इतिहास का विकृतिकरण और नेहरू (अध्याय 10)

( डिस्कवरी ऑफ इंडिया की डिस्कवरी )

भारत आर्य और द्रविड़ में बंटा रहा? (अध्याय 10 )

डॉ राकेश कुमार आर्य

पिता के पत्र पुत्री के नाम नामक पुस्तक में नेहरू जी के द्वारा अपनी पुत्री इंदिरा गांधी के लिए लिखे गए पत्रों के संकलन में वह लिखते हैं-

“रामायण पढ़ने से मालूम होता है कि दक्खिनी हिंदुस्तान के बंदरों ने रामचन्द्र की मदद की थी और हनुमान उनका बहादुर सरदार था। मुमकिन है कि रामायण की कथा आर्यों और दक्खिन के आदमियों की लड़ाई की कथा हो, जिनके राजा का नाम रावण रहा हो। रामायण में बहुत-सी सुंदर कथाएँ हैं; लेकिन यहाँ मैं उनका जिक्र न करूँगा, तुमको खुद उन कथाओं को पढ़ना चाहिए।

महाभारत इसके बहुत दिनों बाद लिखा गया। यह रामायण से बहुत बड़ा ग्रंथ है। यह आर्यों और दक्खिन के द्रविड़ों की लड़ाई की कथा नहीं; बल्कि आर्यों के आपस की लड़ाई की कथा है। लेकिन इस लड़ाई को छोड़ दो, तो भी यह बड़े ऊँचे दरजे की किताब है, जिसके गहरे विचारों और सुंदर कथाओं को पढ़ कर आदमी दंग रह जाता है। सबसे बढ़ कर हम सबको इसलिए इससे प्रेम है कि इसमें वह अमूल्य ग्रन्थ रत्न है, जिसे हम भगवद्गीता कहते हैं।”

इस प्रकार नेहरू जी जहां आर्यों को विदेशी मानते थे, वहीं वह इस बात के भी समर्थक थे कि भारत में आर्यों के आगमन के पश्चात उनका द्रविड़ों के साथ संघर्ष हुआ। आर्यों ने उन्हें उत्तर से दक्षिण की ओर भगा दिया था। वास्तव में, भारत में आर्यों को विदेशी बताने वाले नेहरू जी जैसे लोगों ने ही यहां गोरे-काले अथवा आर्य-द्रविड़ का भेद उत्पन्न किया। जिससे यह बात सिद्ध हो सके कि भारत में तो प्राचीन काल से ही गोरे-काले का भेद रहा है और यहां जातीय संघर्ष भी प्राचीन काल से ही रहा है। इसके लिए देवासुर संग्राम को या आर्य दस्यु संघर्ष के अर्थ का अनर्थ करके प्रस्तुत किया गया है।

नेहरू जी गांधी जी के साथ मिलकर देश के स्वाधीनता संग्राम में काम कर रहे थे। 2 सितंबर 1946 को वह देश के अंतरिम प्रधानमंत्री बने थे। उसके पश्चात वह देश की स्वाधीनता के पश्चात भी भारतवर्ष के पहले प्रधानमंत्री बने। ऐसे महत्वपूर्ण व्यक्ति से अपेक्षा की जाती है कि वह परिपक्व सोच के आधार पर देश के लिए लिखे तो अच्छा है। भारत के लोगों के भीतर गौरवबोध के साथ-साथ इतिहास बोध करने वाला साहित्य उनके द्वारा लिखा जाना चाहिए था। द डिस्कवरी ऑफ इंडिया में यद्यपि उन्होंने कई स्थानों पर भारत के पराक्रम, शौर्य और ज्ञान-विज्ञान या कला और साहित्य के क्षेत्र में किए गए कार्यों को बड़ी सुंदरता से प्रस्तुत किया है, परंतु उसके उपरान्त भी इस पुस्तक में अनेक स्थल ऐसे हैं, जिनसे भारतीय इतिहास की परंपरा बाधित होती है।

