-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

क्या परमात्मा है? क्या वह ज्ञान से युक्त सत्ता है। क्या उसने सृष्टि की आदि में मनुष्यों को ज्ञान दिया है? यदि वह
ज्ञान देता है तो वह ज्ञान उसने कब किस प्रकार से मुनष्यों को दिया था? इन प्रश्नों पर विचार करने पर
उत्तर मिलता है कि परमात्मा का अस्तित्व सत्य एवं निर्विवाद है। परमात्मा की सत्ता का प्रमाण यह
सृष्टि है और इसमें मनुष्यरूप व अन्य प्राणियों के रूप में हमारे अस्तित्व का होना है। किसी वैज्ञानिक
व बुद्धिमान के पास इस बात का उत्तर नहीं है कि यह संसार कब, कैसे, क्यों व किस सत्ता से अस्तित्व
में आया? उनके पास विचार करने के लिये कोई मार्गदर्शक ग्रन्थ व आचार्य आदि भी नहीं है। भारतियों
व उनमें भी केवल आर्यसमाज के अनुयायियों के पास ही ऋषियों के उपनिषद, दर्शन, मनुस्मृति आदि
ग्रन्थों सहित सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर प्रदत्त ज्ञान के रूप में चार वेद भी विद्यमान हैं जिनकी
अन्तःसाक्षी से वेद ईश्वरीय ज्ञान सिद्ध होते हैं। परमात्मा है तो उसकी बनाई कृति यह सृष्टि भी है।
यदि वह न होता तो इसकी यह कृति सृष्टि न होती। यदि कोई यह प्रश्न करे कि यदि यह संसार परमात्मा की कृति है, तो इसे
सिद्ध कैसे किया जा सकता है? इसका उत्तर है कि संसार में ऐसी कोई सत्ता नहीं है, जो सृष्टि का निर्माण कर सकती है। सृष्टि
की रचना अपौरुषेय रचना है। इसे मनुष्य अकेला व सभी मिलकर भी बना नहीं सकते। यदि बना भी सकते तो प्रश्न होता है कि
मनुष्य को बनाने वाली भी एक सत्ता होनी चाहिये थी। सृष्टि व मनुष्य आदि सभी प्राणियों को बनाने वाली एक ही सत्ता है और
वह ईश्वर वा परमात्मा है। यदि किसी को ईश्वर का साक्षात् करना है तो उसे योगाभ्यास, ध्यान व समाधि को प्राप्त कर किया
जा सकता है। हमारे सभी ऋषि व योगी ईश्वर का साक्षात् करते थे। ईश्वर का साक्षात् कर ही वह कहते थे ‘शन्नो मित्रः शं
वरुणः शन्नो भवत्वर्य्यमा। शन्नऽइन्द्रो बृहस्पतिः शन्नो विष्णुरुरुक्रमः।। नमो ब्रह्मणे नमस्ते वायो त्वमेव प्रत्यक्षं
ब्रह्मासि, त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि, ऋतं वदिष्यामि, सत्यं वदिष्यामि तन्मामवतु तद्वक्तारमवतु। अवतु माम् अवतु
वक्तारम्।’ कोई भी मनुष्य यदि योगाभ्यास करता है और योग के लिये आवश्यक नियमों का पालन करता है, तो वह ईश्वर का
प्रत्यक्ष कर सकता है।
हम यह भी अनुभव करते हैं कि संसार में कोई भी मनुष्य यदि निष्पक्ष रूप से वेद एवं वैदिक साहित्य का अध्ययन
करता है तो उसकी आत्मा ईश्वर के अस्तित्व को स्वतः स्वीकार कर लेती है। इसका एक कारण यह है कि ईश्वर हमारी आत्मा
में व्यापक है। हमारा ईश्वर से व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध है। ईश्वर हमारी आत्माओं में निरन्तर सत्यासत्य की प्रेरणा करता
रहता है। ईश्वर की प्रेरणा के लिये आवश्यक यह है कि हम शुद्ध व पवित्र अन्तःकरण वाले हों। इसका मुख्य कारण यह है कि
