प्रतिध्वनि 2- कलेवर 

Palash

अनुपम सक्सेना

बहुत सी बातें
ऐसी होती हैं
जो अनकही रह जाती हैं

कई प्रश्न
ऐसे होते हैं
जो अनुत्तरित रह जाते हैं

बहुत कुछ पकड़ने की कोशिश में
कुछ चीजें छूट जातीं हैं

कुछ सच ऐसे होतें हैं
जिन पर पर्दा डाल दिया जाता है

इन्ही अनकहे अनुत्तरित
छूटे हुए सच की
मैं प्रतिध्‍वनि हूँ ।

नया कलेवर

मैने कविता को
फूलो के जल से स्‍नान कराया
और इत्र का सुगंधित लेप लगा
हुजूर के दरबार में भेजा
कविता का आत्‍म गौरव
हुजूर को नागवार गुजरा
उन्‍होने कविता की चोटी पकड़
उसे फर्श पर पटक दिया
और उसके कपड़े फाड़ दिये

हुजूर के विचार थे कि
कविता में आत्‍मसम्‍मान और स्‍वाभिमान
नहीं होना चाहिए
कविता सामन्‍तों के मनोरंजन का साधन है
इसलिए उसके फटे कपड़ों से दिखते अंग
सौदर्य और आनन्‍द की अनुभूति करातें हैं

फिर मैने कविता को
नया कलेवर पहनाया
और उसके हाथ में तलवार थमा
उसे जनता को समर्पित कर दिया.

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