दृष्टिकोण

3
180

saas bahuचंदन मेरा बचपन का मित्र है। उसके लिए सबसे उचित संबोधन ‘लंगोटिया यार’ है। यानि जब हमें लंगोट पहनने की भी तमीज नहीं थी, तब से हम लोग मित्र हैं। खेलकूद हो या पढ़ाई, खानपान हो या लड़ाई, हम हर जगह साथ-साथ पाये जाते थे। पढ़ाई के बाद दोनों की राहें अलग-अलग हो गयीं। वह कारोबार में लग गया, मैं नौकरी में; पर मिलना-जुलना बना रहा।

 

उम्र के साथ विवाह, बच्चे और फिर व्यस्तता बढ़ती गयी। समय की एक धारा ने मुझे दूसरे शहर में फेंक दिया। अतः मिलना कुछ कम हुआ; पर साल में एक-दो बार गांव तो जाता ही था। तब मिलकर घंटों बैठते और पुरानी यादें ताजा करते थे। घर, परिवार, नौकरी, कारोबार और सुख-दुख की बातें भी साझा होती थीं। भगवान की कृपा से मुझे पत्नी अच्छी मिल गयी। अतः मेरा पारिवारिक जीवन सुख और शांति से बीता।

 

घर-गृहस्थी तो चंदन की भी ठीक थी; पर उसकी पत्नी माला की अपनी सास से बिल्कुल नहीं पटी। दोष सास का था या बहू का, यह तय करना कठिन था। अतः दोनों में हर दिन विवाद होने लगा। एक दिन तो दोनों में हाथापाई ही हो गयी। चंदन ने संभालने की बहुत कोशिश की; पर सफल नहीं हुआ। वह दिन भर दुकान पर रहता था। रात को घर आता, तो कभी मां, तो कभी पत्नी अपने दुखड़े लेकर बैठ जाती। पानी को सिर से ऊपर जाता देख चंदन ने काफी बड़ा घर होते हुए भी दूसरी मंजिल पर दो कमरे और रसोई बनवा दी। जिस दिन उस रसोई में पहली बार चूल्हा जला, चंदन कई दिन तक ठीक से खाना नहीं खा सका।

 

यद्यपि रसोई और आवास अलग होने से सास-बहू के बीच कटुता कुछ कम हो गयी; पर मन तो फिर भी दूर-दूर ही रहे। मौहल्ले-पड़ोस में चंदन के इस निर्णय की खूब आलोचना हुई। एक बहन तो दो साल तक मायके ही नहीं आयी; पर वह क्या करता, उसे तो दोनों तरफ निभाना था। हां, बच्चों को दोनों जगह आने-जाने की पूरी स्वतंत्रता थी। वे दिन भर नीचे ही खेलते-कूदते थे। मां को इस बात से ही बड़ा संतोष था।

 

चंदन दुकान पर जाते समय मां से मिलकर उनकी आवश्यकता पूछते हुए जाता था और दोपहर में भोजन के लिए आते समय वह वस्तु मां को दे देता था। पिछले साल की बात है, जब चंदन नीचे उतरा, तो मां को बिस्तर पर पड़े देखा। उसे बहुत आश्चर्य हुआ। हर दिन तो मां सबसे पहले उठ जाती थीं। चंदन जब दुकान पर जाता, तो वे नहा-धोकर काम में लगी मिलती थीं; पर आज… ? चंदन ने तुरंत डॉक्टर को बुलाया। उसने जांच कर बताया कि कमजोरी के कारण रक्तचाप काफी नीचे चला गया है। शायद उन्होंने पिछले चौबीस घंटे में कुछ खाया भी नहीं था। डॉक्टर ने कुछ दवाइयां देते हुए यह भी कहा कि मां को रात में अकेले न छोड़ा जाए।

 

