकती है।

आर्थिक रूप से सक्षम होना किसी भी व्यक्ति को गरिमा प्रदान करता है। दिव्यांग व्यक्तियों के लिए रोजगार केवल आय का माध्यम नहीं, बल्कि उनके सामाजिक समावेश और आत्मनिर्भरता का आधार है। दुख की बात है कि अभी भी अनेक संस्थाएँ दिव्यांगजनों को नौकरी देने में संकोच करती हैं, जबकि अध्ययनों से यह सिद्ध हो चुका है कि दिव्यांग कर्मचारी अधिक समर्पित, स्थिर और मेहनती होते हैं। यदि कार्यस्थलों को सुगम बनाया जाए, प्रौद्योगिकी का उपयोग किया जाए और दिव्यांग व्यक्तियों की प्रतिभा को महत्व दिया जाए, तो न केवल उनकी जीवन-गुणवत्ता बढ़ेगी बल्कि राष्ट्र की आर्थिक प्रगति में भी वृद्धि होगी। दिव्यांग उद्यमियों को बढ़ावा देना तथा कौशल विकास प्रशिक्षण को दिव्यांग-अनुकूल बनाना इस दिशा में महत्वपूर्ण बदलाव ला सकता है।

सुगम्यता दिव्यांग-सम्मिलित समाज की रीढ़ मानी जाती है। सुगम्यता केवल भवनों में रैंप बनाने से पूरी नहीं होती, बल्कि इसमें भौतिक, डिजिटल, संचार और सामाजिक सभी प्रकार की पहुँच शामिल होती है। यदि परिवहन, कार्यालय, सड़कें, अस्पताल, वेबसाइटें, मोबाइल ऐप और सरकारी सेवाएँ सबके लिए आसानी से उपलब्ध हों, तो दिव्यांग व्यक्ति स्वतंत्र रूप से निर्णय ले सकते हैं और समाज में सक्रिय भूमिका निभा सकते हैं। सुगम्यता केवल कानूनों का विषय नहीं, बल्कि संस्कृति का हिस्सा बननी चाहिए जहाँ हर व्यक्ति यह महसूस करे कि सुविधाएँ सबकी हैं और सबको मिलनी चाहिए।

आधुनिक प्रौद्योगिकी ने दिव्यांग व्यक्तियों के जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन लाया है। डिजिटल तकनीकें, स्क्रीन-रीडर, हियरिंग एड, स्मार्ट व्हीलचेयर, स्पीच-टू-टेक्स्ट सिस्टम, ब्रेल-डिस्प्ले और कृत्रिम अंगों ने लाखों लोगों को नई स्वतंत्रता प्रदान की है। यदि सरकार और समाज इन नवाचारों को और अधिक किफायती तथा सुलभ बना दें, तो दिव्यांग व्यक्तियों की क्षमताएँ और भी व्यापक रूप में सामने आ सकती हैं।

दिव्यांग-सम्मिलित समाज के निर्माण में परिवार और समुदाय की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण है। परिवार यदि स्वीकार्यता, प्रोत्साहन और सकारात्मक सोच प्रदान करे, तो कोई भी दिव्यांग व्यक्ति स्वयं को अलग-थलग नहीं महसूस करेगा। समाज के लोगों को यह समझना चाहिए कि दिव्यांग व्यक्तियों को दया की आवश्यकता नहीं, बल्कि सम्मान और समानता की आवश्यकता है। जब हम किसी व्यक्ति को उसकी सीमाओं के आधार पर नहीं, बल्कि उसकी मानवता और व्यक्तित्व के आधार पर देखते हैं, तभी वास्तविक समावेशन संभव होता है।

अंततः सामाजिक उन्नति तभी संभव है जब समाज का हर वर्ग साथ मिलकर आगे बढ़े। दिव्यांग व्यक्ति अपनी प्रतिभा, रचनात्मकता और मेहनत से समाज और देश की प्रगति में महत्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं। यदि हम उन्हें समान अवसर, सुगम वातावरण और सामाजिक स्वीकृति प्रदान करें, तो पूरा राष्ट्र अधिक मजबूत, अधिक संवेदनशील और अधिक विकसित बनेगा। वर्ष 2025 की थीम हमें यही संदेश देती है कि समावेशन कोई कार्यक्रम नहीं, बल्कि एक निरंतर सामाजिक-मानवीय प्रक्रिया है, जो हमारी सोच, व्यवहार और नीतियों में परिवर्तन लाती है।

इसलिए आवश्यक है कि हम सभी मिलकर एक ऐसे समाज का निर्माण करें जहाँ कोई भी व्यक्ति अपने अधिकारों, सपनों और अवसरों से वंचित न हो। जहाँ हर नागरिक सम्मानपूर्वक जीवन जी सके और अपनी क्षमताओं के साथ राष्ट्र निर्माण में भागीदार बने। वास्तव में एक दिव्यांग-सम्मिलित समाज ही एक उन्नत, न्यायपूर्ण और विकसित समाज की सच्ची पहचान है।

अमित सिंह कुशवाहा 

(विशेष शिक्षाविद और स्वतंत्र लेखक)