
जम्मू कश्मीर में विस्थापित व शरणार्थी/ जाके पैर न फटी विवाई--डा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री
किसी एक देश से दूसरे देश में आकर शरण माँगने वाले व्यक्ति को शरणार्थी कहा जाता है । लेकिन अपने ही देश में किन्हीं कारणों से किसी को अपनी जन्म भूमि छोड़नी पड़े तो वह विस्थापित कहलाता है । यह इन शब्दों का तकनीकी अन्तर कहा जा सकता है । जहाँ तक दोनों के दुख दर्द का सवाल है , उसमें तो क्या अन्तर रहता होगा । लेकिन दुख दर्द की चर्चा साहित्य के क्षेत्र का मामला है । उसके लिये , जाके पैर न फटी विआई सो क्या जाने पीर पराई , का उद्धरण देना होगा । राजनीति साहित्य से नहीं चलती । वह यथार्थ के ठोस धरातल पर नमूदार होती है । वह किसी का दुख दर्द उसके पैरों की फटी विआईयां देख कर नहीं मापती । वह किसी की फटी विआईयों में से रिस रहे ख़ून का मोल अपने नफ़े नुक़सान के आधार पर लगाती है । जम्मू में इन्हीं शरणार्थियों और विस्थापितों की फटी विआईयों से खून पिछले सात दशकों से रिस रहा है लेकिन उनके भीतर की "पीर" पहचानने की कोई भी कोशिश नहीं हो रही । क्योंकि न यह "पीर" और न ही ख़ून जम्मू कश्मीर में विधान सभी में सीटें उगाने में मददगार हो सकता है ।
१ पश्चिमी पंजाब से आने वाले शरणार्थी-- जम्मू में इन का इतिहास १९४७ से शुरु होता है । १९४७ में विभाजित स्वतंत्रता ने मुसलमानों को उनको होमलैंड भी दे दिया था । उस होमलैंड में बाक़ी प्रान्तों के अलावा आधे से भी ज़्यादा पंजाब समा गया था । मुसलमानों के होमलैंड में समा गये पश्चिमी पंजाब से हिन्दु सिक्खों का पलायन शुरु हुआ । लेकिन यह पलायन गान्धी जी की शान्ति यात्रा नहीं थी । शरणार्थियों के इन क़ाफ़िलों को इस्लाम की तलवार की धार के नीचे से निकल कर आना था । उस धार से बच कर कितने लोग सही सलामत पहुँच पाये यह अलग कथा है । पश्चिमी पंजाब के रावलपिंडी, गुजराँवाला और स्यालकोट इत्यादि इलाक़ों से आने वाले शरणार्थियों को सबसे नज़दीक़ जम्मू ही पड़ता था । इसलिये किसी भी प्रकार से बच कर आये ये लोग जम्मू पहुँच गये । पाकिस्तान के विभिन्न हिस्सों से आने वाले जो शरणार्थी अन्य प्रान्तों में पहुँचे ,उन के लिये भारत सरकार ने , उनके पुनर्वास की जो नीति अपनाई , उसे जम्मू कश्मीर में लागू नहीं किया गया । मसलन दूसरे प्रान्तों में जाने वाले शरणार्थियों को , पाकिस्तान में छोड़ी गई सम्पत्ति के आकलन के बाद मुआवज़ा दिया गया । खेती के लिये किसानों को ज़मीन मुहैया करवाई गई । इधर से हिजरत करके जाने वाले मुसलमानों के खाली हुये घर उनके नाम आवंटित कर दिये गये ।
