दूसरा रामायण

—विनय कुमार विनायक
सीता रावण की कन्या थी, इसे रावण ने जाना था,
किन्तु रावण ने राम को, पूर्व से ही शत्रु माना था!

रावण दुखित थे राम से, बहन की नाक कट जाने से
रावण की इच्छा थी, राम को सियाविरह में रुलाने की,
अस्तु रावण ने ठानी अपनी पुत्री को घर ले आने की,
रावण बड़ा ही ज्ञानी थे, किन्तु बड़ा ही अभिमानी भी!

रावण के मन में नहीं काम,बस सिर्फ एक ही थी आन,
बेटी को उसके घर से लाना,जिसने किए बहन अपमान!

रावण ने अपने मन के रहस्यों को सबसे छुपाया था,
भय था, घर वालों का राम से रागात्मक हो जाने का!
इन्द्रजीत की राम से बदले की भावना मिट जाने की,
मंदोदरी का पुत्री-जमाता के लिए व्याकुल हो जाने का,
सबसे अहम पुत्री प्रेम में ननद का अपमान भुलाने का!

अस्तु रावण ने सीता को अशोक वाटिका में ला ठहराया,
भूमिजा का शोक मिटाने हेतु बहुत सारे इंतजाम कराया!
लंकेश्वर ने बहु विधि सीता को बहलाया और फुसलाया,
राम को भूल जा पुत्री, उसने जाति का अपमान किया!
राम तो मनुज है उसे तुमने परमेश्वर क्यों मान लिया?

सारे ईश्वर को कैद किया मैंने और तुम्हारे भ्राता ने,
यकीन नहीं तो चलो देख लो मेरी स्वर्णपुरी लंका में!
मुझे ज्ञात है तुम मेरी पुत्री हो, स्वर्ण की चाहतवाली,
मगर तुझे तुच्छ राम ने बना दिया एक वल्कलवाली!

सवा सौ नाती,सवा सौ पोते हैं, मेरे ब्राह्मण कुल में!
किन्तु तुम मेरी इकलौती कन्या रहोगी क्यों धूल में?

भूल जा मानव राम का नाम,हम राक्षस हैं बड़े महान!
हमसे रक्षण मांगते हैं ऋषि-मुनि, मानव,देव और ईश्वर,
हमसे बड़ा सिर्फ एक है झारखंड का महादेव रावणेश्वर!

हम ब्राह्मण हैं,हम असुर हैं,हम यक्ष-दनुज-दानव वीर,
किन्तु नहीं हैं हम देव-ऋक्ष-मानव और वन का वानर!

तुम्हें हमारी एक भूल ने बना डाला है एक भूमिबाला,
भूमि जोतता किसान हिमालय की तराई में तुझे पाला!

अपनी भूल को मैंने तब जाना था, जब सुना तुम रोज
झाड़ती-बुहारती थी, उस शिवधनुष को हाथ से उठाकर,
जनक के घर, जिसे धारता था मेरा कोई एक कुलधर,
तब मुझको भान हुआ, तुम हो मेरी मंदोदरी के अंशधर!

मैं हूं ज्योतिष का ज्ञानी, किन्तु किसी के कहने भर से
कि यह बाला नाश करेगी उस भू का जहां जन्म लेगी!
मैंने तुम्हें तत्क्षण त्याग दिया था जनकपुर के क्षेत्र में,
लेकिन मेरा वह वहम था, तुम नाश नहीं नाम करेगी
इस धरती पर महासती राक्षस रावण की सुपुत्री होकर!

मैं जानता हूं तुम नहीं त्यागोगी, उस आर्य राम को,
तुम आर्यानी, तुम ब्राह्मणी, तुम क्षत्रियाणी हो चुकी!

मैंने आर्यत्व को छोड़ा, ब्राह्मणत्व से भी मुख मोड़कर,
चलाया एक नवीन रक्षसंस्कृति अनार्यजनों से मिलकर!
तुम भारत की नारी हो, कैसे भूलोगी स्वपति परमेश्वर?

मैं जानता हूं अगर मैं हारा तुमसे और तुम्हारे पति से,
तो ये विजयी मानव लांक्षण का इतिहास लिखेगा मेरा!
‘सीता मंदोदरीगर्भेसंभूता चारुरूपिणी,क्षेत्रजातनयाप्यस्य
रावणस्य रघूत्तम’ भागवत कथन को कौन झुठलाएगा?

तुम मेरी पुत्री हो, तुम्हें लाया सात्त्विक ब्राह्मण बनकर,
मैं फूल सी बेटी को पुष्पक में पितृ भावना से बिठाकर!

मेरे चन्द्रहास खड्ग को तुमने, दूर्वा तृण से डराया था,
साक्षी है वे महादेव पिता-पुत्री के बीच के वार्तालाप का!

किन्तु अग्नि लेकर चलने वाला,अग्नि में जलनेवाला,
ये सनातनी तुम्हारी परीक्षा लेगा अग्नि में जला कर!

ये ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र कहते अपने को शुद्ध,
शुद्धि संस्कार कराकर भी ये करेगा नहीं तुझे स्वीकार!

अस्तु तुम स्वीकार करो मेरी चलाई रक्ष संस्कृति को,
त्याग दो वर्णाश्रम धर्म की भेद-भाव विकृत रीति को!

अगर मेरा प्रस्ताव तुझे नहीं स्वीकार तो लड़ना होगा,
मरे तुम्हारा परमेश्वर या मुझको ही अब मरना होगा!

लौटाऊंगा नहीं तुम्हें कायर सा, लड़ूंगा मैं वीरों जैसा,
पाऊंगा यदि वीर गति तो तुम्हारा पति भी मुझे देंगे
सम्मान, पंडित ब्राह्मण, गुरु, पिता,श्वसुर समझकर!
—विनय कुमार विनायक

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

17,590 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress