‘विश्वास-मत’ की कसौटी पर ‘आप’

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राजेश कश्यप

‘आम आदमी पार्टी’ दिल्ली विधानसभा में ‘विश्वास-मत’ की कसौटी पर खड़ी है। इस कसौटी पर ‘आप’ खरा उतर पायेगी अथवा नहीं, यह तो समय ही बतायेगा। लेकिन, वह अपने वायदों पर बिल्कुल खरा उतर चुकी है। ‘आप अपने घोषणा-पत्र के पानी और बिजली से सम्बंधित दोनों शीर्ष वायदों को मात्र 48 घण्टे के अन्दर पूरा कर चुकी है। मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने अस्वस्थ होने के बावजूद वो सब कर दिखाया, जिसकी संभवतः किसी ने कल्पना ही नहीं की थी। चन्द घण्टों में मुफ्त पानी की सौगात देना और बिजली के आधे दाम करने एवं बिजली कंपनियों के गले में ऑडिट का फन्दा डालने जैसे असंभव कार्य को अंजाम तक पहुंचाना देश के राजनीतिक इतिहास में एक मिसाल के तौरपर जाना जायेगा। ‘आप’ ने दिल्ली में अब तक जो कुछ किया है, उसका एक-एक कदम, एक-एक फैसला और एक-एक तेवर एकदम अचूक, अनुपम एवं अनुकरणीय रहा है। एक तरह से देश के राजनीतिक इतिहास में सबकुछ अभूतपूर्व हो रहा है।

आम आदमी के असीम आक्रोश को जो सकारात्मक दिशा ‘आप’ ने दी है, उसकी जितनी तारीफ की जाए, उतनी कम है। मंहगाई, भ्रष्टाचार, गरीबी, बेरोजगारी आदि समस्याओं से बुरी तरह त्रस्त आम आदमी का आक्रोश आसमान पर जा पहुंचा था। आम आदमी के इस आक्रोश को सार्थक अंजाम तक पहुंचाने के लिए वयोवृद्ध समाजसेवी अन्ना हजारे और योगगुरू बाबा रामदेव ने अनुकरणीय पहल की। राजनीतिक व्यवस्था परिवर्तन एवं भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए अन्ना हजारे ने दिल्ली के रामलीला मैदान में वर्ष 2011 में 13 दिन तक आमरण अनशन को आजादी की दूसरी जंग ‘अगस्त क्रांति’ का सूत्रपात करके आम आदमी को अपने अन्दर भरे आक्रोश को जाहिर करने का ऐतिहासिक अवसर दिया। उधर, बाबा रामदेव ने देश से बाहर भेजे गऐ अकूत काले धन को वापिस लाने की देशव्यापी हुंकार भरी। इन दोनों ही आन्दोलनों के समर्थन में आम जनमानस का असीम सैलाब सड़कों पर उतर आया। सड़क पर उतरे इस जनसैलाब ने संसद में बैठे जनप्रतिनिधियों को भी हिलाकर रख दिया। सत्तारूढ़ यूपीए सरकार ने इन आन्दोलनों की हवा निकालने के लिए साम-दाम-दण्ड-भेद आदि हर नीति का सहारा लिया। सरकार ने रामलीला मैदान के जननायकों को अनशन का ड्रामा छोड़कर चुनाव लड़ने और अपनी मर्जी के कानून बनाकर दिखाने जैसी चुनौती दी गई।

विडम्बना का विषय रहा कि सत्तारूढ़ सरकार अपने इरादे में कामयाब हो गई और येन-केन-प्रकारेण अन्ना हजारे और रामदेव के आन्दोलनों की बिल्कुल हवा निकालकर रख दी। इन आन्दोलनों की विफलता और सरकार की कारगुजारियों से आम आदमी एकदम निराश हो उठा और मन से हार बैठा। आम जनमानस की चेतना शून्य हो चली और यह मान बैठी की जब पूरा देश सड़कों पर उतरकर सरकार को बुरी तरह घेर चुका है और उसके बावजूद कुछ भी हल नहीं निकला तो इससे बढ़कर और क्या होगा? इस देश में कुछ नहीं हो सकता, जैसी विचारधारा का वातावरण बनता चला गया। आम जनमानस के अन्ना हजारे और रामदेव के रूप में दोनों ब्रहा्रस्त्र निष्फल हो चुके थे। दोनों ने चुनावी समर में उतरकर जनप्रतिनिधिव करके दिखाने की सरकारी चुनौती को भी एकदम अस्वीकार कर दिया। धरने-प्रदर्शनों की इंतहा होने के बावजूद आम जनमानस के आक्रोश को सार्थक दिशा न मिलना, देश के लोकतांत्रिक इतिहास के लिए किसी काले अध्याय से कम न था। मन से हारी हुई अवाम में पुनः चेतना जगाना, आत्म-उत्साह भरना, जज्बा जगाना और अपने असंतोष एवं आक्रोश को मंजिल तक पहुंचाना, एकदम असंभव-सा दिखाई देने लगा। ऐसी विपरीत और विषम परिस्थितियों के बीच टीम अन्ना के प्रमुख सदस्य और मैगेस्से अवार्ड विजेता अरविन्द केजरीवाल ने आम आदमी को टूटकर बिखरने से बचाने की साहसिक पहल की।