लेकिन इसके विपरीत जो शरणार्थी जम्मू कश्मीर में आ गये थे , उनके दुर्भाग्य ने आज ६३ साल बाद भी उनका पीछा नहीं छोड़ा । इनकी संख्या दो लाख से भी ज्यादा है । राज्य सरकार इनके पुनर्वास के लिये कोई नीति बनाना तो दूर , इन को राज्य का हिस्सा मानने को भी तैयार नहीं है । इस के लिये सरकार ने १९२७ के एक ऐसे क़ानून को ढाल की तरह इस्तेमाल किया है , जिसमें राज्य के स्थायी निवासी को पारिभाषित किया गया है । यह क़ानून उसी प्रकार का है , जिस प्रकार के क़ानून या नियम अन्य राज्यों में स्टेट डोमिसायल या राज्य के निवासी को पारिभाषित करने के लिये बने हुये हैं । अन्तर केवल इतना ही है कि अन्य राज्यों में निवासी की परिभाषा गतिमान रहती है , लेकिन जम्मू कश्मीर में यह जड़ता को प्राप्त हो गई है । अन्य राज्यों में एक निश्चित अवधि तक उस राज्य में रहने वाले व्यक्ति को उस राज्य का निवासी मान लिया जाता है । लेकिन जम्मू कश्मीर में स्थायी निवासी वह है जिसे १९५४ में उस प्रान्त में रहते हुये दस साल हो गये हों । ज़ाहिर है इस परिभाषा की जडें भूतकाल में हैं , जबकि ये भविष्य काल या वर्तमान काल में होनी चाहियें । इस क़ानून के कारण शरणार्थियों को सरकारी काग़ज़ों में राज्य के स्थायी निवासी नहीं माना जा सकता ।
यह तो शुरुआत भर है , असली ड्रामा तो उसके बाद ही शुरु होता है । पश्चिमी पंजाब से जम्मू कश्मीर में आने के बाद इन शरणार्थियों ने उन मकानों में रहना शुरु कर दिया , जिन्हें मुसलमान छोड़ कर पाकिस्तान हिजरत कर गये थे । इसे देख कर जम्मू कश्मीर सरकार ने एक नई तरकीब निकाली । सरकार ने पुनर्वास विधेयक का क़ानून बना कर उन सभी मुसलमानों या उन के उत्तराधिकारियों को राज्य में वापिस आ जाने का निमंत्रण दिया । फिर सरकार ने कल्पना की कि एक न एक दिन वे मुसलमान वापिस लौट आयेंगे , इसलिये ज़रुरी है कि उनके घरबार हिफाज़त से रखे जायें , ताकि असली मालिकों के आते ही उन्हें सही सलामत लौटा दिया जाये । इसलिये कस्टोडियन विभाग की स्थापना की गई और पाकिस्तान को हिजरत कर गये मुसलमानों के मकान दुकान , ज़मीन जायदाद इस विभाग के हवाले कर दी गई । कस्टोडियन विभाग ने इन शरणार्थियों को मकान ख़ाली कर देने के लिये कहा और खेती की ज़मीनें छोड़ देने के आदेश जारी किये । दानिशमंदों ने कहा कि सरकार अपने शेखचिल्लीपन की यह नीति छोड़े और शरणार्थियों को स्थायी रुप से बसाने की व्यवस्था करे । जम्मू कश्मीर सरकार को भी इस बात का इलम था कि पाकिस्तान गया हुआ कोई प्राणी वापिस यहाँ बसने नहीं आयेगा , लेकिन उसकी यह सारी मैनेजमैंट राज्य से शरणार्थियों को भगाने के लिये ही थी । सरकार ने कहा , इन मकानों व ज़मीनों के मालिक तो वही मुसलमान रहेंगे जो पाकिस्तान को चले गये हैं , लेकिन मानवीय आधार पर शरणार्थियों को इनमें किरायेदार के नाते रहने की अनुमति दी जा सकती है । इस प्रकार सभी शरणार्थी एक निश्चित किराये पर किरायेदार घोषित हुये । वे अभी भी इन मकानों और ज़मीनों का किराया दे रहे हैं जो बाकायदा कसटोडियन विभाग में उस मुसलमान मालिक के नाम जमा करवाना पडता है जो सात दशक पहले पाकिस्तान में जाकर बस ही नहीं गया , हो सकता है वहां की सेना में भर्ती होकर भारतीय सेना से लडा भी हो , और रसीदें संभाल कर रखनी पड़तीं हैं , ताकि वक़्त बेवक्त काम आयें ।
