उमेश कुमार साहू
भारत की संस्कृति में पर्व केवल तिथियाँ नहीं होते, वे जीवन के सूत्र हैं, जो समय की धारा में मनुष्य की चेतना को प्रकाशित करते हैं। इन्हीं में दीपावली, वह अनोखा पर्व है जो प्रकाश से अधिक ‘अर्थ’ का उत्सव है। यह केवल दीप जलाने का नहीं, ‘अंधकार से संवाद’ करने का क्षण है जब मनुष्य स्वयं से पूछता है, “मेरे भीतर का दीप कब जलेगा?”
पौराणिक झिलमिल : प्रथम दीप का रहस्य
दीपावली का आरंभ उतना ही रहस्यमय है जितनी उसकी ज्योति। कठोपनिषद् के नचिकेता संवाद में जब मृत्यु और अमरत्व का रहस्य उद्घाटित हुआ, तब मानव ने पहली बार ‘ज्ञान का दीप’ जलाया। उस समय घी के दीए जलाकर स्वागत किया गया, वही प्रथम दीपावली कही गई। त्रेता युग में श्रीराम के अयोध्या लौटने की घटना ने इस पर्व को लोक-हृदय में अमर कर दिया। चौदह वर्षों का वनवास, रावण पर विजय और धर्म की पुनर्स्थापना। यह सब केवल इतिहास नहीं, आत्मबल का प्रतीक है। जब अयोध्या दीयों से जगमगाई, तो वह केवल नगर नहीं, मानव-मन का आलोक था।
दक्षिण भारत में इसे बलिप्रतिपदा कहा गया। भगवान विष्णु के वामन रूप में दैत्यराज बलि को पाताल भेजने की कथा अहंकार से विनम्रता की ओर संक्रमण की प्रतीक है। उस दिन दीप जलाकर लोग बलि का स्वागत करते हैं, मानो कह रहे हों – “अंधकार चाहे जितना भी गहरा हो, दीप उसका सम्मान करता है, शत्रुता नहीं।”
इतिहास के पृष्ठों में दीपों की आभा
प्राचीन भारत में दीपावली केवल धार्मिक नहीं, बल्कि राजकीय पुनर्नवीकरण का पर्व भी थी। मौर्य काल में राजा और प्रजा समान रूप से दीप जलाकर शासन-वर्ष का आरंभ करते थे। गुप्त काल में व्यापारी वर्ग ने इसे नए लेखा-वर्ष की शुरुआत के रूप में अपनाया। इस दिन से बही-खाता पूजन की परंपरा शुरू हुई। मध्यकाल में यह उत्सव सांस्कृतिक एकता का प्रतीक बना। सूफी कवि अमीर खुसरो ने लिखा—
“दीवाली की रात, हर दिल में दीया जलता है,
चाहे वह मंदिर का हो या मस्जिद का।”
जैन परंपरा में दीपावली का अर्थ निर्वाण का प्रकाश है, क्योंकि भगवान महावीर ने इसी दिन देह-त्याग किया। बौद्ध इतिहास में इसे सम्राट अशोक के ‘धर्म परिवर्तन’ से जोड़ा गया। युद्ध के अंधकार से करुणा के प्रकाश की ओर उनका झुकाव इसी काल का प्रतीक था।
दार्शनिक दृष्टि : प्रकाश का अर्थ केवल उजाला नहीं, चेतना है
“तमसो मा ज्योतिर्गमय” – अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो। यह मंत्र केवल दीप जलाने का नहीं, आत्मा को जगाने का संकेत है। दीपक की लौ सदा ऊपर को उठती है, क्योंकि उसका स्वभाव ही ऊर्ध्वगामी है। मनुष्य भी तभी दिव्य होता है जब उसका जीवन लोभ से नहीं, लक्ष्य से प्रेरित हो। दीपावली हमें यह स्मरण दिलाती है कि प्रकाश और अंधकार शत्रु नहीं, दोनों एक ही चेतना के रूप हैं। जब हम भीतर की अंधेरी वृत्तियों को पहचान लेते हैं, तभी सच्ची दीपावली हमारे मन में घटित होती है।
समाज और संस्कृति : पाँच दिवसों की पंचधारा
दीपावली के पाँच दिन भारत की जीवन-दृष्टि के पाँच आयाम हैं—
· धनतेरस : आरोग्य और आयु का प्रतीक, जब धन्वंतरि की आराधना होती है।