अरविन्द केजरीवाल ने आम आदमी के आक्रोश व अंसंतोष को दृढ़-संकल्प, बुलन्द इरादे और अटूट हौंसले के साथ अनहद आवाज दी और उसकी गैरत को जमकर ललकारा। उन्होंने आम आदमी के अन्दर दफन राजनीतिकों के प्रति गुस्से को अपना ब्रहास्त्र बनाया। सिर पर कफन बांधकर भ्रष्ट नेताओं को सरेआम नंगा किया और सबूतों के साथ नेताओं के काले कारनामों का चिठ्ठा सार्वजनिक किया। नेताओं की काली करतूतों का पर्दाफाश किया और सड़ी-गली परंपरावादी भ्रष्ट राजनीति को जमकर ललकारा। इसके साथ ही अरविन्द केजरीवाल ने आम आदमी को उनकीं शक्ति का सहज अहसास करवाया और उनमें एक बार नई ऊर्जा, नई उम्मीदों और बुलन्दो हौंसलों का संचार किया। देखते ही देखते एक नया कारवां जुड़ता चला गया। समय की हर पदचाप को परखते हुए अरविन्द केजरीवाल ने सत्ताधीशों द्वारा चुनावी समर में उतरने की चुनौती को भी खुलकर स्वीकार किया। परिणामस्वरूप आम आदमी के अरमानों के अनुरूप ‘आम आदमी पार्टी’ का गठन हुआ। इसके गठन के चन्द माह बाद ही दिल्ली के विधानसभा चुनावों का डंका बज उठा। इस चुनावी रणभेरी में ‘आप’ के सामने जहां एक तरफ लगातार पन्द्रह साल से जमी सत्तारूढ़ शीला सरकार थी तो दूसरी तरफ देश में नई उर्जा व उम्मीदों का संचार कर रहे प्रधानमंत्री प्रत्याशी नरेन्द्र मोदी का ‘नमोः फैक्टर’ देशभर में अपना असर दिखा रहा था। ऐसे समीकरणों के बीच बिल्कुल नई पार्टी को चुनावी मैदान में उतारना, एक तरह से आत्मघाती कदम था। इसके बावजूद, अरविन्द केजरीवाल ने यह कदम उठाया।

देश में हुए पाँच विधानसभा चुनावों में एक से बढ़कर एक रिकार्ड़ बने और हर राज्य में एक नया इतिहास रचा गया। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा ने हैट्रिक बनाई। राजस्थान में भाजपा ने रिकार्ड़ सीटों के सीटों के साथ दूसरी बार सत्ता हासिल करने का गौरव हासिल किया। मिजोरम में कांग्रेस ने लगातार पाँचवी बार अपनी सत्ता स्थापित की। चार राज्यों में कांग्रेस का बुरी तरह सूपड़ा साफ होने का एक नया रिकार्ड़ बना। लेकिन, इन सबके बावजूद, देश में सिर्फ दिल्ली विधानसभा के चुनावी परिणाम ही प्रमुख चर्चा का विषय रहे। भाजपा ने अपने सहयोगी दल के साथ सर्वाधिक 32 सीटें हासिल कीं। दूसरे स्थान पर आम आदमी पार्टी ने अप्रत्याशित रूप से 28 सीटें जीतकर हर किसी को अचम्भित करके रख दिया। राजनीतिक पण्डितों से लेकर चुनावी सर्वेक्षणों तक ‘आप’ को 6 से 16 सीटों के बीच ही समेटे हुए थे। कांग्रेस को मात्र 8 सीटें ही हासिल हो सकी। मुख्यमंत्री शीला दीक्षित सहित कांग्रेस के बड़े-बड़े धुरन्धर ‘आप’ के नए उम्मीदवारों के आगे घुटने टेकने को विवश हो गए। चंद माह पहले अस्तित्व में आई ‘आप’ का यह प्रदर्शन देश के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में अंकित हो गया।