लेकिन अब इनमें से कुछ शरणार्थी अपने परिश्रम के बलबूते काफ़ी समृद्ध हो गये हैं और वे कस्टोडियन विभाग का किराये का नरक छोड़ कर अपना स्वयं का मकान बना लेना चाहते हैं । इसके लिये वे सरकार से कोई सहायता नहीं चाहते । जो ज़मीन जायदाद वे पीछे छोड़ आये थे , उसे वे भुला चुके हैं और नये सिरे से अपना आशियाना बनाना चाहते हैं । लेकिन वे ऐसा नहीं कर सकते । वही १९२७ का राज्य के स्थायी निवासी वाला क़ानून । इस कानून के अनुसार जम्मू कश्मीर में सम्पत्ति वही ख़रीद सकता है जो राज्य का स्थायी निवासी हो । ये शरणार्थी राज्य के स्थायी निवासी नहीं हैं । यह अलग बात है कि इनको यहाँ रहते हुये सात दशक हो चुके हैं । जिन मकानों में वे रह रहे हैं उनके मालिक नहीं बन सकते और अपनी इच्छा से ख़ुद के पैसों से अपने लिये नया घर बना नहीं सकते । ताक़तवर मारे भी और रोने भी न दे ।
लेकिन यह इन शरणार्थियों की कथा की भूमिका मात्र है । असली कहानी आगे शुरु होती है । अब इन शरणार्थियों के बच्चे जवान हो गये हैं । इनके बच्चे क्या, आगे उनके बच्चे भी जवान हो गये हैं । मामला तीसरी पीढी तक आ पहुंचा है । लेकिन इन बच्चों को और आगे की पीढ़ियों में होने वाले उनके बच्चों को भी राज्य के मैडीकल , आभियान्त्रिकी महाविद्यालयों में प्रवेश नहीं मिल सकता । राज्य के बाक़ी सभी बच्चे स्नातकोत्तर स्तर तक शिक्षा नि:शुल्क प्राप्त करते हैं , लेकिन इन बच्चों के लिये यह स्वप्न है । ग़रीबी या योग्यता के आधार पर शेष बच्चे राज्य सरकार से छात्रवृत्तियाँ ग्रहण करते हैं , लेकिन इन बच्चों के लिये शिक्षा के ये सारे दरवाज़े बन्द हैं । यह कथा का एक हिस्सा है । अब दूसरा हिस्सा । बहुत से बच्चे इतनी बाधाओं के बाबजूद अन्य प्रान्तों से उच्च शिक्षा प्राप्त करके आ जाते हैं । लेकिन अब उन के लिये राज्य में सरकारी नौकरी के दरवाज़े बन्द हैं । वही १९२७ वाला राज्य के स्थायी निवासी होने की परिभाषा । राज्य सरकार की नौकरी राज्य के स्थाई निवासी को ही मिल सकती है । स्थायी निवासी होने का तरीक़ा ? किसी स्थायी निवासी के घर में जन्म ले लेना । आदमी कितनी भी तरक़्क़ी क्यों न कर ले , शायद यह उसके वश में तब भी नहीं हो पायेगा ।
इन शरणार्थियों को दोहरा नुक़सान उठाना पड़ रहा है । इनमें से नब्बे प्रतिशत शरणार्थी दलित वर्ग से ताल्लुक रखते हैं । भारत सरकार इस वर्ग के लिये अनेक कल्याणकारी योजनाएँ संचालित करती हैं । लेकिन जम्मू कश्मीर के इन दलित शरणार्थियों को इसका किंचित मात्र लाभ नहीं मिल पाता । तब प्रश्न यह है कि राज्य सरकार द्वारा इन शरणार्थियों की गई सख़्त घेराबन्दी को कैसे तोड़ा जाये और ये शरणार्थी इस आईसोलेशन वार्ड से बाहर निकलें ?