· नरक चतुर्दशी : नकारात्मकता के नाश और आत्मशुद्धि का दिवस।
· अमावस्या (मुख्य दीपावली) : अंधकार पर प्रकाश की विजय, लक्ष्मी-गणेश पूजन और नई शुरुआत।
· गोवर्धन पूजा : पर्यावरण और कृषि के प्रति कृतज्ञता – कृष्ण का इंद्र के अहंकार पर विजय का प्रतीक।
· भाईदूज (यम द्वितीया) : स्नेह और पारिवारिक एकता का पर्व, यम-यमुना की पावन कथा से प्रेरित।
यह पाँचों दिवस बताते हैं कि समृद्धि का अर्थ केवल धन नहीं, स्वास्थ्य, सदाचार, कृतज्ञता और प्रेम भी है।
लक्ष्मी : धान्य से धन तक की यात्रा
वेदों में लक्ष्मी को ‘धान्यलक्ष्मी’, ‘धैर्यलक्ष्मी’ और ‘ज्ञानलक्ष्मी’ कहा गया। पर आज वह केवल ‘धनलक्ष्मी’ बनकर रह गई हैं। जब लक्ष्मी को हम श्रम, सेवा और सादगी से जोड़ते हैं, तो वह श्री बनती हैं – समृद्धि का प्रकाश। पर जब वही लक्ष्मी लोभ से जुड़ती हैं, तो अलक्ष्मी का रूप ले लेती हैं। इसलिए दीपावली से पहले घर की सफाई, झाड़ू और फिर दीप। यह क्रम प्रतीक है कि पहले अशुद्धता मिटाओ, फिर प्रकाश लाओ, तभी समृद्धि टिकेगी।
निर्वाण और अमर ज्योति
भगवान महावीर ने दीपावली की रात देह-त्याग कर आत्मा को अमर प्रकाश में विलीन किया। उनके अनुयायियों ने अनगिनत दीये जलाकर घोषणा की – “अंधकार अब नहीं रहेगा।” स्वामी दयानंद सरस्वती ने भी दीपावली के दिन अपने जीवन का पट बंद किया। स्वामी रामतीर्थ ने गंगा में विलीन होते हुए कहा – “गंगा, तू प्रकाश की धारा है, मुझे अपने प्रकाश में समा ले।” इन घटनाओं से दीपावली केवल लोक उत्सव नहीं, आत्मा का उत्कर्ष बन गई।
विज्ञान, पर्यावरण और मनोविज्ञान का उत्सव
दीपक का वैज्ञानिक पक्ष भी अद्भुत है। घी या तिल के तेल से जलने वाला दीपक वातावरण में ऑक्सीजन संतुलन बनाए रखता है। मिट्टी के दीए प्रकृति-मित्र हैं। वे धरती से जन्म लेते हैं और उसी में विलीन हो जाते हैं। यह पारिस्थितिक परंपरा आज के युग में सस्टेनेबल कल्चर की मिसाल है। मनोविज्ञान कहता है कि प्रकाश के संपर्क से मस्तिष्क में सेरोटोनिन हार्मोन का स्राव बढ़ता है, जो मनुष्य को प्रसन्न, शांत और सकारात्मक बनाता है। इस प्रकार दीपावली एक आध्यात्मिक ही नहीं, वैज्ञानिक चिकित्सा भी है।
आधुनिक अर्थ : उपभोग से उपलक्ष्य तक
वर्तमान युग में दीपावली का स्वरूप उपभोक्तावादी होता जा रहा है, जहाँ प्रकाश से अधिक आतिशबाज़ी का शोर है। पर असली दीपावली तब है जब एक दीप से दूसरा दीप जलता है, जब प्रकाश बाँटने से बढ़ता है। यदि हर व्यक्ति अपने भीतर सत्य, करुणा और दया का दीप जलाए, तो समाज स्वयं अयोध्या बन सकता है।
दीपावली हमें याद दिलाती है कि प्रकाश की कोई जाति, धर्म या भाषा नहीं होती। वह मानवता की साझी भाषा है।
जब प्रकाश दर्शन बन जाता है
दीपावली भारत की आत्मा का उद्घोष है। यह कहती है कि अंधकार शत्रु नहीं, शिक्षक है, क्योंकि उसी से प्रकाश का मूल्य जन्म लेता है। जब तक एक दीप जलता रहेगा, एक ईमानदार हृदय, एक सत्यवादी आत्मा, एक संवेदनशील मानव, तब तक यह धरती अंधकारमय नहीं हो सकती।
“दीपावली केवल रोशनी नहीं, यह आत्मा का जागरण है।”
“जहाँ एक दीप जलता है, वहाँ से एक युग आलोकित होता है।”
उमेश कुमार साहू