विविधा

शिक्षा के लिए योजना नहीं परिणाम चाहिए

 दिनेश साहू 

अभी हाल ही में प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने सर्वशिक्षा अभियान (एसएसए) तथा राष्‍ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान (आरएमएसए) की समितियों के पुनर्गठन को अपनी मंजूरी प्रदान कर दी। इसके तहत एसएसए की कार्यकारी व संचालन समिति तथा आरएमएसए की कार्यकारी समिति में और मंत्रालयों को शामिल किया जाएगा। इसका उद्देश्‍य दोनों कार्यक्रमों के बीच बेहतर तालमेल स्थापित करना है। ज्ञात हो कि प्राथमिक शिक्षा को सार्वभौम बनाने, इसके विस्तार व माध्यमिक शिक्षा की गुणवत्ता को बेहतर बनाने के लिए सर्वशिक्षा अभियान और राष्‍ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान कार्यक्रम को लागू किया गया था।

 

यह पहला अवसर नहीं है जब शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए केंद्र सरकार ने कोई सराहनीय कदम उठाया है। इसके पहले भी विभिन्न स्तरों पर कई योजनाओं को लागू किया जाता रहा है। शिक्षा के अधिकार (राइट टू ऐजुकेशन), मिड डे मिल, आर्थिक रूप से कमजोर छात्रों के लिए स्कॉलरशिप जैसी स्कीमें काफी कारगर सिद्ध हो रही हैं। इसके अतिरिक्त विभिन्न राज्यों की सरकारें भी शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए केंद्रीय स्कीमों के अलावा अपने स्तर पर कार्य कर रही हैं। जिसके उत्साहवर्धक परिणाम सामने आए हैं। यही कारण है कि आजादी के बाद से देश में शिक्षा के स्तर में लगातार वृद्धि दर्ज की जाती रही है। 1931 की जनगणना के अनुसार देश में साक्षरता दर महज 7.2 प्रतिशत था जबकि 1947 में यह बढ़कर 12.2 प्रतिशत हो गई। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद 1951 में प्रथम जनगणना के अनुसार देश में साक्षरता दर 18.33 प्रतिशत तक पहुंच गई। जबकि 1961 में 28.30 प्रतिशत, 1971 में 34.45 प्रतिशत और 1981 की जनगणना के अनुसार देश की साक्षरता दर 43.57 हो गई। 1991 में पहली बार देश की साक्षरता दर पचास प्रतिशत को पार कर गई और यह 52.21 प्रतिशत तक पहुंच गई। 2001 में 64.84 तथा 2011 की जनगणना के अनुसार देश में साक्षरता की दर 74.04 प्रतिशत हो गई।

 

शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए केंद्र एवं राज्य सरकार हर संभव प्रयास किए जा रही है। इसके लिए विश्‍व बैंक से भी आर्थिक सहायता ली जा रही है। हर साल बजट में शिक्षा के लिए एक बड़ी राशि दी जाती है। पढ़ने वालों के लिए केंद्र सरकार छात्रवृति तथा बैंकों से भी लोन उपलब्ध कराए जा रहे हैं। लेकिन इसके बावजूद शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए जिस तरह से योजनाएं चलाई जा रही हैं, उसका शत-प्रतिशत परिणाम देखने को नहीं मिल पा रहा है। इसका एक उदाहरण छत्तीसगढ़ है। जहां शिक्षा की लौ अब भी धीमी है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि इस राज्य में साक्षरता की दर 2011 की जनगणना के अनुसार 71 प्रतिशत से ज्यादा है जो देश की औसत साक्षरता दर 74.04 प्रतिशत से कुछ ही कम है। यहां की आबादी दो करोड़ 55 लाख 40 हजार 196 है। जो देश की कुल आबादी का 2.11 प्रतिशत है। इनमें 81.45 प्रतिशत पुरूश जबकि 60.59 प्रतिशत महिलाएं साक्षर हैं। लेकिन साक्षरता की यह दर हकीकत से कोसो दूर है। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि साक्षरता का पैमाना इस आधार पर तैयार किया जाता है कि अगर कोई व्यक्ति अपना नाम लिख और पढ़ सकता है तो उसे साक्षर मान लिया जाता है।

छत्तीसगढ़ को गांवों का राज्य कहा जाता है। जहां की 77 प्रतिशत आबादी इसी क्षेत्र में निवास करती है। 2011 की जनगणना के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में साक्षरता की दर 66.76 प्रतिशत है। यहां के गांवों में प्राथमिक विद्यालय तो जरूर हैं, जिससे सरकार का शिक्षा के प्रति लगाव नजर आता है। लेकिन उसकी दशा किस तरह है, इसकी सुध लेने वाला कोई नहीं है। अगर स्कूल हैं तो शिक्षक नही। इस कमी को दूर करने के लिए राज्य सरकार ने हाल ही में तीस हजार शिक्षकों की भर्ती की है। लेकिन इसके बावजूद इसमें कोई ज्यादा फर्क नजर नहीं आता है। वहीं दूसरी तरफ नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में यह स्थिती और भी खराब है। नक्सलियों द्वारा बहुत से स्कूल भवनों को उड़ा देने से यहां शिक्षा की व्यवस्था चरमरा गई है। उनके खौफ से शिक्षक इन क्षेत्रों में पढ़ाने से डरते हैं जिससे बच्चों को पूरी शिक्षा नहीं मिल पाती है। इसके अतिरिक्त गांवों में उच्च विद्यालयों की कमी से भी छात्र उंची शिक्षा हासिल करने से महरूम रह जाते हैं। आर्थिक तंगी के कारण बहुत से अभिभावक अपने बच्चों को हाई स्कूल पढ़ने के लिए दूसरे जिलों में भेजने में असमर्थ होते हैं। ऐसे में छात्रों का भविष्‍य मीडिल स्कूल में ही आकर खत्म हो जाता है। ऐसा रूझान बालिका शिक्षा में ज्यादा देखने को मिलता है। हालांकि राज्य सरकार की तरफ से आदिवासी लड़कियों में शिक्षा के स्तर को बढ़ाने के मकसद से उन्हें 9वीं क्लास से मुफ्त सायकिल वितरित की जाती है।

 

शिक्षा के प्रति अभिभावकों के इस नकारात्मक रवैये की अहम वजह उनमें जागरूकता की कमी का होना है। जिसका फायदा दूसरे लोग उठा रहें हैं। राज्य की कई कंपनियों में दूसरे क्षेत्रों के लोगों को उच्च पद प्राप्त हैं वहीं स्थानीय को उच्च शिक्षा नहीं होने के कारण चतुर्थ वर्ग में ही नौकरी मिल पाती है। ऐसे में आवश्‍यकता है लोगों में शिक्षा के प्रति जागरूकता को बढ़ावा देने का। इसके लिए केवल योजनाओं को बनाने से ही लक्ष्य की प्राप्ति संभव नहीं है, बल्कि जरूरत है धरातल पर उसके वास्तविक क्रियान्वयन पर जोर देने की है। (चरखा फीचर्स)