आज लोकतंत्र का युग है । जिसके पास वोट बैंक है , नेता उनके पास दौड़े आते हैं । इन शरणार्थियों की जनसंख्या तो दो लाख को भी पार कर चुकी है । इन के वोट की शक्ति को कोई भी भला कैसे नकार सकता है ? यदि ये शरणार्थी मिल कर निर्णय कर लें कि वोट उसी को देंगे जो इनकी समस्याओं को हल करेगा तो सरकार चला रही पार्टियाँ तो इनके सामने घुटने टेकेंगी ही ? लेकिन राज्य सरकार ने समय रहते उसका इलाज भी निकाल लिया । नई व्यवस्था की गई । राज्य विधान सभा के चुनाव में वही मतदान कर सकता है जो राज्य का स्थायी निवासी होगा । वही १९२७ वाला क़ानून । इस क़ानून की आड़ में राज्य सरकार ने इन दो लाख शरणार्थियों को केवल राज्य विधान सभा के लिये ही नहीं बल्कि पंचायत व नगरपालिका के चुनावों में भी मतदान के अधिकार से बंचित कर दिया है । तू डाल डाल मैं पात पात । ये शरणार्थी १९४७ से अभी तक राज्य सरकार की डाल पर लटक रहे हैं ।
२ जम्मू कश्मीर के भीतर से विस्थापित-- अब जम्मू कश्मीर राज्य के भीतर से ही विस्थापितों की बात की जाये ।इन की भी आगे दो श्रेणियाँ हैं ।
(क) पाक अनधिकृत जम्मू कश्मीर के विस्थापित-- १९४७ में पाकिस्तान ने जम्मू कश्मीर पर आक्रमण करके उसके एक तिहाई हिस्से पर अनधिकृत रुप से क़ब्ज़ा कर लिया था । इसमें बल्तीस्तान , गिलगित,मुज्जफराबाद , मीरपुर , कोटली और पुँछ का अधिकांश इलाक़ा शामिल था । पाक अनधिकृत क्षेत्रों में मची मार काट से बचकर हिन्दु और सिक्ख राज्य के उन इलाक़ों में चले आये , जिन पर या तो पाकिस्तानी सेना क़ब्ज़ा नहीं कर सकी थी या फिर उनको सेना ने पाकिस्तानी आक्रमणकारियों से मुक्त करवा लिया था । तकनीकी शब्दावली में ये लोग विस्थापित कहलाये , क्योंकि ये अपने राज्य के ही एक भाग से दूसरे भाग में आये थे । शुरु में ऐसा लगता था कि सेना जल्दी ही पाक अनधिकृत क्षेत्र को मुक्त करवा लेगी और ये विस्थापित अपने घरों को वापिस लौट जायेंगे । लेकिन जब एक जनवरी १९४९ को भारत सरकार ने मुक्ति अभियान के बीच ही युद्ध विराम की घोषणा कर दी तो इन विस्थापितों के वापिस लौटने की सभी आशाएँ धूमिल हो गईं । और यहीं से इनकी असली समस्याएँ शुरु हुईं । वर्तमान में इनकी संख्या बारह लाख से भी ज़्यादा है ।
सबसे पहले तो राज्य सरकार ने कोशिश की कि इन विस्थापितों को राज्य में टिकने ही न दिया जाये । भारत सरकार पर दबाव डाला गया कि इनको देश के दूसरे हिस्सों में बसाया जाये । हज़ारों विस्थापितों को ट्रकों में लाद लाद कर पंजाब और दिल्ली की ओर रवाना कर दिया गया । यहाँ तक की मध्य प्रदेश तक में ये विस्थापित पहुँचा दिये गये । इस प्रकार लगभग दो लाख विस्थापितों को राज्य सरकार किसी तरीके से राज्य से भगाने में कामयाब हो गई । लेकिन दस लाख अब भी राज्य में ही है । उन दिनों शेख अब्दुल्ला ने उन्हें युद्ध विराम रेखा के साथ लगते गाँवों में बस जाने की सलाह दी थी । इन क्षेत्रों के लोग युद्ध के कारण गाँवों के गाँवों ख़ाली कर पलायन कर गये थे । विस्थापितों ने राज्य सरकार पर विश्वास कर वहाँ रहना भी स्वीकार किया ।
