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बिहार में बिजली संकटः राज्य सरकार की उदासीनता का नतीजा

-आलोक कुमार-
Power grid

आज पूरा उत्तर-पूर्व भारत बिजली की संकट से जूझ रहा है, बिहार में भी स्थिति भयावह है स्वाभाविक भी है, क्योंकि बिहार में सुचारू रूप से काम कर रही बिजली उत्पादन की कोई भी इकाई नहीं है। बिहार में नयी केन्द्रीय परियोजनाओं से उत्पादन की शुरुआत में भी अभी देरी है और राज्य सरकार की उत्पादन इकाइयां भी बदहाली और बंदी की कगार पर ही हैं। बहुप्रचारित सुशासनी सरकार के पिछले साढ़े आठ सालों के कार्यकाल में रुग्ण पड़ चुकी इन इकाइयों को दुरुस्त करने की लंबी–चौड़ी बातें तो की गयीं, लेकिन स्थिति अभी भी ‘ढाक के तीन पात’ वाली ही है। आठ-साढ़े आठ सालों का कार्यकाल कोई छोटा कार्यकाल नहीं होता है, लेकिन अफसोस की बात तो ये है कि इतने दिनों में, कोई नई उत्पादन की इकाई की बात तो छोड़ ही दें, पहले से स्थापित इकाइयों को केंद्र की सरकार की मदद के बावजूद दुरुस्त भी नहीं किया जा सका, ना ही समुचित संरचनाएं मुहैया करा कर किसी वृहत निजी उद्यम के स्थापना की कोई सार्थक पहल की गई, ना ही वैकल्पिक ऊर्जा की इकाइयों को स्थापित करने की कोशिश। ये साफ तौर पर सुशासनी सरकार की मंशा पर सवालिया निशान खड़े करता है, बावजूद इसके जबकि सुशासनी प्रणेता नीतीश जी ने मुख्यमंत्री रहते हुए अनेक बार अपने सम्बोधनों में इस बात का जिक्र किया था कि “अगर दो सालों में (ये समय सीमा अर्से पहले बीत चुकी है) २४ घंटे बिजली नहीं दे पाया तो वोट मांगने नहीं आऊँगा।’

बिहार के बरौनी और कांटी थर्मल पावर की दो-दो इकाइयों के रिमॉडलिंग की अनुशंसा मार्च २००५ में ही की गई थी और केंद्र से बीआरजीएफ योजना के तहत इसके लिए २००६ में १०५३ करोड़ रूपए भी मिले थे, लेकिन ना जाने किन कारणों (राज़्य सरकार ही बेहतर बता सकती है) से अब तक (जून २०१४ तक) सिर्फ कांटी की एक ही इकाई की रिमॉडलिंग की जा सकी है। विशेषज्ञों के मुताबिक अगर सभी चारों इकाइयों की रिमॉडलिंग का काम पूरा कर लिया जाता तो प्रदेश में १७५० करोड़ रूपए (राजस्व) की बिजली पैदा होती।

ऐसा प्रतीत होता है कि बिहार के लोगों को बिजली नहीं मिले इसके लिए राज़्य सरकार की ओर से जानबूझ कर उदासीनता बरती जा रही है, ताकि इसे केंद्र के खिलाफ ‘चुनावी राजनीति’ का मुद्दा बनाया जा सके। कोई भी राज्य सरकार अगर चाहे तो तीन सालों में ही वह बिजली के मामले में सरप्लस स्टेट बन सकता है, गुजरात इसका सबसे सटीक उदाहरण है (ज्ञातव्य है कि गुजरात में देश में सबसे अधिक बिजली उत्पादन ३०३३७ मेगावाट तथा वायु ऊर्जा का सदुपयोग करते हुए १००.५० मेगावाट बिजली का उत्पादन हो रहा है), जरूरत राजनैतिक इच्छाशक्ति और जन कल्याण के जज्बे की है।

आज की तारीख में बिहार में राजधानी पटना के वीवीआईपी इलाकों जहाँ ‘माननीयों’ के आवास हैं को छोड़कर एक भी शहर या गाँव ऐसा नहीं है, जहाँ निर्बाध रूप ८ से १० घंटे बिजली रहती हो। कृषि की बात तो छोड ही दीजिए त्रासदी तो ये है कि राज़्य के अधिकांश व्यापार और उद्योग जेनरेटर के भरोसे ही चलते हैं और रोजाना १४ से १६ घंटे जेनरेटर पर निर्भरता के कारण व्यापार की लागत काफी बढ़ जाती है। यही प्रमुख वजह है जिसके कारण बिहार में सही मायनों में विकास की रफ्तार अवरुद्ध है। उदहारण के तौर पर भागलपुर को ही लें, रेशम नगरी के नाम से मशहूर यह शहर बहुत आसानी से सूरत और भिवंडी जैसे वस्त्र निर्माण केंद्र के रूप में विकसित हो सकता है। मगर यहां का पूरा का पूरा रेशम उद्योग जेनरेटरों के भरोसे चलता है, लिहाजा यहाँ तैयार किया हुआ ‘तसर’ कीमत की स्पर्धा में पिछड़ जाता है। हाजीपुर और मुजफ्‌फरपुर का इलाका खाद्य प्रसंस्करण उद्योग का केंद्र बन सकता है लेकिन इस में भी सबसे बड़ी बाधा बिजली ही है, खगड़िया मक्के पर आधारित खाद्य प्रसंस्करण उत्पादों का हब बन सकता है, लेकिन हैरान करने वाली बात यह है कि भागलपुर हाजीपुर और मुजफ्‌फरपुर जैसे शहरों को भी हकीकत में रोजाना १५ से २० मेगावाट ही बिजली मिलती है और खगड़िया जैसे शहर के लोग तो १० मेगावाट बिजली भी पा लेते हैं तो अपने आप को सौभाग्यशाली समझते हैं।