राजनीति

द्विवेदी ने रखा दुखती राग पर हाथ

-सिद्धार्थ शंकर गौतम-    Janardan-Dwivedi

कांग्रेस के वरिष्ठ नेता जनार्दन द्विवेदी ने लोकसभा चुनाव के ठीक पहले जाति आधारित आरक्षण को गैर-ज़रूरी ठहराते हुए इसे आर्थिक रूप से पिछड़े समुदाय को देने की वकालत कर एक ऐसा मुद्दा गरमा दिया है जिससे राजनीति में अमूल-चूल बदलाव हो सकते हैं| हालांकि कांग्रेस ने अपने ही सिपहसालार के बयान से किनारा कर यह जताने की कोशिश की है कि उसका वोट बैंक इस बाबत परेशान तथा चिंतित न हो| दरअसल आरक्षण आज़ाद भारत में एक ऐसा मुद्दा है जिसने राजनीतिक गिरावट को बढ़ाया ही है| चाहे पद्दोन्नति में आरक्षण का मसला हो या जातियों को दिया जाने वाला आरक्षण; मुस्लिम आरक्षण हो या हाल ही में लोकपाल की नियुक्ति में आरक्षण की वकालत, आरक्षण देश में ऐसा नासूर बन चुका है जिसकी विभीषिका से सभी वाकिफ हैं| हाल ही में केंद्र सरकार ने जैन समुदाय को अल्पसंख्यक दर्ज़ा देकर बहुसंख्या समुदाय की भावनाओं के साथ कुठाराघात किया है| कई जैन संगठन भी दबे स्वर में इस आरक्षण की खिलाफत कर रहे हैं| उन्हें लगता है कि आरक्षण के चलते अपेक्षाकृत आर्थिक और सामाजिक रूप से सक्षम जैन समुदाय को भी बहुसंख्यकों द्वारा हेय दृष्टि से देखा जाएगा| आज आरक्षण पाना मानो फैशन बन गया है| जिस समुदाय के पास आरक्षण का हथियार नहीं है, मानो वह आज़ाद भारत में सांस ही नहीं ले पाता| आरक्षण पाना तो मानो सर्वोच्चता की निशानी बन गया है। देखा जाए तो भारत में 85 फीसद रोजगार निजी क्षेत्र प्रदत्त करता है। निजी क्षेत्र वैसे भी आरक्षण को नकार चुका है। यहां योग्यता ही आगे बढने का पैमाना है। सारी मारा-मारी 15 फीसद रोजगार को लेकर है, जो सरकार के अंतर्गत आते हैं। इस 15 फीसद रोजगार को आरक्षण में लपेटकर सरकार स्वयं फंसती रही है। आरक्षण का मुद्दा पहले भी भारतीय राजनीति में भूचाल लाता रहा है। आजाद भारत के संविधान में कुछ जातीय समूहों को अनुसूचित जाति, तो कुछ को अनुसूचित जनजातियों के रूप में सूचीबद्ध किया गया था। संविधान निर्माताओं का मानना था कि जाति व्यवस्था के कारण अनुसूचित जातियों व अनुसूचित जनजातियों को भारतीय समाज में सम्मानजनक स्थान नहीं मिला था, इसलिए राष्ट्र-निर्माण की गतिविधियों में इनकी हिस्सेदारी भी कम रही। संविधान ने सरकारी सहायता प्राप्त शिक्षण संस्थाओं की खाली सीटों व सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों में अजा-अजजा के लिए क्रमशः 15 प्रतिशत और 7.5 प्रतिशत का आरक्षण रखा था, जो दस वर्षों के लिए था। उसके बाद हालातों की समीक्षा की जानी थी। खैर इसकी समीक्षा तो आज तक नहीं हुई, बल्कि समय गुजरने के साथ आरक्षण का दायरा बढाया ही गया। संसद में भी इनके लिए आरक्षण दे दिया गया। विश्वनाथ प्रताप सिंह ने अपने शासनकाल में अति-पिछड़ों को भी सरकारी नौकरियों में आरक्षण दे दिया। भारत की वर्तमान केंद्र सरकार ने उच्च शिक्षा संस्थानों के दाखिलों में पिछडों को 27 फीसद आरक्षण दिया है। आरक्षण के मामले में राज्यों ने अपने-अपने राजनीतिक हितों के हिसाब से अलग मनमानी की है। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के अनुसार 50 फीसद से अधिक आरक्षण नहीं दिया जा सकता है, पर तमिलनाडु में यह आरक्षण 69 फीसद तक है| तमिलनाडु ही नहीं, बल्कि कई और राज्यों ने भी सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित आरक्षण सीमा का उल्लंघन कर दिया है। इसको लेकर सुप्रीम कोर्ट में तमाम मुकदमे भी चल रहे हैं। आरक्षण का लाभ वास्तविक दलितों और पिछड़ों को देने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने एक और बढ़िया व्यवस्था दी थी। पिछड़ों के आरक्षण के संबंध में उसने कहा था कि जो पिछड़े गरीब नहीं हैं, उनको आरक्षण के दायरे से बाहर किया जाए। यह क्रीमीलेयर (मलाईदार पर्त) का सिद्धांत है। सरकार अमीर पिछडों को आरक्षण के दायरे से बाहर निकालने का जोखिम नहीं उठा सकी। सुप्रीम कोर्ट उंगली न उठा सके, इसके लिए किया यह गया कि गरीबों की आय सीमा में इजाफा कर दिया गया। पहले डेढ़ लाख रुपए वार्षिक आमदनी वाले पिछडे क्रीमीलेयर में आते थे। फिर, इनकी आय सीमा बढाकर ढाई लाख और 2009 में साढ़े चार लाख कर दी गई है। यानी, जिन पिछड़ों की वार्षिक आमदनी साढ़े चार लाख रुपए से ज्यादा होगी, उन्हें की क्रीमीलेयर माना जाएगा और आरक्षण के दायरे से बाहर निकाला जाएगा।