लेकिन सरकार ने इनको तकनीकी कारणों से शरणार्थी मानने से इंकार कर दिया । सरकार का तर्क है कि यदि इन विस्थापितों को शरणार्थी स्वीकार कर लिया जाये तो अप्रत्यक्ष रुप से इसका अर्थ होगा कि पाकिस्तान के क़ब्ज़े में गये जम्मू कश्मीर के हिस्से को अलग देश मान लिया गया है । सरकार की बात सोलह आने सच्ची । इस पर विस्थापितों को भी कोई इतराज नहीं । लेकिन इतना सच बोल कर सरकार उसके बाद झूठ बोलना शुरु कर देती है । लेकिन इसके बाद न तो सरकार ने पाकिस्तान के कब्जे में गये उस भू भाग को खाली करवाने का कोई प्रयास किया और न ही इन विस्थापितों को इन की उस पीछे छूट गई सम्पत्ति का कोई मुआवज़ा दिया । सरकार का अपना तर्क है । मुआवज़ा शरणार्थी के लिये हो सकता है , विस्थापित के लिये कैसा मुआवज़ा ? इनसे भी सरकार ज़मीनों का किराया वसूलती है । इनको भी राज्य सरकार के पुनर्वास विधेयक की आग में झुलसना पड़ रहा है । पाकिस्तान चले गये मुसलमानों के जिन मकानों में ये रह रहे हैं , सरकार अपने रिकार्ड में अभी भी उन मकानों का मालिक उन मुसलमानों को ही मानती है और हथेली पर दाना रख कर रट लगाती रहती है - आ कौआ दाना चुग । पता सरकार को भी है कि उस पार से कौआ दाना चुकने कभी नहीं आयेगा लेकिन सरकार के इस तमाशे से विस्थापित भटकने को मजबूर हो रहे हैं ।
एक बार दिखावे के लिये ही सही , सरकार ने इन विस्थापित परिवारों की गिनती का काम शुरु किया था । लेकिन जब गिनती करने वाले अधिकारियों ने एक के बाद सीधा दस गिनना शुरु कर दिया तो बीच के परिवारों ने पूछना ही था कि हमारा परिवार क्यों छोड़ा जा रहा है ? सरकार का उत्तर अख़बारों के हास्य सामग्री कालम में छप सकता है । सरकार का कहना था कि १९४७ में जब आप उस पार से इस पार आये थे तो आपके परिवार का मुखिया आपके साथ नहीं था । अब इस प्रश्न का कोई क्या उत्तर दे ? क्योंकि परिवार का मुखिया तो इस पार आते आते आततायियों ने उनकी आँखों के सामने ही काट दिया था । लेकिन सरकार को इससे क्या लेना देना । परिवार का मुखिया साथ था तो ठीक नहीं तो चलो हटो परे । और आज तक राज्य सरकार कुल मिलाकर सभी सत्रह लाख विस्थापितों/शरणार्थियों को चलो हटो परे के डंडों से ही हाँक रही है । लेकिन ऐसा क्यों ? जानते सभी हैं , लेकिन कहेगा कोई नहीं । क्योंकि सच कहने से उनकी पंथ निरपेक्षता को ख़तरा उत्पन्न हो जाता है । जो सच बोले वही साम्प्रदायिक । लेकिन सच यही है कि ये सभी शरणार्थी /विस्थापित हिन्दू/सिक्ख हैं , अत: ऐसी परिस्थितियाँ पैदा करो कि ये राज्य छोड़ कर भाग जायें । और जो उस पार चले गये हैं वे सभी मुसलमान हैं । अत: सरकार मटके में पानी डाल कर और हथेली पर पुनर्वास विधेयक रख कर -कौवा दाना चुग , कौवा दाना चुग का कलमा पढ़ती रहेगी ।
(ख) युद्ध के कारण विस्थापित-- विस्थापितों की दूसरी श्रेणी उन क्षेत्रों से है , जो क्षेत्र नियंत्रण रेखा पर है और जहाँ से १९६५ और १९७१ के भारत-पाक युद्ध के कारण , इनको अपने घर बार छोड़ कर जम्मू आना पड़ा । इन की संख्या भी लगभग दो लाख है ।