उस दिन से कभी चंदन, तो कभी बड़ा बेटा नीचे सोने लगे। धीरे-धीरे बेटा अपनी किताबें आदि भी वहीं ले आया और फिर वह स्थायी रूप से दादी के पास ही रहने लगा। चंदन की इच्छा थी कि माला पुरानी बातें भूलकर फिर नीचे आ जाए। माला जब कभी नीचे आती, तो मां से हालचाल पूछ लेती थी। बीमारी के चलते मां के लिए भोजन भी ऊपर से ही आने लगा; पर रसोई एक करने को माला किसी भी तरह तैयार नहीं थी।

 

दो महीने बाद एक दिन मां ने सदा के लिए आंखें मूंद लीं। तेरहवीं के बाद माला फिर से स्थायी रूप से नीचे आ गयी। ऊपर के कमरे बच्चों की पढ़ाई और अतिथियों के काम आने लगे। कुछ दिन में मां की मृत्यु का दुख कम हो गया और जीवन सामान्य रूप से चलने लगा; पर चंदन को इस बात का बहुत दुख था कि वृद्धावस्था में जब मां को सेवा-संभाल की आवश्यकता थी, तब माला ने यह कर्तव्य नहीं निभाया।

 

समय बीतते देर नहीं लगी। बच्चे बड़े हो गये। चंदन की बेटी का विवाह हो गया। अब बड़े बेटे की बारी थी। वह भी उसके साथ कारोबार में ही लगा था। तभी माला की तबियत ढीली होने लगी। बार-बार सिर में दर्द, चक्कर और बेहोशी। घरेलू और स्थानीय इलाज के साथ ही पूजा-पाठ भी कराया गया। जब इससे भी लाभ नहीं हुआ, तो दिल्ली के बड़े अस्पताल में जांच हुई। पता लगा कि दिमाग में एक फोड़ा है, जो कैंसर में बदल गया है। इलाज के दौरान पैसा तो बहुत खर्च हुआ; पर गाड़ी अधिक दिन नहीं चली और छह महीने में ही माला का निधन हो गया।

 

समाचार पाकर मैं गांव गया। एक दिन ऐसे ही चंदन के साथ फुर्सत में बैठा था। माला के असमय निधन और उसके बाद जीवन में आये खालीपन की बातें होने लगीं। अचानक चंदन बोला, ‘‘सच कहूं, कभी-कभी मुझे लगता है कि माला की मृत्यु, कम से कम उसके लिए तो ठीक ही हुई।’’

 

– क्या मतलब ?

 

– असल में उसने मां को जितने कष्ट दिये, वे सब बच्चों ने भी अपनी आंखों से देखे थे। मां के बारे में वह कैसी बातें कहती थी, यह बच्चों ने भी सुनी ही हैं। इसलिए बच्चों के मन में अपनी मां के लिए कोई विशेष सम्मान नहीं था। अब तक तो वे मां पर निर्भर थे; पर शादी के बाद तो यह निर्भरता नहीं रहती। ऐसे में बेटा मां की तरफ ध्यान क्यों देता ? और जब बेटे का व्यवहार ऐसा होगा, तो बहू ने उसे पानी तक को नहीं पूछना था। इसलिए अच्छा हुआ, वह चली गयी। मैं तो जैसे-तैसे दुकान पर समय काट ही लूंगा। कम से कम उसके कष्ट और अपमान देखने से तो बच गया।

 

चंदन का यह दृष्टिकोण सुनकर मैं हैरान रह गया।

 

विजय कुमार

3 COMMENTS

  1. कैसी बिडंबना है कि आज अनैतिकता और सामाजिक कुरूतियों के बीच हम सदैव स्थिति विशेष पर व्यक्तिगत दृष्टिकोण बना कहानी को केवल कहानी नहीं धारावाहिक बनाए रखते हैं। संभवतः भारतीयों की अंतरात्मा मर चुकी है नहीं तो कुछ अनुपयुक्त करते अंतरात्मा पूछती है, क्यों? इस “क्यों?” का सोच समझते प्रयाप्त उत्तर ही जीवन में संतुलन और अनुशासन लाते घर एवं समाज को सुदृढ़ व संतुष्ट बना सकता है।

Leave a Reply to इंसान Cancel reply

Please enter your comment!
Please enter your name here