आर्यों का आदि देश और उनकी सभ्यता के विद्वान लेखक (स्वामी विद्यानंद सरस्वती) स्वामी विवेकानंद सरस्वती का कथन है कि- “वस्तुतः भारतीयों में भेद डालने का षड़यंत्र प्रायः ईसाई पादरियों ने रचा। पाश्चात्य आक्रांता सैनिक आक्रमण से पहले पादरियों को भेजते थे जो प्रारम्भ में उन्हें धरती पर पैर रखने और तत्पश्चात् पैर जमाये रखने में सहायक सिद्ध होते थे।” इसी कारण सन् 1876 में बम्बई के गवर्नर के सामने ईसाई मिशनरियों के शिष्टमंडल को प्रस्तुत करते हुए कहा था- “जितना काम आपके सिपाही, जज, गवर्नर आदि सब मिलकर कर रहे हैं, उससे कहीं अधिक ये पादरी लोग कर रहे हैं।” सन् 1856 में काल्डवेल (Caldwell) ने भाषा शास्त्र के निमित्त से Comparative Philology of the Dravadian or South Indian Languages नामक पुस्तक लिखी। यह पहला ईसाई पादरी था जिसने द्रविड शब्द गढ़कर इस शरारत का सूत्रपात किया। बाद में यह शब्द दक्षिण की भाषा तथा वहाँ के लोगों के लिए प्रचलित हो गया। यद्यपि बाद में दूसरे भाषाशास्त्री जॉर्ज ग्रियर्सन (George Grierson) ने स्पष्ट किया कि “यह द्रविड़ शब्द स्वयं संस्कृत शब्द ‘द्रमिल’ (Dramila) अथवा ‘दमिल’ (Damila) का बिगड़ा रूप है और केवल तामिल के लिए प्रमुक्त होता है।”

कालान्तर में यह दबा हुआ सत्य, शायद भूल से, स्वयं काल्डवेल भी इन शब्दों में व्यक्त कर बैठा कि “यह (द्रविड़) शब्द वास्तव में तमिल भाषा का है और केवल तमिल लोगों तक सीमित है।” (वही, सं. 2, पृष्ठ 5-7)

जब द्रविड़ भाषा का नाम गढ़ लिया गया तो द्रविड़ नामक जाति भी खड़ी करनी पड़ी। परंतु सर जॉर्ज कैम्पबेल (George Campbell) नामक नृवंशवैज्ञानिक (Ethnologist) ने उसके किये घरे पर पानी फेर दिया। उसने लिखा कि “नृवंश शास्त्र के आधार पर उत्तर और दक्षिण के समाज में कोई विशेष भेद नहीं है। द्रविड़ नाम की कोई जाति नहीं है। निस्सन्देह दक्षिण भारत के लोग शारीरिक गठन, रीति-रिवाज और प्रचार-व्यवहार में केवल एक आर्य समाज है।” उन्हीं दिनों श्री ग्रोवर ने दक्षिण भारत के लोक गीतों पर एक पुस्तक Folk Songs of Southern India लिखकर उसमें तथाकथित द्रविड़ों को आर्य सिद्ध किया।

“आस्ट्रेलिया के आदिवासियों और दक्षिण भारत के तथाकथित द्रविड़ों के बहुत से रीति-रिवाजों में समानता है। यदि आस्ट्रेलिया के निवासी आर्य हैं तो उनके समान रीति-रिवाज वाले द्रविड़ लोग आर्य क्यों नहीं?

4 सितम्बर 1977 को संसद् में राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत सदस्य सर फ्रेंक एन्थोनी ने माँग की थी कि भारतीय संविधान के आठवें परिशिष्ट में परिगणित भारतीय भाषाओं की सूची में से संस्कृत को निकाल देना चाहिए, क्योंकि यह विदेशी आक्रान्ता आर्यों द्वारा इस देश में लाई गई विदेशी भाषा है।”

इस विषय में हमारे भ्रमित करने या संबंधित इतिहास का विकृतीकरण करने का कार्य मैकडोनेल (Macdonell) ने विशेष रूप से किया। उन्होंने अपनी पुस्तक वैदिक रीडर में लिखा-

“ऋग्वेद की ऋचाओं से प्राप्त ऐतिहासिक सामग्री से पता चलता है कि ‘इंडो आर्यन’ लोग सिंधु पार करके भी आदिवासियों के साथ युद्ध में संलग्न रहे। ऋग्वेद में उनकी इन विजयों का वर्णन है। विजेता के रूप में वे आगे बढ़ रहे थे, यह इस बात से सूचित होता है कि उन्होंने अनेकत्र नदियों का अपने मार्ग में बाधक रूप में उल्लेख किया। उन्हें उनकी जातिगत तथा धार्मिक एकता का पता था। वे अपनी तुलना में आदिवासियों को यज्ञविहीन, आस्थाहीन, काली चमड़ी वाले व दास रंग वाले और अपने आपको आर्य-गोरे रंग वाले कहते थे।”