(ग) कश्मीर घाटी से विस्थापित- कश्मीर घाटी में जब १९९० में वहाँ के कट्टर पाकिस्तान समर्थक दलों ने निज़ाम-ए-मुस्तफ़ा की योजना पाकिस्तान की सक्रिय सहायता से लागू की तो कश्मीर के हिन्दुओं के सामने उन्होंने दो विकल्प रखे । या तो मुसलमान बन जाओ या फिर अपनी औरतों को घाटी में छोड़ कर यहाँ से चले जाओ । मुस्लिम वोट बैंक के नाराज़ होने के डर से देश की तथाकथित पंथनिरपेक्ष पार्टियों ने कट्टर पंथियों की इस योजना का सक्रिय विरोध नहीं किया । इसके विपरीत इस योजना का विरोध कर रहे वहां के राज्यपाल जगमोहन को राजीव गान्धी की ज़िद के कारण हटा दिया । इसके कारण घाटी में से तीन लाख से भी ज़्यादा हिन्दुओं को ेअपना घर छोड़ कर जम्मू में शरण लेनी पड़ी ।
शरणार्थियों/विस्थापितों को खदेड़ते घेरते राज्य सरकार ने इतना ध्यान ज़रुर रखा कि कहीं कोई विस्थापित या शरणार्थी कश्मीर घाटी की ओर न रुख़ कर ले । जहाँ तक कि राज्य सरकार ने मुज्जफराबाद के विस्थापितों को भी घाटी का रुख़ नहीं करने दिया । उन्हें भी जम्मू की ओर धकेला । राज्य के मानवाधिकार आयोग को तो इन लोगों की समस्या का इल्म ही नहीं है । पिछले दिनों केन्द्र सरकार की ओर से तीन लोग वार्ताकार के रुप में प्रदेश भर में सैर सपाटा करते रहे और सरकारी मेहमानवाज़ी हलाल करते रहे लेकिन उनकी इतनी हिम्मत नहीं हुई कि केवल इतना भर लिख दें कि इन शरणार्थियों को राज्य के स्थायी निवासी का प्रमाण पत्र दिया जाना चाहिये । इससे उमर अब्दुल्ला नाराज़ हो सकते थे , हुर्रियत कान्फ्रेंस नाराज़ हो सकती थी । सरकार को आतंकवादियों के मानवाधिकारों की चिन्ता है , पत्थर फेंकने वालों को पुलिस में भर्ती करने की चिन्ता है , पाकिस्तान से मुसलमानों को लाकर राज्य में बसाने की चिन्ता है , म्यांमार के रहंगिया मुसलमानों को घाटी में बसाने की चिन्ता है । चिन्ता नहीं है तो केवल राज्य के इन सत्रह लाख वाशिन्दों की , क्योंकि वे हिन्दु सिक्ख हैं ।इनको आशा थी कि इस बार अपना ही एक विस्थापित/शरणार्थी भाई देश का प्रधानमंत्री बना है । उसके अपने पैरों की विआई फटी थी , इसलिये वह इनकी पीर भी समझेगा , लेकिन उसे भी हुर्रियत से आगे कुछ दिखाई नहीं देता । शायद सत्ता की तासीर ही ऐसी होती हो ।आमीन ।
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आ० अग्निहोत्री जी,
कश्मीर के सच को इस लेख के माध्यम से प्रकसित करने के लिए आपका धन्यवाद। कश्मीर के हालात बहुत ही वेदना से भरे हुए है। सचमुच देश तो आज़ाद हो गया पर देश की आज़ादी के साथ कश्मीर के हिन्दू को आज़ादी नहीं मिली पिछले 66 वर्ष से वहाँ का हिन्दू आज़ादी के सूर्य को देखने के लिए लालायित है। चुनावों के कितने ही मौसम आए,और चले गए। कश्मीर के केसर की क्यारियों मे बारूद के कारखाने लगते चले गए। बदलते और बिगड़ते कश्मीर को किसी ने देखने या संभालने का प्रयास नहीं किया। आपके दर्द को समझा जा सकता है।