आरक्षण का समर्थन करते समय अनेक लोग मंडल आयोग की रिपोर्ट का हवाला देते हैं, जिसके अनुसार देश में पिछड़ी जातियों की आबादी 52 फीसद है, जबकि राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण की रिपोर्ट (1999-2000) के अनुसार यह आंकड़ा सिर्फ 36 फीसद ही है। इसमें से यदि मुस्लिम ओबीसी आबादी को हटा दिया जाए, तो यह आंकड़ा सिर्फ 32 फीसद रह जाएगा। फिर, मान ही लें कि देश में पिछड़ों की आबादी 52 फीसद है, तो भी यह नहीं माना जा सकता कि सभी पिछड़ों को आरक्षण का लाभ नहीं मिलना चाहिए। यह तब मिलेगा, जब अमीर पिछड़ों को आरक्षण के दायरे से बाहर किया जाएगा और उनको भी, जो आरक्षण का लाभ एक बार ले चुके हैं। यदि यह नहीं किया गया, तो आरक्षण भी बना रहेगा और उसका लाभ भी पिछड़ों की दबंग और धनी जातियां लेती रहेंगी तथा वास्तविक पिछडों का भला नहीं हो पाएगा। कुल मिलाकर आरक्षण जिस रूप में आज चल रहा है, वह संविधान की सामाजिक न्याय की अवधारणा के विपरीत है, क्योंकि वह वोट बैंक की राजनीति से जुड़ गया है। तब स्वाभाविक यह भी है कि नए-नए वर्ग आरक्षण की मांग लेकर मैदान में आएंगे। हमने देखा कि राजस्थान के गुर्जर कैसे समय-समय पर दलितों में शामिल होने या अपने लिए अलग से पांच फीसदी आरक्षण के लिए सरकार व देश की नाक में दम कर देते हैं। चूंकि राजस्थान में वे एक बडे वोट बैंक भी हैं, इसलिए हमारी पूरी की पूरी राजनीतिक जमात उनके सामने घुटने टेक देती है। इन दिनों पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा और दिल्ली के जाट भी अपने आरक्षण के लिए उसी मार्ग पर चल रहे हैं, जो राजस्थान के गुर्जरों ने दिखाया है। दरअसल, जाट नेता अपने ही समुदाय को गुमराह कर रहे हैं। सच यह है कि केंद्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग जनवरी-2011 में ही आरक्षण का प्रस्ताव रद्द कर चुका है। मंडल आयोग ने जिन जातियों को आरक्षण देने की सिफारिश की थी, उनमें भी जाट शामिल नहीं थे। जाट नेताओं को आगे आकर अपने समुदाय को समझाना चाहिए था कि जाट पिछड़े नहीं हैं, पर वे चाहे किसी भी दल के हों, जाट आंदोलन का समर्थन ही कर रहे हैं। जैसे गुर्जर आंदोलन को प्रायः सभी दलों के गुर्जर नेताओं ने खुला समर्थन दिया था। वोट के भूखे और सत्ता के लालची राजनीतिज्ञ जो न करें, वह कम ही है। तरह-तरह के आरक्षणों के शिगूफे राजनीतिज्ञ ही छोड़ते हैं और अपने वोट पक्के करते हैं। अतः जनार्दन द्विवेदी के कहे को आज शायद ही कोई दल गम्भीरता से ले किन्तु इतना अवश्य है कि यदि समय रहते आरक्षण की समीक्षा नहीं की गई तो समाज में वर्ग भेद इतना बढ़ जाएगा कि उसे संभालना किसी सरकार के बस में नहीं होगा| द्विवेदी ने भले ही आरक्षण विरोधी बयान युवाओं को रिझाने के मकसद से दिया है किन्तु उनके मुंह से ऐसी बात निकली है जिसकी गूंज इस लोकसभा चुनाव में सुनाई अवश्य देगी| आजादी के बाद शुरुआती दस वर्षों के लिए शुरू हुआ आरक्षण आज नासूर बन गया है। इस आरक्षण ने दलितों-पिछड़ों के एक वर्ग के अलावा, समग्र समुदाय को कोई लाभ नहीं दिया है। अतः जरूरत इस बात की है कि हम अपनी आरक्षण नीति की समीक्षा करें।