मैकडोनेल का यही झूठ आज तक हमारे विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जा रहा है। कुछ समय पश्चात इसी झूठ को आधार बनाकर यदि कोई व्यक्ति यह भी सिद्ध कर दे कि आर्य (गोरे रंग वाले) अंग्रेजों (क्योंकि रंग उनका भी गोरा ही है) के ही पूर्वज थे तो भी कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। यह भारत है और इसमें सब चलता है-भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर। भारतवर्ष में यदि आप अपने आपको ही गाली दें, तो और भी अच्छा माना जाता है।

मैकडोनेल की उक्त मिथ्या अवधारणा के विषय में हमें स्मरण रखना चाहिए कि वेदों में इतिहास नहीं है। क्योंकि वेद अपौरुषेय हैं और वे सृष्टि प्रारंभ में ईश्वर की वाणी के रूप में मनुष्य को दिये गये। वेद वह शाश्वत ज्ञान है जो सृष्टि दर सृष्टि सदा विद्यमान रहता है और सृष्टि व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने में मानव की सहायता करता है। इसमें अयोध्या आदि जैसे शब्दों को पकड़कर उनके अनुसार कुछ स्थानों के या नगरों के या जड़ पदार्थों के नाम रखे गये तो इसका अभिप्राय यह नहीं कि वेदों में इतिहास मान लिया जाए। हमारे वेदों में इतिहास होने की अवधारणा का प्रतिपादन करके वेदों का जिस प्रकार अर्थ का अनर्थ किया गया है, वह विश्व का सबसे बड़ा ‘बौद्धिक घोटाला’ है। स्वामी विद्यानंद सरस्वती जी लिखते हैं कि-

“वैदिक धर्म को भ्रष्ट करने, अंग्रेजी राज्य की जड़े मजबूत करने तथा अंत में भारतीयों को ईसाई बनाने के लिए इस प्रकार की भ्रांतियां फैलाई गयीं जिनके परिणामस्वरूप इस देश को न जाने कितनी विपत्तियों का सामना करना पड़ा है। वास्तव में वेद में आये आर्य, दास या दस्यु आदि शब्द जातिवाचक न होकर गुणवाचक हैं।”

यद्यपि मैक्स मूलर की भी मान्यता थी कि आर्य को किसी जाति विशेष के संदर्भ में नहीं लेना चाहिए (संदर्भ बायोग्राफीज ऑफ वर्डस एंड द होम आफ दी आर्यन्स) परंतु इसके उपरांत भी आर्यों को एक जाति के रूप में भारत में मान्यता भी अंग्रेजों ने ही दी और यही मान्यता आज तक चली आती है। इसी मान्यता के कारण यह धारणा फैलाई गयी कि इन आर्यों ने उत्तर भारत में रहने वाले लोगों को दक्षिण भारत की ओर खदेड़ दिया और आर्यों द्वारा खदेड़े गये लोग ही आजकल द्रविड़ कहे जाते हैं। वैदिक इंडेक्स वालों ने ऋग्वेद (5-29-10) के एक मंत्र की अतार्किक व्याख्या करते हुए लिख दिया कि-

“ऋग्वेद (5-29-10) में दासों को अनास कहा गया है, जिससे पता चलता है कि वे वस्तुतः मनुष्य थे। इस व्याख्या से चपटी नाक वाले द्रविड़ आदिवासियों को लिया जा सकता है। इसी मंत्र में उन्हें ‘मृतघ्नवाच’ भी कहा गया है। जिनका अर्थ है-द्वेषपूर्ण वाणी वाले। इसका दूसरा अर्थ लिया गया है-लड़ाई के बोल बोलने वाले।”

कम से कम नेहरू जी से यह अपेक्षा की जा सकती थी कि वह हिंदुस्तान की खोज में यह स्पष्ट करते कि आर्य और द्रविड़ दोनों एक ही हैं और इनमें मतभेद पैदा करके देखना इस देश की राष्ट्रीय और एकता और अखंडता के दृष्टिगत अच्छा नहीं है।

आर्य के बारे में नेहरू जी की मान्यता है कि-

“आर्य शब्द का रफ्ता रफ्ता कोई जातीय अभिप्राय ना रह गया और इसके मानी कुलीन के हो गए। इसी तरह अनार्य के मानी यह हुए कि जो कुलीन न हो और यह शब्द आमतौर पर जंगल में रहने वालों और खानाबदोश जातियों के लिए इस्तेमाल में आता।”

इससे पता चलता है कि नेहरू जी आर्य-अनार्य के भेद को बनाए रखने के समर्थक थे।

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