ईश्वर स्वमेव परम शुद्ध एवं परम पवित्र चेतन एवं ज्ञानवान सत्ता है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये हमें अपने जीवन को
सत्य विचारों एवं सत्य आचरण से विभूषित करने के साथ शुद्ध अन्न, जल एवं वायु का सेवन कर शुद्ध एवं पवित्र बनना
होगा। इसी विधि से हमारे वेद एवं योग के अभ्यासी मनीषी ईश्वर का ध्यान, चिन्तन व मनन करते हुए ईश्वर का प्रत्यक्ष किया
करते थे। परमात्मा ज्ञानयुक्त सत्ता है। इसका ज्ञान उसकी अपौरुषेय विशिष्टि रचनाओं को देखकर होता है। परमात्मा ने
सृष्टि सहित सभी प्राणियों की रचना की है। हम किसी व्यक्ति के ज्ञान का आंकलन उससे बात-चीत करके व उसके पत्रों व
पुस्तक आदि को पढ़कर लगाते हैं। ऋषि दयानन्द के ज्ञान का अनुमान भी हमें उनकी रचनाओं व ग्रन्थों को पढ़कर ही होता है।
इसी प्रकार से ईश्वर की पुस्तक यह सृष्टिरूपी रचना है।
सृष्टि में परमात्मा ने जिस ज्ञान व शक्ति का प्रयोग किया है उसका तो हम व हमारे वैज्ञानिक सहस्रांश भी नहीं
जानते। आज सृष्टि के 1.96 अरब वर्ष व्यतीत हो जाने के बाद भी हम व हमारे वैज्ञानिक सृष्टि को पूरी तरह से नहीं जान सके
हैं। आज भी ऐसे अनेक रोग है जिनके विषय में वैज्ञानिक व चिकित्सक जानते ही नहीं हैं। बिहार में पिछले दिन दिनों लगभग
2
150 लोग बुखार से मर गये। आधुनिक चिकित्सा शास्त्र में इसका कहीं उल्लेख भी नहीं है। अतः चिकित्सकों को इस बीमारी
का ज्ञान ही नहीं था। उपचार तो वह रोग व उसकी ओषधि के ज्ञान के बाद ही कर सकते थे। अतः हमारी सृष्टि ईश्वर के
ज्ञानवान होने का संकेत करती व पता देती है। ईश्वर ज्ञानवान अर्थात् सर्वज्ञ सत्ता है। वह सूक्ष्मातिसूक्ष्म, रंगरूप रहित,
सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक एवं पवित्र सत्ता है। सर्वव्यापक का अर्थ है कि वह संसार में सब जगह तथा सब पदार्थों यथा
जीवात्मा आदि के भी भीतर व बाहर सर्वत्र है। जीवात्मा एक चेतन सत्ता होने से ज्ञान ग्रहण करने की क्षमता रखता है। सृष्टि के
आरम्भ में अमैथुनी सृष्टि के मनुष्यों को ज्ञान देने वाला ईश्वर के अतिरिक्त कोई नहीं होता। बिना ज्ञान के मनुष्य अपना कोई
भी कार्य नहीं कर सकता। ज्ञान व भाषा साथ-साथ रहती हैं। अतः सृष्टि के आरम्भ में अमैथुनी सृष्टि के मनुष्यों को ज्ञान
केवल ईश्वर से ही मिल सकता है। वह ज्ञान ईश्वर प्रदत्त होने से अलौकिक व दैवीय भाषा से युक्त शब्दों व व्याकरण आदि से
युक्त होता है जो मनुष्यों की रचना की सामर्थ्य से होना सम्भव नहीं होता। ऐसा ज्ञान चार वेदों का ज्ञान है। वेदों में ईश्वर,
जीवात्मा सहित सभी सत्य विद्याओं का सत्य ज्ञान है। हमारा विचार है कि यदि ईश्वर ने सृष्टि के आरम्भ में वेदों का ज्ञान न
दिया होता तो मनुष्य भाषा सहित ज्ञान की उत्पत्ति नहीं कर सकते थे। वेदों की भाषा एवं ज्ञान को देख कर इसका ईश्वर प्रदत्त
होना सिद्ध होता है। सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा द्वारा ऋषियों को दिया गया वेदज्ञान ही परम्परा व गुरु-शिष्य परम्परा से