दिल्ली में कोई भी पार्टी बहुमत के लिए 36 सीटें नहीं हासिल कर सकीं। परंपरानुरूप, चूंकि भाजपा 32 सीटों के साथ प्रमुख पार्टी थी तो उसे सरकार बनाने का मौका मिलना था। लेकिन, पहली बार किसी शीर्ष पार्टी ने सरकार बनाने से साफ मना कर दिया और उलटे दूसरे स्थान पर आई अपनी विरोधी पार्टी को सरकार बनाने के आमंत्रण के साथ-साथ रचनात्मक सहयोग देने का भी वायदा कर डाला। दूसरी तरफ, चुनावों में ‘आप’ के हाथों बुरी तरह धूल चाटने वाली कांग्रेस ने बिना मांगे ही उपराष्ट्रपति को ‘आप’ के नाम बिना शर्त समर्थन पत्र सौंप दिया और अरविन्द केजरीवाल को सरकार बनाने के साथ-साथ अपने चुनावी वायदों को पूरा करने की भी घोर चुनौती दे डाली। विरोधी पार्टियों के सहयोग से सरकार बनाने की परिस्थितियों के बीच केजरीवाल भारी धर्म-संकट में फंस गए और धुरन्धर विरोधी पार्टियों के चक्रव्युह में बुरी तरह धंसते नजर आए। लेकिन, उन्होंने अपनी दूरगामी सोच और तत्काल ठोस फैसले लेने की अलौकिक क्षमता के सहारे नए समीकरणों के सन्दर्भ में जनमत सर्वेक्षण करवाया और अंततः अपने मानकों के अनुरूप दिल्ली की सत्ता पर काबिज हो गए।

अब पूरी तरह भाजपा और कांग्रेस दोनों पार्टियों के निशाने पर केजरीवाल आ चुके थे। दोनों पार्टियां केजरीवाल को अपने असंभव दिखने वाले बिजली व पानी के मुद्दों पर घेरने और आम आदमी की नजरों में गिराने के लिए मोर्चा संभाले बैठे थे। मात्र 48 घण्टों में अपने शीर्ष वायदों को पूरा करने के साथ-साथ सार्वजनिक मंच से मुख्यमंत्री की शपथ लेने के तुरन्त बाद अफसरशाही में भ्रष्टाचार के सन्दर्भ में भयंकर खौफ पैदा करने का ऐतिहासिक कारनामा करके अरविन्द केजरीवाल एक बार फिर सभी धुरन्धर राजनीतिकों पर भारी पड़े हैं और हर कसौटी पर बिल्कुल खरे उतरे हैं। अब उनके समक्ष अगली चुनौती सदन में ‘विश्वास-मत’ हासिल करना है। चूंकि, उनके पास मात्र 28 सीटें हैं और बहुमत से 8 सीट दूर है तो ऐसे में विश्वास-मत हासिल करने नामुमकिन है। लेकिन, यदि ‘आप’ विश्वास-मत हासिल नहीं कर पाती है तो इसका नकारात्मक असर ‘आप’ पर पड़ने की बजाय भाजपा व कांग्रेस पर पड़ना लगभग तय है। क्योंकि, भाजपा ‘आप’ के सरकार बनाने से पहले रचनात्मक सहयोग देने और कांग्रेस बिना शर्त लिखित समर्थन देने का वायदा किए हुए है।

अरविन्द केजरीवाल मुख्यमंत्री की शपथ लेने के तुरन्त बाद अपने ऐतिहासिक सम्बोधन में विपक्षियों के तेवरों के अनुरूप सरकार की भावी तस्वीर पहले ही साफ कर चुके हैं और सरकार रहे या न रहे, वे आम आदमी का पूर्ण विश्वास जीत चुके हैं। अब चूंकि, वे चन्द घण्टों में अपने शीर्ष चुनावी वायदों को भी अमलीजामा पहना चुके हैं तो ऐसे में विपक्ष के पास ‘आप’ की सरकार बनाए रखने के सिवाय और अन्य कोई सार्थक विकल्प नहीं है। निःसन्देह, यदि भाजपा ‘आप’ को रचनात्मक सहयोग देने और कांग्रेस बिना शर्त ‘आप’ को समर्थन जारी रखने के अपने वायदे से पीछे हटती है तो यह भविष्य में उनके लिए एकदम आत्मघाती कदम सिद्ध होगा। ‘आप’ सरकार, आम आदमी की उम्मीदों पर खरा उतर रही है और लोकतांत्रिक परम्पराओं में भी अतिआवश्यक नवीनीकरण करने जैसा सराहनीय एवं अनुकरणीय कार्य कर रही है। ऐसे में विपक्षी पार्टियों को संकीर्ण सोच एवं स्वार्थ छोड़कर ‘आप’ को सरकार चलाने का पूरा मौका देना चाहिए और लोकतांत्रिक जड़ों को नए सिरे से नए अर्थों में मजबूत होने देना चाहिए।

