कविता

अहंकार बलिदान बड़ा है, देह के बलिदान से

-मधुसूदन- Phalgu-River

मिट्टी में जब, गड़ता दाना,

पौधा ऊपर, तब उठता है।

पत्थर से पत्थर, जुड़ता जब,

नदिया का पानी, मुड़ता है।

अहंकार दाना, गाड़ो तो,

राष्ट्र बट, ऊपर उठेगा,

कंधे से कंधा, जोड़ो तो,

इतिहास का स्रोत, मुड़ेगा।

अहंकार-बलिदान, बड़ा है,

देह के, बलिदान से,

इस रहस्य को,जान लो,

जीवन सफल, होकर रहेगा

इस अनन्त आकाश में,

यह पृथ्वी का बिंदू कहां ?

और, इस नगण्य, बिन्दुपर,

यह अहंकार, जन्तु कहां?

फिर ”पद” पाया, तो क्या पाया ?

और ना पाया, तो क्या खोया ?

{”क्या पाया? क्या खोया? ”}

अनगिनत, अज्ञात, वीरों नें,

जो चढाई, आहुतियां-

आज उनकी, समाधि पर,

दीप भी, जलता नहीं है।

अरे ! समाधि भी तो, है नहीं।

उन्हीं अज्ञात, वीरो ने,

आकर मुझसे, यूं कहा,

कि छिछोरी, अखबारी,

प्रसिद्धि के,चाहनेवाले,

न सस्ते, नाम पर,

नीलाम कर, तू अपने जीवन को

”पद्म-श्री,पद्म-विभूषण,

”रत्न-भारत, ”उन्हें मुबारक।”

बस, हम मां, भारती के,

चरणों पड़े, सुमन बनना, चाहते थे।

अहंकार गाड़ो, मां के लालों,

राष्ट्र सनातन ऊपर उठाओ,

और कंधे से, कंधा जोडो,

और इतिहास पन्ना, पलटाओ।

इतिहास पलट के दिखाओ।

इतिहास पलट के दिखाओ।

इतिहास पलट के दिखाओ।