लोगों को मिलता रहा है और वही वर्तमान में भी हमें सुलभ है। हमने वेदों का ज्ञान सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों को पढ़कर प्राप्त
किया है, इस कारण से सत्यार्थप्रकाश व इसके रचयिता ऋषि दयानन्द हमारे गुरु व आचार्य हैं तथा वह हमारे लिए
परमादरणीय हैं।
परमात्मा का अस्तित्व है, वह ज्ञानवान सर्वज्ञ सत्ता है और उसके द्वारा सृष्टि के आरम्भ में मनुष्यों को दिया गया
ज्ञान वेद है। वेदों का यह ज्ञान कहां व किसके पास है? इसका उत्तर है यह ज्ञान ऋषि दयानन्द के समय में विलुप्त हो गया था।
उसे उन्होंने अपने अथक पुरुषार्थ से प्राप्त किया था और उसके बाद अपने वेदांगों के ज्ञान से वेदों के मर्म को जानकर न केवल
सत्यार्थप्रकाश एवं ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि ग्रन्थ ही लिखे थे अपितु वेदों के सत्यार्थयुक्त वेदभाष्य करने का कार्य भी
किया था। यद्यपि ऋषि दयानन्द के अनुसार वेदों के अध्ययन, अध्यापन व वैदिक सिद्धान्तों के अनुसार जीवनयापन करने
का मनुष्यमात्र को अधिकार है परन्तु हमारे देश की अज्ञान व स्वार्थों में फंसी जनता ने वेदों से लाभ नहीं उठाया। वह वर्तमान
समय तक अविद्यायुक्त मत-मतान्तरों के अन्धकार में फंसे हुए हैं। हमारे सनातन पौराणिक बन्धु वेदों को ईश्वरीय ज्ञान
मानते तो हैं परन्तु उसका वह आदर व लाभ नहीं लेते जो उनके लिये उचित है। वह अविद्यायुक्त पुराणों व ऐसे ही अन्य ग्रन्थों
को अपना धर्म व कर्तव्य मान बैठे हैं। ऋषि दयानन्द ने इनकी यह अविद्या दूर करने के अनेकानेक प्रयत्न किये परन्तु इन्होंने
उससे लाभ नहीं उठाया। ईसाई एवं मुसलमान तथा बौद्ध, जैन व सिख समुदाय के लोग भी वेदों को वह महत्व नहीं देते जो
ईश्वरीय ज्ञान होने के कारण उन्हें दिया जाना चाहिये।
वर्तमान समय में केवल आर्यसमाज जी वेदों का सच्चा वाहक एवं धारक है। सभी आर्यों द्वारा जीवनयापन एवं अन्य
कार्य वेदों की आज्ञा अनुसार ही किये जाते हैं। वह वेद एवं वेदानुकूल ग्रन्थों सत्यार्थप्रकाश, उपनिषद एवं दर्शन आदि का
अध्ययन करते हैं। चारों वेदों पर ऋषि एवं अन्य विद्वानों के वेदभाष्य का अध्ययन भी आर्यसमाज के अनुयायी नियमित रूप
से करते हैं। सभी आर्यसमाजी शाकाहारी एवं वेदधर्म पारायण होते हैं। देशभक्ति एवं समाजहित इनके लिये सबसे अधिक
महत्व रखता है। वेदों की भाषा संस्कृत है। वेदों एवं संस्कृत का सबसे अधिक सम्मान यदि संसार में कोई करता है तो वह
आर्यसमाज व उसके अनुयायी ही हैं। आर्यसमाज का मुख्य उद्देश्य ही इसके संस्थापक ऋषि दयानन्द ने वेद प्रचार निर्धारित
किया है। आर्यसमाज संगठन की यदि एक वाक्य में परिभाषा की जाये तो यह विश्व में वेदों का प्रचार व प्रसार करने वाला
संगठन वा आन्दोलन है। आज संसार में वेदों का जो सम्मान व प्रचार है, उसका समस्त श्रेय ऋषि दयानन्द एवं उनके
अनुयायी वैदिक विद्वानों सहित आर्यसमाज के संगठन को है। आर्यसमाज के सभी लोग वेदों पर आधारित प्रातः व सायं ईश्वर