6 COMMENTS

  1. दोनों (आप-कांग्रेस) लिव इन रिलेशनशिप में है, लड़का(कांग्रेस) खुद ही मेरा सारा खर्चा उठाना चाहता है और वो(कांग्रेस) ही जो मुझसे चिपक रहा है मैं(आप) थोड़े ही उसे घास डाल रही हूँ, ये जानते हुये की वो(कांग्रेस) चरित्रहीन है मुझे इसमे कोई बुराई नज़र नहीं आती क्योंकि हमने(आप-कांग्रेस) कोई शादी थोड़े ही की है, लेकिन गर्भवती (कोई आरोप लगने पर या सरकार गिरने पर) होनेपर दोष लड़के(काग्रेस) पर ही जायेगा अजीब स्थिति है केजरिवाल के भक्त आशाराम समर्थकों से भी गए गुजरे निकले कोई बात तो केजरीवाल ने साबित की होती पिछले दो साल से किसी भी वचन पर टिका नहीं और समर्थक अवैध संबंधों को भी जायज़ ठहरनें को आतुर है क्योंकि परिवार(जनता) ने स्वीकार कर लिया है, हद है

    • हा हा हा शैलेन्द्र जी बहुत सुंदर टिप्पणी…

    • शैलेन्द्र सिंह, जबाब नहीं है आपका भी .क्या आप भ्रष्टाचार को इतना अच्छा समझते हैं हैं कि इस अल्पमत सरकार की तुलना आपने आशाराम और न जाने किस किस से कर डाली?. आम आदमी पार्टी ने तो मुद्दों पर सहयोग देने के लिए दोनों पार्टियों से अपील की थी.अगर ये १८ मुद्दे आम आदमी की भलाई के लिए थे,तो भाजपा ने क्यों नहीं आम आदमी पार्टी का साथ नहीं दिया या स्वयं अल्पमत वाली सरकार क्यों नहीं बनाई?अगर वाजपेई की सरकार की तरह डाक्टर हर्षवर्द्धन की सरकार भी गिर जाती ,तो जनता के पास जाने से सपोर्ट की और ज्यादा उम्मीद होती.वह तो उन्होंने किया नहीं ,उलटे केजरीवाल के ऊपर चढ़ बैठे कि जब बिना शर्त समर्थन मिल रहा है तो अरविन्द केजरीवाल जिम्मेदारी से क्यों भाग रहे हैं.अब जब जनता के दबाव के में सरकार बन गयी और सरकार ने एक एक करके अपने मुद्दों पर काम करना शुरू किया,तो फिर विरोध में तरह तरह की आवाजें उठने लगी. क्योंकि भाजपा एक ही सिद्धांत में विश्वास करती है क़ि चित भी मेरी पट्ट भी मेरी. अब केजरीवाल और उनकी टीम को यह ख्याल करते हुए क़ि हाथी चले बाजार ,कुत्ते भूके हजार,बेपरवाह होकर जनता की भलाई के कार्य करते रहने हैं. ऐसा उनलोगों ने बार बार दुहराया भी है.

  2. उपराष्ट्रपति नही उपराज्यपाल
    आप ‘आप’ के प्रति आशावान हैं
    इस स्थिति में भाजपा को कोई साथ नहीं देनेवाला था – या तो आप उसे समर्थन मुद्दों पर देती या फिर नए चुनाव की बात होती
    यह लोकतंत्र का मखौल है की अधिक मत पानेवाला विपक्ष में रहे और कम मत पानेवाला राज करे
    राज कैसा कौन करे या करेगा यह अभी आकलन का अविषय नहीं है
    बिहार और असम आन्दोलन से भी युवा निकले थे ???
    कामराज को हरनेवाला युवा कहाँ गया??
    नकारात्मकाक मतों से सकारात्मक राजनीती नहीं बनती
    वैसे भाजपा को चुपचाप आत्म निरीक्षण करना चाहिए- गडकरी, बिजेंद्र के बयान असामयिक थे
    भाजपा ही नहीं सभी दलों को अच्च्छे उम्मीदवार उतरना चाहिए- जाति, धन का आधार ख़त्म होना चाहिए

  3. जिसने भी विश्वास मत के समर्थन में अरविन्द केजरीवाल का भाषण सुना होगा,उसके मन से यह शंका मिट जानी चाहिए कि अरविन्द केजरीवाल या उनकी पार्टी का रूख किसी भी भ्रष्टाचारी के प्रति ढीला होगा,चाहे वह कांग्रेस का हो,या बीजेपी का या उनकी अपनी पार्टी का ही क्यों न हो.

  4. पर कांग्रेस के प्रति अब केजरीवाल का हल्का सा झुकाव व हमला यह दर्शाने लगा है कि वे उसके प्रति कुछ आभार महसूस कर रहें हैं.भ्रस्टाचार सम्बन्धी मुद्दों पर उनका रुख क्या रहता है व कितना आक्रामक. उसी से ही आँका जा सकता है.

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