जब ज़िंदगी हमारी परेशान हो गयी,
अपने पराये की हमें पहचान हो गयी।
सोने की चिड़िया उड़ गयी मुर्दार रह गये,
दंगों से बस्ती देश की शमशान हो गयी।
मतलब ना हो तो अपने भी पहचानते नहीं,
रिश्तों की जड़ भी फ़ायदा नुकसान हो गयी।
कुछ बन गये तो बच्चे मेरे दूर हो गये,
नगरी मेरी हयात की वीरान हो गयी।
अपने दुश्मन से हमंे प्यार ना हो जाये कहीं…..
ज़िंदगी और भी दुश्वार ना हो जाये कहीं,
अपने दुश्मन से हमें प्यार ना हो जाये कहीं।
जिसको आते हैं नज़र हम सभी ग़द्दारे वतन,
कल को साबित वही ग़द्दार ना हो जाये कहीं।
जिसको चाहा है दिलो जान से बरसों हमने,
वो मेरे सर का ख़रीदार ना हो जाये कहीं।
मैंने ये सोच के घर सौंप दिया भाई को,
बीच घर में खड़ी दीवार ना हो जाये कहीं।।
नोट-मुर्दार-मरा हुआ, हयात-ज़िंदगी, वीरान-सुनसान, दुश्वार-कठिन।।