राजनीति

कश्मीर मुद्दे पर विघटनकारी एवं देशद्रोही वक्तव्य तथा केंद्र में काँग्रेस की चुप्पी

कश्मीर मुद्दे पर केंद्र सरकार की नीति प्रश्नों के दायरे में खड़ी दिख रही । ऐसे प्रश्न जिनके उत्तर देना कठिन हो सकता है ।

अरुंधति रॉय एवं गिलानी के देशद्रोही बयानों के बाद गृहमंत्री ने तत्परता से सबको चुप कराया और कहा कि सरकार अपना कार्य कानून के अनुसार करेगी । अरुण जेतली शांत हो गए । बीच में राम जेठमलानी ने कुछ ऐसा कह दिया कि भाजपा और चुप्पी साध गई । बाकी विपक्ष चुप है ही ।

खबर आई है कि सरकार गिलानी व अरुंधति के खिलाफ मामला दर्ज नहीं कराएगी । कारण ? कि इस तरह के किसी कदम से उन्हें अनावश्यक प्रचार मिलेगा और घाटी में अलगाववादियों को एक मौका मिलेगा।

बीच में समाचार था कि दिलीप पडगाँवकर पाकिस्तान से बात करना चाहते हैं ।

अब एक और बयान आया है – कश्मीर के लिए नियुक्त वार्ताकारों में से एक राधा कुमार का कहना है कि जम्मू एवं कश्मीर की आजादी के बारे में चर्चा के लिए संविधान में संशोधन किया जा सकता है।

अरुंधती और पडगांवकर के विषय में लोग जानते हैं …। पर राधा कुमार कौन हैं ? यह दिल्ली स्थित जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय में नेल्सन मंडेला के नाम पर स्थापित एक संस्थान में शांति एवं टकराव जैसे विषयों पर कार्य करती हैं ।

इन्होंने एक पुस्तक भी लिखी है – “Making Peace with Partition” , 2005

क्या इस पृष्ठभूमि में कश्मीर की समस्या पर चल रहे अंतर्विरोध को समझा जा सकता है ? क्या ऐसा नहीं लगता कि दिशा किसी और तरफ है एवं कहा कुछ और जा रहा है ?

जो लोग देशद्रोही गतिविधियाँ कर रहे हैं उनकी ओर से भय दिखा कर जनता को चुप कराया जा रहा है । जो लोग विभाजन के प्रति स्वीकारात्मक रुख रखने वाले एवं कश्मीर को अलग करने की बातों में रुचि लेने वाले लग रहे हैं उन्हें अलगाववादियों से बात करने का जिम्मा सौंपा गया है ।

यह दिशा क्या है – देश बांटने की या कि देश को जोड़े रखने की ? क्या केंद्र सरकार अलगाववादियों से डर गई है ? या फिर कुछ ताकतवर देशों को खुश रखने की कोशिश है ? अन्यथा क्या यह केंद्र में सत्तासीन दल की एक नई विघटन-स्वीकारात्मक सोच की तरफ अग्रसर होने का संकेत है ?

हम एक और विभाजन स्वीकार नहीं कर सकते ।

राष्ट्रवादी शक्तियों को सजग रहने के साथ साथ इन परिस्थितियों का मूल्यांकन करते हुए हस्तक्षेप करना होगा ।