का ध्यान करने के लिये संन्ध्या करते हैं। प्रतिदिन प्रातः सायं अग्निहोत्र यज्ञ भी करते हैं। आर्यसमाज जाकर प्रति रविवार को
3
यज्ञ करने के साथ भजन एवं वेद प्रवचनों द्वारा सत्संग करते हैं। आर्यसमाज द्वारा अनेक प्रकार के सामाजिक कार्य किये जा
रहे हैं। आर्यसमाज अनाथालय, विद्यालय, चिकित्सालय व क्लिनिक सहित वेद और संस्कृत प्रचार आदि के अनेक कार्य
करता है। अतः इस संसार के रचयिता एवं पालक ईश्वर द्वारा प्रदत्त ज्ञान का एकमात्र वाहक, धारक, पोषक एवं प्रचारक संसार
में केवल आर्यसमाज ही है। आज संसार में वेद विद्यमान हैं तो इसका श्रेय ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज को ही है। अतः
आर्यसमाज संगठन विश्व का सबसे पवित्र, प्राणी मात्र का हितकारी, अज्ञान, अन्धविश्वासों एवं सामजिक असमानताओं को
दूर करने वाला श्रेष्ठ एवं महान संगठन है। हम आर्यसमाज के संस्थापक ऋषि दयानन्द एवं इस आन्दोलन को अपने प्राणों व
तन-मन-धन से सींचने वाले सभी विद्वानों व महापुरुषों सहित दिव्य भावनाओं से युक्त इसके कार्यकर्ताओं को सादर नमन
सहित अभिनन्दन करते हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
पताः 196 चुक्खूवाला-2
देहरादून-248001
फोनः09412985121
https://www.facebook.com/groups/1071435136328120/permalink/1459208044217492/
शुध्दोहम् ज्वेलर्स के द्वारा बहोत बहोत बधाई एवं शुभकामनायें और एक ही मैं हूँ की प्रत्यक्ष रूप से ही मैं भी एक सच्चाईयां परीक्षा की भावौकी उज्ज्वलता के द्वारा ही असंख्यात प्रदेशी नीज ध्रुव निश्चय से मैं हूँ की प्रत्यक्ष अनुभूति सिर्फ़ दिगंबर गुरूवर के चरणों मे ही होती हैं जीवात्मा अनादी अनंत शाश्वत सत्य है और अपनों अनंत गुणौकी शक्तियां प्रकट करने से ही सम्यकदर्शन हैं कि महिमा हैं जीवात्मा अनादी अनंत शाश्वत सत्य है। जैनभूगोल देखे तो पता चला कि मैं कौन हूँ ?
उन्होंने अरिहंत प्रभू की वाणी में ओम् ओम् ध्वनि की जाणकारी हो तो सबकुछ मुमकिन हैं जीवात्मा अनादी अनंत शाश्वत सत्य है।
प्रत्यक्षात निजध्रूव कीं जाणकारी कीं उत्सुकता से सब कुछ समझ कर हम अपने जीवन में आनंद की प्राप्ति होती हैं जीवात्मा का ज्ञान से परिपूर्ण हैं हो हूँ।
पुज्यश्री वीरसागरजी की धार्मिक और सात्विक मनोभावों का अनुभवों को प्रत्यक्ष रूप से अनुभूति करते हुऐ अनंतकाल के लिए आत्मरमणता पर ही ध्यानी बनो और पहचानते हुए प्रत्यक्ष जाणता हूँ की मैं जीवात्मा अनादी अनंत अपार असीम आकाश की बीचो-बीच यह विश्व का स्वरूप को प्रत्यक्ष जाणणा सुलभ हैं।
जैनभूगोल की जाणकारी कोई भी नहीं कहतें हैं आत्मा ही सम्यकदर्शन हैं कि महिमा हैं। मैं ज्ञान मात्र चेतन आत्मा हूँ आप भी हो हैं ही तो धर्म्यध्यान की बातौको भी कहना चाहीऐ जाणणा ही विश्वास हैं। अनेकांतसे सच्चाईयां का ज्ञानाश्रयी में ही आनंद की अनुभूति होती हैं। बाकी सबकुछ ज्ञेय की पर्यायें है। क्षणिक ही हैं।
खुद को प्रत्यक्ष जाणणा शुध्दोपयोग हैं । शुध्दोहम्। ????।